जब पुलिस कानून एवं संविधान की बलि चढ़ाकर केवल सत्ता से आदेश लेने लगे, तो अराजकता फैलना एक स्वाभाविक सी बात होती है। ये ठीक उसी तरह की स्थिति होती है, जब किसी आतंकी संगठन का प्रमुख कोई आदेश देता है तो उसे पूरा करने के लिए आतंकी कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। उदाहरण के तौर पर हिज़्बुल्लाह जैसे संगठन को देखा जा सकता है। देश में पश्चिम बंगाल एवं महाराष्ट्र दोनों राज्यों की स्थिति कुछ एक जैसी ही है। इसका ताजा उदाहरण केन्द्रीय कुटीर एवं लघु उद्योग मंत्री नारायण राणे की गिरफ्तारी का है, जहां एक साधारण से राजनीतिक बयान से महाराष्ट्र सरकार इतनी अधिक आक्रोशित हो गई कि अपनी शक्तियों का इस्तेमाल कर महाराष्ट्र पुलिस के जरिए नारायण राणे की गिरफ्तारी करवा दी। हालांकि उन्हें बाद में कोर्ट द्वारा जमानत मिल गई, किन्तु इस पूरे प्रकरण के बाद ये स्पष्ट हो गया है कि महाराष्ट्र एवं पश्चिम बंगाल की पुलिस का प्रयोग दोनों राज्यों की सरकारें किसी निजी फोर्स के रूप में कर रही हैं।
उद्धव की गुंडागर्दी
एक राज्य सभा सदस्य और केंदीय मंत्री की गिरफ्तारी होना साधारण चर्चा का विषय नहीं है, किन्तु महाराष्ट्र सरकार के लिए TFI पहले ही कई बार कविराज रामधारी सिंह दिनकर की रश्मिरथी की पंक्ति ‘जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है’ को प्रासंगिक बता चुका है। सत्ता का वही नशा एक बार फिर उद्धव ठाकरे के सिर पर डोलने लगा है। स्वतन्त्रता दिवस के मौके पर जो मुख्यमंत्री स्वतंत्रता प्राप्ति के वर्ष बताने में अटके एवं किसी अन्य से पूछने लगे, तो उसकी आलोचना होना आम बात थी। ऐसे में केन्द्रीय मंत्री नारायण राणे द्वारा उन्हें थप्पड़ मारने की बात उद्धव सरकार को इतनी अधिक वह बुरी लग गई कि नारायण राणे के पीछे पुलिस को लगावा दिया।
सरकार के हाथों बंधे होने के कारण मुंबई पुलिस भी उद्धव सरकार के आदेशों को मानने के लिए प्रतिबद्ध है। ऐसे में मुंबई पुलिस ने नारायण राणे को गिरफ्तार कर लिया, हालांकि नारायण राणे को जल्द ही जमानत भी मिल गई, किन्तु इस पूरे घटनाक्रम ने महाराष्ट्र का उद्धव सरकार असहिष्णुता को उजगार किया। उद्धव सरकार का ये रवैया बिल्कुल पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के शासन से मेल खाता है। दोनों ने ही राज्य की पुलिस को पार्टी के लड़ाकों में बदल दिया है।
नारायण राणे के मामले में कोई पहली बार उद्धव सरकार की पुलिस का अजीबो-गरीब रवैया सामने नहीं आया है, अपितु ये सुशांत सिंह राजपूत के केस में भी दिखा था, जब बिहार पुलिस के जवानों के साथ मुंबई पुलिस के जवानों ने अभद्रता की थी। इतना ही नहीं CBI के अधिकारियों द्वारा आज भी आरोप लगाया जाता है कि सुशांत केस की जांच में मुंबई पुलिस CBI की टीम का सहयोग नहीं दे रही है। इतना ही नहीं पालघर हिंसा से लेकर कंगना रनौत तक के केस में ये कथित तौर पर सामने आया है कि महाराष्ट्र पुलिस सत्ता के कुछ शीर्ष लोगों के इशारों पर चल रही थी।
सबसे बड़ा उदाहरण रिपब्लिक टीवी के पत्रकार अर्नब गोस्वामी की गिरफ्तारी का मामला है, जिसमें अर्नब के सवाल उद्धव सरकार के गठबंधन की साथी कांग्रेस को ऐसे चुभे कि महाराष्ट्र पुलिस अर्नब गोस्वामी को गिरफ्तार करने के लिए कुछ भी करने को तैयार थी। इन सभी केसों से जुड़े खुलासे सचिन वाझे और पूर्व पुलिस कमिश्नर से संबंधित केस में भी हुए हैं, जो इस बात का संकेत है कि कुछ पल की गिरफ्तारी करके बदले की आग को ठंडा करने में उद्धव सरकार को विशेष संतुष्टि मिलती है।
ममता की दादागिरी
उद्धव सरकार ने संभवत ये व्यवहार पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से ही सीखा है, क्योंकि पश्चिम बंगाल में हिंसा का तांडव एक आम बात है। नारदा-सारदा केस से जुड़े आरोपियों को गिरफ्तार करने के मामले में पश्चिम बंगाल पुलिस की अराजकता हो, या कोलकाता के पुलिस कमिश्नर से पूछताछ करने गए CBI अधिकारियों को बंदी बनाने का मामला हो, बंगाल पुलिस ने ममता के आदेश पर अराजकता की सभी सीमाएं पार की हैं। आतंकी सरगना हिजबुल्ला के आदेश पर जिस प्रकार से उसके आतंकी तांडव का प्रसार करने लगते हैं, कुछ वैसी ही स्थिति पश्चिम बंगाल एवं महाराष्ट्र की भी है।
बंगाल एवं महाराष्ट्र दोनों ही जगह विपक्ष में बैठी पार्टियों एवं नेताओं से बदला लेने के लिए सरकारें पुलिस का निचले स्तर पर जाकर भी प्रयोग कर रही है। पश्चिम बंगाल एवं महाराष्ट्र दोनों ही राज्यों की पुलिस का इस्तेमाल सीएम की कुर्सी के जरिए ऐसे किया जाता है, मानों वो उनकी अपनी पार्टी के Militia हो।