Cooperatives के लिए अमित शाह की बड़ी योजनाएं, न सिर्फ आर्थिक बल्कि राजनीतिक क्षेत्र में होंगे दूरगामी परिणाम लाएँगी

शरद पवार और उन जैसे नेता जो सहकारिता से गाढ़ी कमाई करते हैं, उन पर लगाम लगेगी!

देश के पहले राष्ट्रीय सहकारिता सम्मेलन को संबोधित करते हुए केंद्रीय मंत्री अमित शाह ने कहा कि मुझे गर्व है कि, ‘मैं सहकारिता मंत्रालय का पहला मंत्री हूं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुझे इसके लिए मौका दिया।’ उन्होंने कहा कि, ‘मैं सहकारिता मंत्री के नाते देशभर के नेताओं और कार्यकर्ताओं से कहना चाहता हूं कि अब लापरवाही का समय समाप्त हो गया है। प्राथमिकता का समय शुरू हुआ है। इसलिए सब साथ मिलकर सहकारिता को आगे बढ़ाएं। सहकार से समृद्धि हमारा नया मंत्र है।’

सहकारिता के लिए अमित शाह की बड़ी योजनाएं

अमित शाह ने घोषणा की है कि सहकारिता आंदोलन को मजबूत करने के लिए राज्यों के साथ समन्वय में काम करते हुए केंद्र जल्द ही एक नई सहकारिता नीति लेकर आएगा। शाह ने यह भी कहा कि प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों (पीएसी) की संख्या अगले पांच वर्षों में मौजूदा 65,000 PAC से बढ़ाकर 3 लाख कर दी जाएगी। सहकारिता आंदोलन को राष्ट्रीय विकास के केंद्र में रखने की अपनी महत्वाकांक्षाओं को रेखांकित करते हुए शाह ने कहा, “हम सहकारी क्षेत्र को मजबूत करने के लिए एक नया अधिनियम लाएंगे। हमारे 10,000 साल पुराने इतिहास में सहकारिता कोई नई अवधारणा नहीं है। यह भारत के विकास के लिए एक मॉडल होगा और भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा।” शाह ने कहा, “हमारा उद्देश्य एक स्वदेशी ढांचे के भीतर ग्रामीण क्षेत्रों में तेज गति और बड़े पैमाने पर विकास करना है।” सरकार बहु-राज्य सहकारी समितियों को मजबूत और विस्तारित करने तथा पीएसी के पदचिह्न का विस्तार करने के लिए विधायी संशोधन लाने की योजना बना रही है। यह देश भर में सहकारी समितियों को एकजुट करेगा और भारत में सहकारिता आंदोलन का एक राष्ट्रीय ढांचा तैयार करेगा।

सहकारी समितियां क्यों महत्वपूर्ण हैं?

भारत के राष्ट्रीय सहकारी संघ द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार, भारत का सहकारी क्षेत्र दुनिया में सबसे बड़ा है। देश के 98 प्रतिशत क्षेत्रों तक सहकारिता की पहुँच शामिल है, जिसमें लगभग 290 मिलियन लोगों की सदस्यता वाले नौ लाख से अधिक socities हैं।

साथ ही, भारत के 91 प्रतिशत गांवों में सहकारी समितियों की मौजूदगी है और अब केंद्र इसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाना चाहता है। यह योजना भारत के सहकारी आंदोलन को अंतर्राष्ट्रीय सहकारी गठबंधन (वैश्विक) से जोड़ने की है जिसमें 110 देशों की 30 लाख सहकारी समितियां शामिल हैं।

डेयरी प्रमुख अमूल, लिज्जत पापड़ और इफको देश के सहकारी आंदोलन द्वारा सफल सहकारी समितियों के कुछ उदाहरण हैं। दरअसल, देश में 29 प्रतिशत कृषि ऋण, 35 प्रतिशत यूरिया उत्पादन और 31 प्रतिशत यूरिया वितरण सहकारी समितियों के माध्यम से किया जाता है। देश के लिए सहकारी समितियां अत्यधिक उपयोगी हैं और बाढ़ प्रबंधन से लेकर चक्रवात प्रतिक्रिया तक सभी स्थितियों में बचाव के दौरान काम आती हैं।

