भारत ओलंपिक में पदक नहीं जीतता क्योंकि भारत ओलंपिक में पदक जीतना ही नहीं चाहता

हमारी एक अलग ही रेस चल रही है।

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टोक्यो ओलंपिक में पदक तालिका पर एक नज़र डालें तो एक बड़ी विसंगति देखने को मिलती है। 12 दिनों की प्रतियोगिता के बाद, दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले भारत के पास सिर्फ दो रजत पदक और तीन कांस्य पदक हैं। ऐसा नहीं है कि भारतीय खेल में उत्कृष्टता हासिल नहीं कर सकते। हमारे देश का कोई भी क्रिकेट प्रशंसक आपको यह बता देगा कि क्रिकेट में हमारी वैश्विक स्थिति क्या है। तो आखिर क्या वजह है कि हम आज तक ओलंपिक खेलों में उत्कृष्टता हासिल नहीं कर सके हैं। दरअसल भारत ओलंपिक में इसलिए मेडल नहीं जीत पाता क्योंकि वह जीतना ही नहीं चाहता।

भारत में खेल के प्रति कोई उत्सुकता ही नहीं है। यहाँ किसी भी परिवार में लोग चाहते ही नहीं है कि उनका बच्चा खेलों को अपना कैरियर बनाए। इस क्षेत्र में न तो परिवार और न ही समाज निवेश करना चाहता है। यही कारण है कि हमारे देश में आज तक मेडल जीतने वाला स्पोर्ट्स कल्चर नहीं पनप पाया।

सोशल मीडिया पर कहीं एक जगह एक पोस्ट पढ़ी थी। जाने किसने लिखी थी, पर खूब लिखी थी। कहते हैं, “जिस देश में लोग टेनिस बॉल से क्रिकेट खेलते हों, हॉकी स्टिक का उपयोग गैंग-वॉर में किया जाए, रैकेट से कीट पतंगे और मच्छर मारे जाते हों, वहाँ आप आखिर कैसे आशा करते हैं कि ओलंपिक से भारत भर-भर के मेडल लाएगा?” ये बात व्यंग्य में भी भारत के ओलंपिक की तैयारियों, और ओलंपिक के प्रति भारत के रुचि के बारे में बहुत कुछ कह जाती है।

टोक्यो ओलंपिक समाप्त होने में केवल एक दिन बाकी है। लेकिन भारत ने अभी तक एक स्वर्ण पदक नहीं कमाया है। निस्संदेह भारत ने 2 रजत और 3 कांस्य पदक कमाए हैं, जो लंदन ओलंपिक 2012 के बाद का सबसे उत्कृष्ट परफ़ॉर्मेंस है। पर क्या इतने में ही हमें संतुष्ट रहना चाहिए? ऐसा क्या होता है कि 135 करोड़ से भी अधिक आबादी वाला देश 13 वर्षों में एक ओलंपिक स्वर्ण पदक नहीं अर्जित कर पाता है, जबकि हमसे कहीं गुना छोटे देश, जैसे कोरिया, जापान, इंडोनेशिया इत्यादि भर भर के स्वर्ण पदक एवं अन्य ओलंपिक पदक अर्जित कर रहे हैं। जापान तो टोक्यो ओलंपिक में पदक तालिका इस समय तीसरे स्थान पर है।

तो क्या हम इतने अयोग्य है कि हम किसी खेल में कुछ नहीं कर सकते? कम से कम क्रिकेट और शतरंज जैसे खेलों को देखकर तो ऐसा नहीं लगता। फिर ऐसा क्या हो जाता है कि ओलंपिक में जब देश को गौरव दिलाने की बात आती है, तो भारत को सांप सूंघ जाता है, और हमें इक्के दुक्के मेडल्स से ही संतुष्ट रहना पड़ता है? भारत ने पेरिस ओलंपिक वर्ष 1900 में पदार्पण किया था, लेकिन तब से आज तक हमारे पास 100 तो छोड़िए, 50 पदक भी नहीं है। हमने कुल 9 स्वर्ण पदक सहित 33 पदक जीते हैं, जिसमें से केवल एक ही व्यक्तिगत स्वर्ण पदक है – जो बीजिंग ओलंपिक 2008 में अभिनव सिंह बिन्द्रा ने प्राप्त किया था।

