काबुल के पतन से भारत को यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि उसका भी कोई सहयोगी नहीं है

कोई अन्य नहीं आएगा, अंत में आपकी अपनी भुजओं की शक्ति ही काम आएगी!

काबुल

तारीख 15 अगस्त 2021, दिन रविवार, को काबुल गिरा नहीं ढह गया I क्योंकि गिराने में ज़ोर लगता है, बाहरी बल लगता है I तालिबान ने तो बल लगाया ही नहीं जो काबुल गिरेगा I अतः ‘’काबुल ढह गया है’’ कहना उचित होगा I वो भी बिना किसी प्रतिकार के प्रतिरोध के I वैसे पराजय से परेशानी नहीं है I हार-जीत तो लगी रहती है I परेशानी तो पराजय की स्वीकार्यता और युद्ध न करने की अकर्मण्यता से है I अगर आधुनिक काल के इस महत्वपूर्ण घटनाक्रम का सूक्ष्म अवलोकन किया जाये तो भारत के लिए, यहाँ बहुत बड़ी सीख छुपी हुई है I

75000 अफ़गान लड़ाके 3.8 करोड़ आवाम वाले मुल्क पर भारी पड़ें I आखिर कैसे? काबुल को तो संयुक्त राज्य अमेंरिका से लेकर नाटो और आधुनिक हथियार से लेकर ड्रोन तक सब हासिल था फिर भी वह क्यों हार गया? अगर अमेंरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन के कथन को सुने तो कोई भी सामान्य इंसान समझ जाएगा I इसके लिए कोई जटिल कूटनीतिक ज्ञाता होने की आवश्यकता नहीं है I

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बाइडन ने तीन महत्वपूर्ण बात कहीं I प्रथम, काबुल खुद के लिए नहीं लड़ा I दूसरा, अमेरिका अपने सैनिको को अनंत काल के लिए किसी दूसरे देश के नागरिकों के युद्ध मेंं नहीं झोकेगा I तीसरा, सैन्य अभियान सफल रहा क्योंकि अलकायदा को खतम करना लक्ष्य था ना की काबुल को तालिबान से मुक्ति दिलाना I काबुल को लगता है छल हुआ है उसके साथ लेकिन यही यथार्थ है, वास्तविकता है I इसे स्वीकार करिए और सीखिये की अगर आप खुद के लिए नहीं लड़ेंगे तो कोई आपके लिए नहीं लड़ेगा I सभी अपने हित के साथी है I अमेरिका ने भी अपना हित सिर्फ अलकायदा के खात्में से जोड़ा ना की अफगानियों के लिए राष्ट्र निर्माण से I सभी देश अपने राजदूत, दूतावास और अन्य सभी कर्मचारियों और नागरिकों को लेकर निकल गए और बीच प्रलय में तालिबान की दया पर अफ़गान की निरीह जनता को अमेरिका छोड़ गया, वो भी बिना किसी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही केI

भारत इस घटनाक्रम से काफी कुछ सीख सकता है I प्रथम, आप जितने ताकतवार और क्षमतावान बनेंगे कूटनीतिक दावपेंच उतने ही आपके पक्ष मेंं काम करेंगे I जब आप खुद के लिए लड़ेंगे, तभी दुनिया आपके लिए लड़ेगी I भाग्य भी वीरों का साथ देता है I जैसे अदम्य साहस का परिचय देते हुए 1971 में भारत अपने राष्ट्रहित के लिए लड़ा I इसी साहस और ताक़त की वजह से अमेंरिका, पाकिस्तान और चीन जैसी त्रिकोणीय शक्ति के खिलाफ़ भी जीत मिली I सारे कूटनीतिक दावपेंच भारत के पक्ष में होते चले गए I और अंततः दुनिया का भी साथ मिला और भारत बांग्लादेश को आज़ाद करने में कामयाब रहा I इसीलिए काबुल के प्रकरण से सीख लेते हुए भारत को स्वयं को ताकतवार और क्षमतावान बनाने पर ध्यान देना चाहिए तभी उसको एक कूटनीतिक ताक़त के रूप मेंं महत्व मिलेगा I वरना 1971 के भारत-पाक युद्ध में भी सभी लोग अपने हितों के हिसाब से ही भारत और पाक को समर्थन दें रहे थे I अतः राष्ट्रहित सभी के लिए सर्वोपरि है I

