‘वो आतंकवादी नहीं हैं’, भारत में इस्लामिस्ट वामपंथी तालिबान की आवाज बन रहे हैं

ये नहीं सुधरने वाले!

अफ़गानिस्तान तालिबान

गैंग्स ऑफ वासेपुर में एक संवाद कहा गया था, जो आज कुछ लोगों पर बहुत सटीक बैठता है, “कुत्ता कभी अपनी जात नहीं बदलता, घोड़े को सौ डसनी मारो तो अपनी जगह से हिलता नहीं”। कुछ ऐसा ही हाल वामपंथियों का भी है। समय बदल जाए, परिस्थिति बदल जाए, पर मजाल है कि इनके अल्पसंख्यक तुष्टीकरण में कोई कमी रह जाए। अभी तालिबान ने अफ़गानिस्तान की सत्ता क्या प्राप्त ली, भारत में लेफ्ट लिबरल गैंग अभी से उनकी प्रशंसा में राग अलापने लग गया है और चाहता है कि समाज उन्हें निर्विरोध स्वीकार ले।

उदाहरण के लिए द वायर को ही देख लीजिए। अफ़गानिस्तान में लोग वहां के तालिबानी प्रशासन के बर्बरता से भयभीत होकर किसी भी प्रकार से भागना चाहते हैं, और उनकी तस्वीरें दुनिया भर में वायरल हो रही हैं।  परंतु द वायर के लिए न तालिबानी अत्याचारी हैं, और न ही उसके खूंखार आतंकियों को वैसे कहकर संबोधित करना चाहिए।

आरफा खानुम शेरवानी के साथ किए गए इस साक्षात्कार के अनुसार गज़ला वहाब नामक पत्रकार कहती हैं कि तालिबान अफ़गानिस्तान के निवासी हैं। सिर्फ इसलिए कि वे ‘महिलाओं का शोषण करते हैं, आप उनका क्षेत्र पर दावा नहीं रद्द कर सकते हैं, और न ही उन्हें वहाँ से निकाल सकते हैं’। 

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इतनी बेशर्मी से तो एनडीटीवी ने भी तालिबान का बचाव नहीं किया होगा, जितना द वायर और गज़ला वहाब तालिबान का कर रहे हैं। लेकिन ये तो मात्र शुरुआत है, और जब बात एनडीटीवी के बारे में की ही हैं, तो क्यों न इनकी पूर्व कर्मचारी रहीं बरखा दत्त के बारे में भी चर्चा कर ली जाए। पत्रकारिता को अपने कार्यों से अकेले मिट्टी में मिलाने वाली बरखा ने तालिबान के ‘गुणगान’  में कुछ यूं ट्वीट किया,

“ये तो बिल्कुल एक Bloodless तख्तापलट था, जो पहले से ही तय था। आप जो भी कहें, पर मुझे प्रतीत होता है कि तालिबान के काबुल पहुँचने से पहले ही अमेरिका ने अपनी व्यवस्था कर ली थी। तालिबान को बस जाकर सत्ता संभालनी थी”।

यहाँ पर सीधे-सीधे बरखा अपने आप को एक निष्पक्ष पत्रकार के रूप में दिखाना चाहती थीं, जो कथित तौर पर अफ़गानिस्तान सरकार को कायर सिद्ध करने का प्रयास भी था, लेकिन दूसरी तरफ तालिबान को बिना रक्त बहाए सत्ता प्राप्त करने के लिए बधाई भी देना चाहती थीं। पर यही बरखा चिढ़ जाती हैं जब कारगिल युद्ध में इनकी भूमिका पर चर्चा होती है।

इन पत्रकारों के अलावा भारत में कुछ राजनीतिज्ञ भी हैं, जो न केवल तालिबान द्वारा अफ़गानिस्तान पर आधिपत्य जमाने को उचित मानते हैं, बल्कि अप्रत्यक्ष तौर पर इसका उत्सव भी मना रहे हैं। उदाहरण के लिए समाजवादी पार्टी के सांसद शफीकुर्रहमान बर्क को ही देख लीजिए। इन जनाब के लिए तालिबान द्वारा कब्जा जमाना कोई शर्म की बात नहीं, बल्कि ये अमेरिका से आजादी का उत्सव है।

समाजवादी पार्टी के इस बड़बोले सांसद के अनुसार,

“अफ़गानिस्तान की आजादी अफ़गानिस्तान का अपना मामला है। अफ़गानिस्तान में अमेरिका की हुक्मरानी क्यों? तालिबान वहां की ताकत है। तालिबान ने अफ़गानिस्तान में अमेरिका और रूस के पैर नहीं जमने दिए। तालिबान की अगुवाई में अफगान आजादी चाहते हैं।  भारत में भी अंग्रेजों से पूरे देश ने लड़ाई लड़ी थी। रहा सवाल हिंदुस्तान का तो यहां कोई कब्जा करने अगर आएगा उससे लड़ने को देश मजबूत है”।

ये बहुत शर्मनाक है कि जब तालिबान ने अफ़गानिस्तान पर दो दशक बाद अपना आधिपत्य पुनः स्थापित किया है, तो वामपंथियों ने बिना देरी किए उनका गुणगान करना शुरू कर दिया है। इसके लिए इनकी जितनी निंदा की जाए, कम है, परंतु वो कहते हैं न सोते हुए को जगाया जा सकता है, सोने का नाटक करने वालों को नहीं।

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