भारत में किसी भी चुनाव को जीतने के लिए सबसे जरूरी होता है जातिगत समीकरण को साधना। हालांकि, 2014 के बाद आई हिंदुत्व की बयार और प्रधानमंत्री मोदी के करिश्माई नेतृत्व ने इस राजनीति में बहुत से बदलाव किए। प्रधानमंत्री मोदी की छवि एक ऐसे नेता की है जिन्होनें परिवारवाद को समाप्त करने का काम किया है। उनकी इस छवि ने जाति को आधार बनाकर अपने परिवार का भला करने वाले नेताओं की राजनीति को बहुत नुकसान पहुंचाया है। राष्ट्रवाद और हिंदुत्व ने समाज को जातीय भेदभाव की सीमा के बाहर जाकर बांधा है। हालांकि, अब जातिगत जनगणना की मांग उठाकर वे विपक्षी दल पुनः अपनी राजनीति चमकाने का प्रयास कर रहे हैं, जिन्होंने जाति के नाम पर लम्बे समय तक सत्ता का उपभोग किया है।
वैसे तो जाति की राजनीति बहुत पुरानी है। सबसे पहले इंदिरा गांधी के समय जब कांग्रेस में फूट पड़ी, इंदिरा गांधी ने बाबू जगजीवन राम को अपने खेमे में मिलाया। तब ब्राम्हण और दलित गठजोड़ बनाकर, उसमें मुस्लिम वोटबैंक को जोड़ने के साथ इसकी शुरुआत मानी जा सकती है। इसके बाद मंडल आयोग बना जिसने OBC आरक्षण की बात की। OBC आरक्षण की मांग 1980 तक भारतीय राजनीति के पटल पर आ चुकी थी, लेकिन इसे लेकर आंदोलन तब तेज हुआ जब राजीव गांधी के समय कांग्रेस कमजोर हुई और क्षेत्रीय नेताओं को उभरने का मौका मिला। भाजपा के हिंदुत्व के जवाब में मुलायम सिंह यादव और लालू जैसे नेता OBC की राजनीति को लेकर सामने आए। मंडल आयोग की सिफारिश लागू होते ही जाति का विभत्स रूप देखने को मिला।
कमजोर केंद्र को हमेशा इन क्षेत्रीय क्षत्रपों से मेलमिलाप करके आगे बढ़ना पड़ा। इस राजनीति ने गठबंधन को भारतीय राजनीति का एक मुख्य पहलू बना दिया। लेकिन 2014 में मोदी जी के आने के बाद केंद्रीय नेतृत्व पुनः शक्तिशाली हो गया। प्रधानमंत्री मोदी के व्यक्तित्व से जाति की राजनीति कर रहे परिवारों को बहुत नुकसान हुआ। उत्तर प्रदेश की बात करें तो यहाँ यादवों के अतिरिक्त लगभग पूरा OBC तबका भाजपा के साथ है। यादवों में भी भाजपा के नामपर बंटवारा देखने को मिलता है। कम से कम केंद्र सरकार के चुनाव के समय तो यादवों ने बड़ी संख्या में भाजपा को वोट किया ही है। वहीं बिहार में भी OBC वोट का भाजपा, राजद और JDU के बीच में बँटवारा साफ दिखाई देता है।
लेकिन अब अखिलेश यादव, तेजस्वी यादव, नीतीश कुमार जैसे नेताओं ने सरकार पर दबाव बनाना शुरू किया है कि जातिगत जनगणना करवाई जाए और OBC कमीशन की सिफारिश लागू की जाए। ऐसे नेताओं ने लम्बे समय तक बिना विकास किए केवल जाति की राजनीति के आधार पर सत्ता कब्जाई रखी है। उनका प्रयास है कि भाजपा को OBC विरोधी दिखाकर OBC वोट में सेंध लगाई जाए।
लेकिन भाजपा नेतृत्व एक कदम आगे चल रहा है। भाजपा ने NEET में वर्षों से लंबित ओबीसी आरक्षण को लागू कर दिया है। वहीं अब केंद्र सरकार एक नया संविधान संशोधन करने जा रही है, जिसके बाद राज्यों को यह अधिकार मिल जाएगा कि वह जातियों के सामाजिक-शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर यह तय कर सकें कि कौन सी जाति को ओबीसी के अंतर्गत रखा जाना चाहिए।
बता दें की ओबीसी आरक्षण की यही खासियत है कि वह समाजिक-आर्थिक-शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर दिया जाता है। राज्यों को यह शक्ति मिलने से दो लाभ सीधे होंगे। पहला की केंद्र से अधिक बेहतर समझ राज्यों को होगी कि उनके राज्य में कौन सी जाति को वास्तव में इसकी आवश्यकता है, दूसरा लाभ राजनीतिक है कि ओबीसी कोटे में किसे रखा जाए, यह शक्ति राज्यों को देकर सरकार गेंद इन्हीं क्षेत्रीय दलों के पाले में डाल देगी। ऐसे में हर स्थिति में केंद्र सरकार अपनी साख बचाने में सफल रहेगी और किसी भी अनावश्यक विवाद में न पड़ के विकास योजनाओं को लागू करती रहेगी।
यह सत्य है कि आरक्षण किसी समस्या का पूर्णकालिक समाधान नहीं है। लेकिन यह भी सत्य है कि जब तक समस्या का पूर्णकालिक समाधान खोजा नहीं जाता और खोजने पर उसे सामाजिक स्वीकृति नहीं दिलवाई जाति तब तक आरक्षण की राजनीति बनी रहेगी। केंद्र ने समझदारी भरा कदम उठाते हुए, बड़ी सफाई से स्वयं को विवाद से दूर कर लिया है, क्योंकि इस समय केंद्र के पास चीन से निपटने तथा भारत को ग्लोबल सप्लाई चेन में मुख्य स्थान दिलाने जैसे कई अन्य महत्वपूर्ण काम हैं।