तालिबान जीत गया है। अफगानिस्तान की राजधानी काबुल अब आतंकियों के कब्जे में है। अफगानिस्तान के चुने हुए राष्ट्रपति अशरफ गनी देश छोड़कर भाग चुके हैं। अमेरिका ने अपने दूतावास का झंडा उतार लिया है। तालिबान की ओर से मुल्ला अब्दुल घनी बरदार सत्ता संभालने वाला है। सत्ता का अनौपचारिक हस्तांतरण हो चुका है। अमेरिका और सहयोगियों की वर्षों की मेहनत, अफगान लोगों का भविष्य और उनकी उम्मीदें सब समाप्त हो गए हैं।
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सबकुछ इतना नाटकीय है जैसा अब तक किताबों में पढ़ने को मिलता था। अमेरिका और नाटो देशों के हटते ही एक के बाद एक शहरों पर तालिबान का कब्जा होता गया। जिस अफगान नेशनल आर्मी को वर्षों की परिश्रम से तैयार किया गया था, उसने बिना लड़े हथियार डाल दिए। यह कहना उचित नहीं होगा कि अफगान फौज ने बिना लड़े हथियार डाले बल्कि कहा जाना चाहिए कि अमेरिका ने उनका मनोबल इतना नीचे गिरा दिया कि उनकी हार हुई।
अभी कुछ दिनों पूर्व ही जब अमेरिका ने तालिबान के विस्तार को रोकने के लिए अपने बॉम्बर भेजे थे, तब अफगान आर्मी ने अमेरिकी एयरफोर्स की मदद से लड़ाई का रुख बदलने का प्रयास किया था, लेकिन अचानक अमेरिकी बॉम्बर युद्ध से गायब हो गए।
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8 साल की बच्चियों को सेक्स स्लेव बनाया जा रहा है। औरतों को नौकरी करने से रोका जा रहा है। एक देश की अस्मिता को आतंकियों द्वारा लूटा जा रहा है और दुनिया चुप है। चीन की ज़ाहलियत यही है कि उसने तालिबान के साथ समझौता कर लिया है। वहीं, अमेरिका युद्ध छेड़कर भागने की अपनी आदत से मजबूर है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका ने किसी महत्वपूर्ण युद्ध में सफलता नहीं पाई है। कोरियाई युद्ध के समय अमेरिका ने कोरियाई प्रायद्वीप में कम्युनिज्म के बढ़ते प्रभाव को रोकने का प्रयास किया था, कम्युनिज्म को तो समाप्त नहीं कर सका लेकिन कोरियाई प्रायद्वीप का विभाजन हो गया। आज उत्तर कोरिया और दक्षिण कोरिया की समस्या कितनी बड़ी है यह पूरी दुनिया जानती है।
जैसे आज अमेरिका को काबुल छोड़कर भागना पड़ा है कुछ ऐसा ही हाल वियतनाम युद्ध के समय भी हुआ था। अमेरिका समर्थक वियतनामियों को कम्युनिस्टों के हाथों बुरी तरह पराजित होना पड़ा था।
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वियतनाम की गुरिल्ला युद्ध नीति के कारण बड़ी संख्या में अमेरिकी सैनिक मारे गए थे। वैसा ही कुछ हाल अमेरिका का अफगानिस्तान में भी हुआ, जहां तालिबानियों की छापामार युद्धनीति अमेरिका के ऊपर भारी पड़ी।
It was Saigon then, it’s Kabul now. USA’s history of running away is legendary.
— Atul Kumar Mishra (@TheAtulMishra) August 15, 2021
पहले युद्ध छेड़ना फिर किसी देश को बर्बाद करके भाग जाना अमेरिका की विदेश नीति का हिस्सा हो चुका है। इसी प्रकार इराक में अमेरिका ने सद्दाम हुसैन को खत्म करने के इरादे से हमला किया था। सद्दाम हुसैन तो खत्म हो गया लेकिन जैसे ही अमेरिका में चुनाव संपन्न हुए और बराक ओबामा का शासन आया अपनी आंतरिक राजनीति के कारण अमेरिका ने इराक से बीच युद्ध में ही अपनी सेना वापस बुला ली।
नतीजा यह हुआ कि अमेरिका के जाते ही शक्ति संतुलन इस तरह बिगड़ा की आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठन का जन्म हुआ। अमेरिका के भरोसे जिन लोगों ने इराक को बदलने का सपना बुना था उनकी हत्या हुई, औरतों पर बेतहाशा अत्याचार हुए।
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अफगानिस्तान के संदर्भ में भी कहानी लगभग ऐसी ही है। जिस प्रकार इराक सद्दाम हुसैन के शासन में बंद था उसी प्रकार अफगानिस्तान तालिबानी शासन में कैद था। 9/11 के हमले के बाद, अमेरिकी जनता को संतुष्ट करने के लिए और आतंकवाद के खात्मे के नाम पर अफगानिस्तान पर हमला हुआ।
20 वर्षों के युद्ध के बाद अमेरिका ने अफगानिस्तान को उसी जगह पर लाकर छोड़ दिया है, जहां वह 20 वर्ष पहले था। स्वयं को विश्व शक्ति समझने वाला है अमेरिका निर्णायक स्तर तक पहुंचाने में सक्षम नहीं है। अधिक से अधिक अमेरिका यही कर सकता है की हॉलीवुड के निर्देशकों से कहकर अफगानिस्तान से अपने भागने की कहानी पर एक शानदार फिल्म बना सकता है। वियतनाम, सूडान, सीरिया आदि देशों से अमेरिकी सेना और राजदूतों के भागने की कहानी पर पहले ही कई फिल्में बन चुकी हैं।