भारत के परिपेक्ष्य में देखें तो चीन और पाक की नापाक जोड़ी भारत के लिए सदा सर्वदा सरदर्द बना रहेगा I आर्थिक और सैन्य ताक़त में बढ़ोतरी से ये दर्द कम किया जा सकता है लेकिन इसके ठीक होने की संभावना अत्यंत न्यून है I भारत को सैन्य मोर्चे पर इन दोनों से ही खतरा है I भारत इतनी ताक़त तो रखता है की इन दोनों में से कोई भी अकेला भिड़ने की हिमाकत नहीं करेगा I लेकिन, अगर लड़ाई दोनों मोर्चो पर छिड़ती है तो भारत को अन्य किसी राष्ट्र से अपेक्षित मदद की अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए I

आखिर कोई क्यों पड़ेगा आपके मसले मेंं?

आपकी मदद के लिए कोई और मुल्क तभी आएगा जब आपके पास भी देने के लिए कुछ होगा I यूएसए सिर्फ अपने राष्ट्रहित के लिए लड़ता है I ईरान, इराक, अफगानिस्तान, वियतनाम इसकी गवाही देते है I यहां तक कि ट्रंप के शासन काल मेंं भी अमेंरिका पाकिस्तान को पूरी तरह से छोड़कर भारत की मदद करने के लिए उस पर हमला नहीं कर सकता था। रूस भी इस्लामाबाद और नई दिल्ली के बीच किसी तरह का संतुलन बनाए रखना चाहता है। ब्रिटेन और फ़्रांस से उम्मीद रखना भी बेमानी है I अगर वो मदद को आते भी है तो प्रतीकात्मक होगा I

इज़राइल वैसी ही मदद कर सकता है, जैसी उसने कारगिल में की थी I दरअसल, 1999 मेंं कारगिल युद्ध के दौरान भारत को सैन्य सहायता देने वाला इजरायल पहला देश था। जापान,ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण चीन सागर के अन्य छोटे देश दूर है और खुद चीन के सामने मजबूर है I अतः पाक-चीन से प्रत्यक्ष लड़ाई में वो खुलकर सामने आ जाए ऐसा कहना अतिशयोक्ति होगी I अफगानिस्तान के पास कूव्वत नहीं है और बांग्लादेश तथा श्रीलंका स्वयं चीन के ऋणजाल में फंस चुके है I

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रही बात हमारे सदाबहार दोस्त रूस की तो 1971 का युद्ध पूंजीवाद बनाम साम्यवाद और शीतयुद्ध का बदला था I लेकिन क्या चीन जैसी साम्यवादी शक्ति से जब आर पार की लड़ाई होगी तब रूस अपने वैचारिक साथी और पड़ोसी को छोड़कर उसके पाले में खड़ा होगा जो खुद अमेंरिका के पाले में झुका हुआ हो? न के बराबर संभावना है I द्वितीय विश्व युद्ध मेंं, धुरी और मित्र राष्ट्रों के बीच स्पष्ट अंतर था। यह शायद आखिरी बार था जब एक सैन्य शक्ति दूसरी सैन्य शक्ति के बचाव मेंं आई थी। नाजी जर्मनी द्वारा प्रारंभिक प्रगति के बाद ब्रिटेन और फ्रांस को अमेंरिका और रूस द्वारा बचाया गया था I लेकिन ऐसे अपवाद विरले ही हैं I

अतः भारत को ये समझना चाहिए की जिस तरह तालिबान से लड़ाई में अफ़गान खुद ही खड़े है उसी तरह किसी भी प्रकार के संकट में प्रतिकार अकेले भारत को ही करना होगा I खुद को जितना समर्थ बनाएँगे, अपने हितों को लेकर जीतने मुखर होंगे, खुद की एहमियत में जितना इजाफा करेंगे चाहे वो दक्षिण चीन सागर में दिलचस्पी लेकर और हो या हिन्द महासागर के रक्षक बनकर या भी ऐसा के सैन्य या आर्थिक महाशक्ति बनकर तभी आपकी मदद की जाएगी या यूं कहें आप मदद खरीद सकतें है और वो भी सीमित मात्र में I अंततः आपकी अपनी भुजाओ की शक्ति ही काम आएगी I

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