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मोदी सरकार द्वारा एक अलग ‘सहकारिता एवं सहयोग मंत्रालय‘ बनाने की घोषणा विपक्षी दलों सहित कई लोगों के लिए आश्चर्य की बात है, जो अभी भी इस कदम के दीर्घकालिक प्रभाव को समझने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन एक करीब से जांच से यह स्पष्ट हो जाता है कि यह निर्णय अचानक नहीं था। वास्तव में, इसे बनाने की प्रक्रिया काफी समय से चल रही थी। एक अलग मंत्रालय के लिए बीज निर्मला सीतारमण के बजट भाषण के दौरान बोया गया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि मोदी सरकार बहु-राज्य सहकारी समितियों के विकास के लिए प्रतिबद्ध है और उन्हें हर संभव सहायता प्रदान करेगी। व्यापार करने में आसानी हेतु सहकारी समितियों के लिए एक अलग प्रशासनिक ढांचा स्थापित करना चाहिए।

सहकारिता की समस्या

भारत में सहकारी बैंक पिछले कुछ वर्षों से जीवित रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। यह मुद्दा पंजाब एंड महाराष्ट्र कोऑपरेटिव (पीएमसी) बैंक की विफलता के बाद सुर्खियों में आया, जिसके बाद जमाकर्ताओं ने अपनी गाढ़ी कमाई को निकालने के प्रयास में शाखाओं में अपने चप्पल घिसे।

व्यक्तिगत जिम्मेदारी के साथ सामूहिकता की भावना को जीवित रखने के लिए सहकारिता सबसे अच्छा माध्यम है। मंत्रालय बनाने का घोषित उद्देश्य है कि सहकार से समृद्धि (सहयोग से समृद्धि) के विजन को साकार करना। सहकारिता समूहों के ‘कारोबार में सुगमता’ के लिए प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना और बहु-राज्य सहकारी समितियों (एमएससीएस) के विकास को सक्षम बनाने भी प्रमुख लक्ष्य है। देश में सहकारिता आंदोलन को मजबूत करने के लिए एक अलग प्रशासनिक, कानूनी और नीतिगत ढांचा प्रदान करना और जमीनी स्तर तक पहुंचने वाले एक सच्चे जन-आधारित आंदोलन के रूप में सहकारी समितियों को गहरा करना भी इसके प्रमुख उद्देश्यों में से है। सहकारिता के पहले मंत्री के रूप में अमित शाह मंत्रालय का रोडमैप जो भी हो, नए विभाग के लिए मंत्री के चुनाव में कोई आश्चर्य नहीं हुआ।

गुजरात में गुजरात के सहकारी क्षेत्र में अपने समृद्ध अनुभव के साथ अमित शाह, नए मंत्रालय का नेतृत्व करने के लिए एक स्वाभाविक पसंद थे। सहकारिता के क्षेत्र में गुजरात मॉडल एक बड़ी सफलता थी और शायद इसीलिए विपक्ष संशय में है। भारत का सहकारिता आंदोलन का एक समृद्ध और सफल इतिहास रहा है। महाराष्ट्र, गुजरात, केरल, उत्तर प्रदेश कुछ ऐसे राज्य हैं जिन्होंने सहकारी आंदोलन से भरपूर लाभ प्राप्त किया है। इस प्रक्रिया में, उन्होंने न केवल अपनी ग्रामीण आबादी को बल्कि कई राजनेताओं को भी सशक्त बनाया है।

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सहकारी समितियां जमीनी स्तर पर लोगों को एक साथ लाती हैं और उन्हें सामूहिक सौदेबाजी की शक्ति प्रदान करती हैं। कुल मिलाकर भारत में 194,195 सहकारी डेयरी सोसायटी और 330 सहकारी चीनी मिलों का संचालन है। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, अकेले 2019-20 में इन डेयरी सहकारी समितियों ने 1.7 करोड़ सदस्यों से 4.80 करोड़ लीटर दूध खरीदा और प्रतिदिन 3.7 करोड़ लीटर दूध बेचा। इसी तरह, सहकारी चीनी मिलें देश के कुल उत्पादन का लगभग 35% उत्पादन करती हैं। वित्तीय क्षेत्र में, नाबार्ड की 2019-20 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, देश में 95,238 ग्राम-स्तरीय प्राथमिक कृषि ऋण समितियाँ (PACS), 363 जिला केंद्रीय सहकारी बैंक (DCCB) और 33 राज्य सहकारी बैंक थे। जहां तक ​​इन सोसायटियों के संचालन के पैमाने का सवाल है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसी वित्तीय वर्ष में राज्य सहकारी बैंकों के पास कुल 1,35,393 करोड़ रुपये जमा और 1,48,625 करोड़ रुपये के ऋण वितरित किए गए थे। इसके अलावा सहकारी समितियां शहरी क्षेत्रों में शहरी सहकारी बैंक (यूसीबी) और सहकारी ऋण समितियां भी चलाती हैं। 2019-20 में, भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार, कुल 14,933.54 करोड़ रुपये की पूंजी और 3,05,368.27 करोड़ रुपये के बकाया ऋण के साथ 1,539 शहरी सहकारी बैंक थे।