असल में भारत ओलंपिक में पदक इसलिए नहीं जीत पाता, क्योंकि भारत पदक जीतना ही नहीं चाहता। हमारी एक अलग ही रेस चल रही है, जहां हमारी प्राथमिकता ओलंपिक पोडियम नहीं, बल्कि नोबल प्राइज़, बुकर प्राइज़ इत्यादि या फिर एक बढ़िया सी सरकारी नौकरी है, ताकि बाकी का जीवन आराम से कट सके। भारत के जनमानस का दृष्टिकोण ओलंपिक में पदक जीतने की ओर कभी भी केंद्रित रहा ही नहीं है। ओलंपिक में भारत के औसत प्रदर्शन के पीछे दो प्रमुख कारण है – जोखिम लेने में आनाकानी और भारत में स्पोर्टिंग कल्चर को बढ़ावा न देना

खेलों में करियर को बढ़ावा देना एक जोखिम लेने के समान है। लेकिन अपने देश में लोग बच्चों को खेलने देने से ज्यादा उनके पढ़ने लिखने पे जोर देते हैं। यूं ही ये घटिया कहावत इतनी प्रसिद्ध नहीं हुई थी, ‘पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे कूदोगे तो होगे खराब!’ लोगों का, विशेषकर मध्यम वर्ग का मानना था कि खेलों में करियर बनाने से कुछ प्राप्त नहीं होता, जो प्रारंभ में कुछ हद तक सही भी था। लेकिन बदलते समय के साथ भी लोग बदलने को तैयार नहीं है। आज भी स्कूलों में एक ही गेम पीरियड होता है। ऐसी स्थिति में खेलों से मेडेल तो क्या, बच्चों के अंदर रुचि भी नहीं आएगी। हालांकि तब भी कुछ खिलाड़ी उत्कृष्टता के साथ जन्म लेते हैं परंतुन उनके सर पर भी किताबों का बोझ लाद दिया जाता है।

ऐसे न जाने कितने लोग होंगे, जो स्कूल कॉलेज में विभिन्न खेलों में काफी निपुण थे, लेकिन भीड़ चाल और माँ बाप के दबाव में उन्हें अपने सपनों की हत्या करनी पड़ी। ऐसे न जाने कितने अभिनव बिन्द्रा, कितने पीवी सिंधू, कितने रवि दहिया रहे होंगे, जिनके सपनों को उड़ान भरने देने से पहले ही समाज और अभिभावकों के दबाव में कुचल दिया गया।

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इसके अलावा भारत में अब पहले जैसा स्पोर्टिंग कल्चर भी नहीं है, जिसके बल पर हम अपने युवाओं को प्रेरित कर सके। जब भी ओलंपिक में हमारे खिलाड़ी फिसड्डी सिद्ध होते हैं, तो हम तुरंत सरकार को बलि का बकरा बना देते हैं, लेकिन बतौर जनता हमारी भी कुछ जिम्मेदारी होती है कि नहीं? कितनी बार हमने सरकार पर दबाव बनाया कि ओलंपिक के लिए खिलाड़ियों की तैयारी बढ़िया होनी चाहिए? हर कोई नरेंद्र मोदी या नवीन पटनायक की भांति स्वयं से जिम्मेदारी तो लेगा नहीं। कहीं न कहीं जनता को भी इस अभियान में भागीदार बनना ही होगा।

इसके अलावा हम अक्सर चीन के उदाहरण देते हैं कि वहाँ के नागरिक ओलंपिक पदक के लिए कितने लालायित रहते हैं। सिर्फ लोग ही नहीं बल्कि चीन को भी दुनिया में यह साबित करना होता है कि वह तानाशाही होते हुए भी अन्य देशों से खेलों में भी ताकतवर है। यही कारण है कि वहाँ की सरकार अपने खिलाड़ियों की फौज तैयार करने के लिए अपने सभी संसाधन का उपयोग करती है। यदि वास्तव में किसी देश का अनुसरण करना है तो क्यों नहीं जापान या कोरिया का करते? वे चीन की भांति किसी तानाशाही में नहीं रहते, लेकिन उनके नागरिक सदियों से अपने राष्ट्र के प्रति निष्ठावान रहें है। यही कर्तव्यपरायणता बच्चों में प्रारंभ से भरी जाती है, जिसके कारण वे ओलंपिक में भी इन दोनों देशों का नाम ऊंचा करते हैं। यही नहीं बाल्य अवस्था में ही स्क्रीनिंग होती है और जो बच्चे खेलों को अपना कैरियर बनाना चाहते हैं, वहाँ की सरकारें खर्च भी करती हैं। यानि अगली बार जब ओलंपिक में भारत का प्रदर्शन औसत रहे, तो इधर-उधर उंगली उठाने से पहले दर्पण में भी देख लें। असल दोषी वहीं मिल जाएगा।

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