तालिबान की जीत उसकी विजय ही नहीं है, बल्कि पश्चिम के तथाकथित आधुनिक नैतिकता की अविस्मरणीय पराजय है

लोकतांत्रिक सुधार के पश्चिमी एजेंडा का इससे दयनीय हश्र नहीं हो सकता।

तालिबान विजय

15 अगस्त 2021 को जब भारत स्वतंत्रता दिवस का अमृत महोत्सव मना रहा था तब जियोपॉलिटिक्स में एक भूचाल आ रहा था। तालिबान ने काबुल पहुंच कर अफगानिस्तान में अपनी सत्ता का ऐलान, एक ताकत से उपजे आत्मविश्वास, शांति और जहीन तरीके से किया। इस घटनाक्रम ने दुनिया को माकूल पैगाम दिया है। आज के घटनाक्रम की यह सबसे बड़ी सीख है जो बहुत कीमती है – अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हर किसी को अपने स्थानीय सभ्यता के मूल्यों के अनुसार जीने का और शासनतंत्र का अधिकार है और इसके लिए हर देश को अपने दीर्घकालीन मूल्य और नीतियों को मजबूत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। पश्चिमी देशों या यूं कहे अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान या इराक दोनों में ही सुधार के प्रयासों ने इन देशों को कट्टरता की गर्त में धकेल दिया है।

आज की घड़ी ने इतिहास के सिंहालोकन का मौका दिया और दिनभर के घटनाक्रम पर नजर रखने के बाद, समय अब यथार्थ को आत्मसात करने का है। आज की जीत तालिबान की विजय ही नहीं है, बल्कि पश्चिम के तथाकथित आधुनिक मानव मूल्य, नैतिकता, और वैश्विक ताकतों द्वारा अन्य देशों में लोकतान्त्रिक नैरेटिव की स्थापना के एजेंडे की अविस्मरणीय पराजय है। काबुल तक की संघर्षहीन विजय यात्रा के बाद भले ही उन पर फूल-इत्र न बरसा हो लेकिन विश्व में बहुसंख्यक लोगों ने उनके मजहबी राजनीतिक विचारों पर अपनी मुहर लगा ही दी है। तालिबान इतने कम समय में जनता के समर्थन के बिना एक बड़ी सेना नहीं बना सकता और न ही पूरे देश को जीत सकता था।  उन्होंने पारंपरिक इस्लाम-शरिया को आधार बनाने वालों में ही विश्वास जताया है। इसमें अफगान जनों का स्थानीय (पाकिस्तान समर्थित और देवबंद में उपजे) मजहबी नैतिक राजनीतिक नजरिए में विश्वास स्पष्ट हुआ है।

यह घटनाक्रम पश्चिम से लागू किए जा रहे अधकचरा लोकतांत्रिक मूल्यों का समय गुजर जाने का भी संकेत है। पश्चिम से निकलने वाले नैरेटिव को शरीया मनाने वाले तालिबान सर्वथा ही प्रतिगामी, स्त्री, अल्पसंख्यक अधिकारों का हनन करने वाला, क्रूर, बर्बर और आततायी बताता आया है। आज की घटना के बाद इस प्रोपेगेंडा की ताकत सीमित हो जाएगी। लोकतांत्रिक सुधार के पश्चिमी एजेंडा का इससे दयनीय हश्र नहीं हो सकता था। दूसरे को सुधारने की मूढ़ता फिर से एक बार बेनकाब हुई है। उपनिवेशिक इतिहास के प्रभाव में भारत ने स्वातंत्रोत्तर काल में दुनिया को देखने, समझने और उनसे विनिमय के लिए पश्चिमी विचारों को ग्रहण कर लिया था।

भारत ने अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देश के साथ वहां आधुनिक शिक्षा, स्त्री अधिकार, लोकतांत्रिक मूल्य, संपन्नता, सुविधाओं के लिए अपना काफी पैसा लगाया। प्रायोजित लोकतंत्रवादियों की दुर्गति से यह सिद्ध हो गया है कि इस तरह तीसरे की समझ पर दूसरों को सुधारने के सपने अब कभी पूरे नहीं हो सकते। इन्हीं सपनों के ककरण आज अफगानिस्तान में एक बार फिर से तालिबान को विजय मिली है। भारत को नेकी कर, कुएं में डाल उक्ति के साथ ही संतोष करना होगा। अलबत्ता कई-कई ऐतिहासिक घटनाक्रम के चलते ऐसे पूर्वग्रह अब छंटने लगे हैं।

भारतीय उपमहाद्वीपीय देश अफगानिस्थान में एक साथ, एक समय कई Identities यानि पहचान काम करती है। उदाहरण के लिए एक अफगान मुसलमान अपनी जाति-कुनबे, अपने इलाके के अन्य जाति कुनबों के प्रति एक निष्ठा के पारस्परिक संबंध ये जुड़ा होता है। इन विविध Identities के मध्य से होकर ही पारस्परिक समन्वय या लेन-देन का रास्ता गुजरता है। शर्त यही है कि आप अपनी पहचान के प्रति प्रामाणिक रहे और दूसरे की आइडेंटिटी को भी स्वीकारें।

वेस्टर्न डुएलिज्म जगत को सफेद-स्याह के बाइनरी में समझकर विचार-विनिमय करता है। अब इसी पश्चिमी वैश्विक मूल्यों का खोखलापन जगजाहिर हो चुका है। अफगानिस्तान में तालिबान को लेकर भारत के रुख में जो बदलाव आया है वह व्यवहारिक धरातल पर उपयोगी और सकारात्मक हैं। भारत के साथ पश्चिमी देशों जैसी कोई वैचारिक बाध्यता नहीं है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अब भारत अफगानिस्तान से अपनी शर्त के अनुसार व्यवहार करेगा। वैचारिक खुलेपन के साथ भारत अब नए वैश्विक पटल पर आत्मविश्वास के साथ कई खिलाड़ियों के साथ खेलेगा।

यह देश शतरंज का जनक है। अपनी सभ्यता की समझ और हितों के साथ सबके प्रति सदाशयता लेकिन अपराध के लिए कठोर दंड की नीति पर कार्य करेगा। अमेरिकी पलायन से विश्वस्तर पर पश्चिमी वैश्विकता वाले मूल्यों को अभूतपूर्व आघात हुआ है और इसके चलते भारत सहित कई देशों को कूटनीतिक क्षेत्र में अधिक हाथ दिखाने का मौका मिलेगा। यही बात ईरान, इराक, अरब, मिस्र, इजरायल आदि सभी देशों के लिए भी लागू होता है। इन सब देशों में अलग-अलग स्तरों पर भारत ने जिस प्रकार से संबंध बनाने की शुरूआत की है वो बेहद आशान्वित करने वाली है। चूंकि इसमें कभी कोई एक मुद्दा अन्य सभी मुद्दों को वीटो करने की स्थिति में नहीं हैं। यही सर्वाधिक लोगों के लिए सर्वाधिक लाभ की नीति का कारक बनता है। अफगानिस्तान की स्थिति यह बात समझने में दुनिया के लिए उपयोगी साबित होगा कि पश्चिमी नैतिकता बस एक एजेंडा जिसका उपयोग बस अमेरिका जैसी विश्व शक्ति अपने हथियारों की खपत बढ़ाने के लिए करते हैं।

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