सोशल मीडिया का सबसे लाभकारी पक्ष यह है कि यदि कोई लोगों को भ्रमित करने का प्रयास करता है, तो वो अधिक समय तक सफल नहीं रह पाता। तालिबान के परिप्रेक्ष्य में ही देख लीजिए – वामपंथी जितना प्रयास कर रहे हैं कि तालिबानियों की छवि पर कोई बट्टा न लगे, उनके करतूत सोशल मीडिया पर किसी न किसी प्रकार से उजागर हो ही जा रहे हैं। लेकिन यहाँ बात तालिबान की नहीं हो रही है, यहाँ बात ऐसे लोगों की हो रही है, जिनका झूठ ज़्यादा देर नहीं तक टिक पाता। इन्ही में से एक है युवा विद्यार्थी दीक्षा शिंदे, शुक्रवार को न्यूज एजेंसी ANI ने दावा किया कि एक 14 वर्षीय बालिका दीक्षा शिंदे को NASA के MSI [Minority Serving Institution] फैलोशिप वर्चुअल पैनल के पैनलिस्ट के तौर पर चयनित किया गया है।
दीक्षा शिंदे ने भी दावा किया कि उन्हे जून में उनके शोध पत्र ‘क्या हम ब्लैक होल में रहते हैं?’ के आधार पर चयनित किया गया था। लेकिन दीक्षा शिंदे के दावे तथ्यों से बिल्कुल भी मेल नहीं खा रहे थे कि उनका शोध पत्र जून में चयनित किया गया, जबकि ANI के द्वारा साझा किये गए स्क्रीनशॉट्स के अनुसार दीक्षा का ब्लैक हॉल पर शोध पत्र दिसंबर 2020 में ही स्वीकृत किया गया था। परंतु बात यहीं पर नहीं रुकती।
जिस जर्नल के जरिए दीक्षा ने अपने चयन का दावा किया, यानि IJSER, वो एक Open Access Journal है, यानि कोई भी एक निश्चित दाम देकर कुछ भी प्रकाशित करवा सकता है, और ऐसे में यदि दीक्षा को वास्तव में अपना शोध पत्र प्रकाशित करवाना होता, तो वो मुफ़्त में नहीं होता, अपितु उसे उसके लिए लगभग 4000 रुपये चुकाने पड़ते –
नासा की वेबसाइट के अनुसार MSI फैलोशिप नामक प्रोग्राम अवश्य है, परंतु इसके लिए जो योग्यता चाहिए, उस अनुरूप दीक्षा शिंदे बिल्कुल योग्य नहीं है। वेबसाइट के अनुसार, केवल एक प्रस्ताव सबमिट करने भर के लिए एक व्यक्ति को MSI की शर्तें पूरी करनी चाहिए, वह अमेरिकी नागरिक होना चाहिए, और उसने कम से कम परास्नातक की डिग्री अवश्य पूरी की होनी चाहिए। ऐसे में दीक्षा का चयनित होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
ऐसे में अब सोशल मीडिया पर सवाल उठ रहे हैं कि कहीं दीक्षा के साथ भी वही ‘खेल’ तो नहीं हुआ, जो एक वर्ष पहले पत्रकार निधि राज़दान के साथ हुआ था? पिछले वर्ष एनडीटीवी की पत्रकार ने दावा किया कि वे हावर्ड में पत्रकारिता सिखा रही हैं। लेकिन 2021 के प्रारंभ में सामने आया कि उनके साथ ‘धोखा हुआ’ है।
TFI Post के ही विश्लेषण के अंश अनुसार,
“इसी प्रेम में वह इतनी रम गयीं कि उन्हें झूठे जॉब ऑफर का पता ही न चला और वो बेवकूफ बन गयीं। हालांकि, अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि जॉब ऑफर झूठा था या निधि पूरे भारत को बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रही थीं। परंतु एक बात शीशे की तरफ साफ है कि निधि राज़दान अपने आप को इस योग्य समझती हैं कि हावर्ड उन्हें बिना किसी PHD डिग्री के ही सहायक प्रोफ़ेसर बना देगा वो भी सिर्फ कुछ ईमेल के ऊपर।”
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ऐसे में अब प्रश्न ये उठता है कि क्या दीक्षा शिंदे किसी ऑनलाइन फ्रॉड का शिकार हुई, या वह भी निधि राज़दान की भांति पूरे देश को उल्लू बना रही थी? जिस प्रकार से वह अपने ‘उपलब्धि’ का प्रचार कर रही थी, उसे देखकर यह तो कतई नहीं लगता कि वह किसी भ्रम में थी।