1965 भारत-पाक युद्ध: चाविंडा की वह लड़ाई जो भुला दी गयी

आज भी पाकिस्तान काँप उठता है!

चाविंडा का युद्ध

चाविंडा का युद्ध : 1965 का भारत-पाकिस्तान युद्ध अप्रैल 1965 और सितंबर 1965 के बीच दोनों देशों के बीच हुई झड़पों की परिणति थी। पूर्ण संघर्ष पाकिस्तान के ऑपरेशन जिब्राल्टर के बाद शुरू हुआ। ऑपरेशन जिब्राल्टर भारतीय शासन के खिलाफ जम्मू और कश्मीर में विद्रोह को भड़काने के लिए शुरू किया गया था, जिसके निमित्त हेतु करीब 10000 पाकिस्तानी सैनिक घुसपैठिए के रूप में भारत में दाखिल हो गए। भारत ने जवाबी कार्रवाई करते हुए पश्चिमी पाकिस्तान पर पूर्ण सैन्य हमला कर दिया। सत्रह दिवसीय युद्ध में दोनों पक्षों के हजारों हताहत हुए और यह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बख्तरबंद वाहनों और टैंकों की सबसे बड़ी लड़ाई थी। जिस समय UN ने प्रस्तावित सीजफायर की घोषणा की, भारत सामरिक और रणनीतिक रूप से पाकिस्तान पर भारी था।

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इस युद्ध में Poona horses और 16th Cavalry के सेंचुरियन टैंको ने पैटन टैंको के अहंकार को चूर कर दिया। साथ ही साथ 1962 के हार से टूटा मनोबल भी बढ़ाया। यह युद्ध कई मोर्चोंऔर मिशनों का साक्षी भी बना। चाविंडा का युद्ध इन सभी मोर्चों में प्रमुख है और सेना के शौर्य का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण भी है। आज हम भारतीय सेना के पराक्रम और पुरुषार्थ को परिभाषित करने वाले चाविंडा का युद्ध के बारे में बताएँगे।

घटना ये है कि पाकिस्तान का लक्ष्य जम्मू कश्मीर के अखनूर क्षेत्र को जीतकर सामरिक रूप से महत्वपूर्ण GT Road पर नियंत्रण पाना था ताकि वो एक बड़े भूभाग को भारत से काट सके। इसमे तो वो सफल नहीं हो पाया उल्टे हाजी पीर पास पर भारत का कब्जा हो गया। जबकि भारत ने अखनूर को बचाते हुए पाकिस्तान के सियालकोट और लाहौर को जीतने का अभियान आरंभ किया ताकि पाकिस्तान पर दबाव बनाया जा सके।

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सियालकोट को जीतने के लिए Cavalry, तोपखाने और पैदल सेना की संयुक्त दल को भेजा गया। इस मिशन में हडसन होर्सेस के साथ पूना रेजीमेंट भी शामिल थी। रेजीमेंट तेज़ी से फिल्लोरा गाँव को जीतते हुए चाविंडा गाँव के तरफ आगे बढ़ी। पाठकों को बताते चलें की फिल्लोरा और चाविंडा सियालकोट के रास्ते में पड़नेवाले दो पाकिस्तानी गाँव है जिनको जीतना सियालकोट विजय के लिए नितांत आवश्यक थे।

