राजनीति में सत्ता और कुर्सी के मोह से कोई राजनेता नहीं बचा है। भारतीय राजनीति में इसी मोह में फंसे कई बड़े-बड़े शूरमाओं को घर बैठाने का भी पुख्ता-इंतजाम किया है। आज के परिवेश में जो इसी मोह-माया वाली गिनती में सबसे आगे चल रहे हैं, जिन्हें सत्ता की चाबी और शासक की कुर्सी के अलावा शायद ही कुछ और दिख रहा है वो हैं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार। वर्ष 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में भी जैसे-तैसे जेडीयू 115 सीटों पर लड़ने के बाद 43 सीटों पर सिमट गयी थी, उसके बाद भी नीतीश कुमार को सीएम बनाते हुए भाजपा ने बड़े भाई होने का फर्ज़ निभाया था। वहीं नीतीश उस विश्वास को तोड़ 2015 वाला दल-बदल खेल कर 2024 में तीसरे मोर्चे का नेतृत्वकर्ता बनने की जुगत में हैं। यह कोई आम बात नहीं है जब कोई पार्टी अपने गठबंधन साथी को छोड़ नई राह तलाशती दिख रही हो, पर अमूमन कोई राजनीतिक दल नीतीश जैसा “आया राम गया राम” नहीं होता।
“आया राम गया राम” का अर्थ बहुत ही रोचक कथा के साथ समझाया जा सकता है, दरअसल, ‘आया राम गया राम’ वाक्य का एक लोकप्रिय जुमला बन जाने की बड़ी दिलचस्प कहानी है। आया राम गया राम का किस्सा शुरू हुआ साल 1967 में। इस वाक्य को अमर कर देने वाले शख्स थे ‘गया लाल’। गया लाल हरियाणा के पलवल जिले के हसनपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए थे। उन्होंने एक ही दिन में तीन बार पार्टी बदली थीं, पहले तो उन्होंने कांग्रेस का हाथ छोड़कर जनता पार्टी का दामन थाम लिया। फिर थोड़ी देर में कांग्रेस में वापस आ गए। करीब 9 घंटे बाद उनका हृदय परिवर्तन हुआ और एक बार फिर जनता पार्टी में चले गए।
खैर गया लाल के हृदय परिवर्तन का सिलसिला जारी रहा और वापस कांग्रेस में आ गए। कांग्रेस में वापस आने के बाद कांग्रेस के तत्कालीन नेता राव बीरेंद्र सिंह उनको लेकर चंडीगढ़ पहुंचे और वहां एक संवाददाता सम्मेलन किया। राव बीरेंद्र ने उस मौके पर कहा था, ‘गया राम अब आया राम हैं।’ इस घटना के बाद से भारतीय राजनीति में ही नहीं बल्कि आम जीवन में भी पाला बदलने वाले दलबदलुओं के लिए ‘आया राम, गया राम’ वाक्य का इस्तेमाल होने लगा।
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नीतीश इसी आया राम गया राम के दूसरे प्रयाय बनते नज़र आ रहे हैं। नीतीश फिलहाल एनडीए गठबंधन के साथी हैं,फिर भी अपने मैत्रीपूर्ण संबंधों में वो खटास डालने में कोई कसर छोड़ नहीं रहे हैं। हाल ही में नीतीश ने अपने अनुसार पार्टी के वरिष्ठ नेता, केन्द्रीय इस्पात मंत्री आरसीपी सिंह को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाते हुए सांसद ललन सिंह को जेडीयू की कमान सौंप दी थी। इसका प्रमुख कारण ही यह था कि नीतीश अपने आगे की राह को मजबूत करने के लिए हर उसी कड़ी को कमजोर कर देना चाहते हैं, जो उनकी पीएम पद उम्मीदवारी के सामने आता है। आने वाले समय में यदि तीसरे मोर्चे के गठन पर स्वीकृति मिलती तो आरसीपी सिंह नीतीश को रोकने का काम करते, यही सोचते हुए उन्होंने एक पार्टी एक पद की आड़ में तुरंत आरसीपी को हटा ललन सिंह को पार्टी की बागडोर थमा दी।
अब जहां नीतीश को PM MATERIAL बताने में उनके साथी उपेन्द्र कुशवाहा सबसे आगे हैं तो वहीं तीसरे मोर्चे के गठन को लेकर भी जेडीयू आगे कदम बढ़ा चुकी है। रविवार को नीतीश कुमार, 10 साल की अपनी जेल की सजा काटके आए ओमप्रकाश चौटाला से उनके गुरुग्राम निवास पर जाकर मिले, जिस मुलाक़ात के सूत्रधार के तौर पर उनके साथ जेडीयू महासचिव के सी त्यागी भी मौजूद रहे। इस अनौपचारिक मुलाक़ात में चौटाला ने सबसे बड़ा बात नीतीश को तीसरे मोर्चे का दावेदार बनकर 2024 की तैयारी करने को कहा। बस फिर क्या था, जेडीयू के मन की बात उसे सुनने मिल गई, तो वो भी जुट गयी नीतीश को प्रधानमंत्री का दावेदार पेश करने में, जिसकी परिकल्पना न जाने नीतीश भी कबसे करते आ रहे थे।
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नीतीश ने उपेन्द्र कुशवाहा के बयान पर भले ही कह दिया हो कि, ‘हम कहाँ हैं पीएम मटेरियल, हमारी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है।’ पर यह नीतीश की राजनीति करने की पुरानी शैली है, अपने आगे वो किसी गठबंधन को नहीं छोड़ते हैं। एनडीए से अलग होकर 2015 में आरजेडी के संग “महागठबंधन” बना चुनाव लड़ना इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, वो बात अलग है कुर्सी बचाने के लिए वो 2017 में फिर पाला बदलते हुए एनडीए में आकार सीएम पद पर काबिज हो गए। यही नीतीश की राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को सबके सामने प्रकट कर देता है। अब ये पीएम पद की लालसा और तीसरे मोर्चे की सवारी कहाँ जाकर रुकती है वो जल्द ही सबके सामने होगा, पर यह सब इतना भी सरल और सामान्य नहीं होगा।
इस बार भाजपा, जेडीयू के एनडीए से अलग होने के बाद उसका पत्ता साफ करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी क्योंकि भाजपा ने हर बार नीतीश की तरफ से हर नीति पर विरोध ही झेला है, फिर चाहे वो जनसंख्या नियंत्रण कानून की बात हो या कृषि कानून पर उसका मत, हर बार घटक दल होने के बावजूद नीतीश ने हमेशा केंद्र सरकार का विरोध किया है, इन सभी चोटों का वार भाजपा भी एक साथ लेने को तैयार है, यदि नीतीश कुछ भी ऐसा करते हैं तो यह दल-बदल उनके राजनीतिक जीवन का आखिरी दल-बदल साबित होगी जिससे उनके राजनीतिक जीवन की लीला समाप्त हो जाएगी।