हालांकि, चाविंडा गाँव के तरफ बढ़ते ही घात लगाए दुश्मन ने वजीरवली गाँव से भीषण हमला कर दिया। दुश्मन को इस हमले का प्रतिउत्तर देना जरूरी था। उस समय पूना होर्सेस का नेतृत्व लेफ्टिनेंट कर्नल AB Tarapore कर रहे थे। प्रलयंकारी पैट्टन के अग्निवर्षा के मध्य कर्नल तरापोर अपेक्षाकृत कम उन्नत सेंचुरियन टैंकों के साथ डटें रहें। फिर बड़ी चतुराई से दुश्मन का सामना करते हुए वापिस चाविंडा विजय के लिए बढ़े। लेकिन, अफसोस पैट्टन टैंक का एक गोला कर्नल के टैंक पर आ गिरा। कर्नल गंभीर रूप से घायल हुए। आला अफसरो ने उन्हें बटालियन छोड़ वापिस लौटने का आदेश दिया, परंतु शौर्य और साहस के प्रतिमान कहाँ पीछे हटते है, भले युद्ध स्वर्ग के सत्तधीशों से ही क्यों न हो। कर्नल ने साफ शब्दों में कहा- ‘’ विजय या वीरगति। जबतक पलटन लड़ेगी, मैं लड़ूँगा। रणभूमि में प्राण तजूँगा पर पीछे नहीं हटूँगा।‘’

अपने नायक के इस शौर्यगाथा ने पलटन को ऐसा प्रेरित किया मानो उनके पराक्रम के आगे पैट्टन टैंक तो क्या युद्ध के देवता भी घुटने टेक दें। हुआ भी वही, जख्मी शेर नरसिंघों के इस समूह को लेकर, ललकरता हुआ शत्रुदल की ओर बढ़ा। क्या चाविंडा, क्या वजीरवली, क्या जोरासन। हमारे शेरों ने बुतुर दोगरंडी तक को जीत लिया। युद्ध में ऐसे पराक्रम का अद्वितीय उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता। हमारे 9 सेंचुरियन टैंक तबाह हुए और दुश्मन के 7। लेकिन, जिसे युद्ध आयुधों का ज़रा भी ज्ञान होगा उसे पता होगा कि पैट्टन टैंक उस समय दुनिया की सबसे बेहतरीन टैंक थी। पैट्टन टैंकों के बारे में कहा जाता था की वे अजेय हैं। उन्हें नष्ट करना असंभव था। कुछ हद तक ये बात सही भी थी, लेकिन भारतीय रणबांकुरों के हिम्मत और पराक्रम के आगे पैट्टन टैंक की क्या बिसात? अमेरिका का गुरूर चूर-चूर हो गया और पाकिस्तान के उस सैनिक तनाशाह अयुब खान का भी, जिसका ये मानना था कि हिंदुओं की सेना इस्लामी लश्कर के आगे नहीं टिक पाएगी। 5 दिन बाद मिट्टी के सच्चे सपूत लेफ्टिनेंट कर्नल तरापोर मिट्टी की गोद में सदा के लिए सो गए।

हमारे शूरवीरों नें कर्तव्यपरायणता और राष्ट्रभक्ति का एक मानक उदाहरण प्रस्तुत किया। अब हमारी ज़िम्मेदारी है कि एक राष्ट्र के तौर पर हम ऐसे शूरवीरों को अपने सोच और परवरिश के माध्यम से जिंदा रखें। आनेवाली पीढ़ियों को उनकी शौर्य गाथा से सिंचित करें। भावी भविष्य में साहस और पराक्रम अगर कभी अपनी परिभाषा भूलें तो निश्चित ही अपने अस्तित्व रक्षण हेतु चाविंडा के रण का उदाहरण देंगे। धन्य है वो धरती और धन्य है उसके लाल जिन्होंने अमेरिका के पैट्टन, पाक के दुस्साहस, 1962 के हार की हताशा और कमजोर आयुधों के बावजूद स्वयं के रुधिर से राष्ट्रतिलक किया। हे महामानवों! भारत तुम्हारे ऋण से मुक्त तो नहीं हो सकता लेकिन राष्ट्र तुम्हें अमर कर देगा अपनी स्मृतियों से, चिंतन से, सम्मान से। कदाचित, यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी। दिनकर के शब्दों से समापन करे तो:

पीकर जिनकी लाल शिखाएँ,

उगल रही लपट दिशाएँ,

जिनके सिंहनाद से सहमी-

धरती रही अभी तक डोल!

कलम, आज उनकी जय बोल!

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