राजनीतिक पार्टियों के लिए रुपये छापने की मशीन है सहकारिता

कांग्रेस ने इस कदम को “राजनीतिक शरारत” करार दिया, जबकि वामपंथियों ने इसे “देश के संघीय ढांचे पर हमला” बताया। ऐसा कहा जाता है कि इस कदम का प्रभाव ज्यादातर महाराष्ट्र और गुजरात में महसूस किया जाएगा, जहां चीनी और दूध उत्पादन, बिजली करघे और शहरी और ग्रामीण गैर-कृषि ऋण समितियों को चलाने वाली कई बड़ी सहकारी समितियां हैं। अतः, राजनीतिक शरारत का यह तर्क निरर्थक है। अकेले महाराष्ट्र में लगभग 21,000 प्राथमिक कृषि ऋण समितियां और 31 जिला सहकारी बैंक हैं। कांग्रेस नेताओं का मानना है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) इन समितियों पर नियंत्रण हासिल करने के लिए मंत्रालय का इस्तेमाल करने की कोशिश करेगी, जो कि 2002 के बहु राज्य सहकारी समिति अधिनियम द्वारा शासित हैं, क्योंकि फिलहाल यह बड़े पैमाने पर क्षेत्रीय नेताओं द्वारा नियंत्रित है। जैसे कि कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता शरद यादव का सहकारी समूह से संबंध और उनके संचालन में इनकी भूमिका किसी से भी छिपी नहीं है। माना जा रहा है कि महाराष्ट्र में करीब 150 विधायक इसी सेक्टर से जुड़े हैं। कोई भी राज्य चाहे वो पंजाब हो या बिहार सभी में यही देखने को मिलता है।

भारत को एक अनुकूल कानूनी वातावरण की आवश्यकता थी जो स्वायत्तता के साथ-साथ जवाबदेही सुनिश्चित करे। भारत में सहकारिता राज्य का विषय है और विभिन्न राज्यों के राज्य सहकारी समिति अधिनियम में बहुत भिन्नता है इसलिए सुधार एक थकाऊ विधायी प्रक्रिया होगी जिसे राज्य स्तर पर करना होगा। कुछ राज्यों में कानून बहुत उदार है जबकि कुछ राज्यों में यह बहुत कठोर है। इसी संदर्भ में भारत सरकार ने 2011 में 97वां संविधान संशोधन अधिनियम पेश किया। हालांकि, इसे लागू नहीं किया जा सका, क्योंकि भारत के सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा लंबित है। कुछ राज्य ऐसे हैं जिन्होंने उन समाजों पर लागू अधिनियम पेश किया जिन्हें सरकारी सहायता प्राप्त नहीं होती है।  ऐतिहासिक रूप से भारत में सहकारी समितियाँ जहाँ अधिनियम और सहकारी आंदोलन के माध्यम से पंजीकृत थीं, परन्तु वो स्वतःस्फूर्त नहीं थीं।  यही कारण है कि कानून प्रकृति में निर्देशात्मक है और एक सूत्रधार की भूमिका नहीं निभाता है। लेकिन, मोदी सरकार की दूरद्रष्टा नीति, सहकारिता मंत्रालय की स्थापना और उस मंत्रालय के संचालन का पदभार अमित शाह जैसे व्यक्ति को सौंपना सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। गुजरात के संदर्भ में जो अमित शाह ने सहकारिता के क्षेत्र में कार्य किया है वह अभूतपूर्व है विलक्षण है, अद्वितीय है। अमित शाह के नियुक्ति से सहकारिता क्षेत्र की रूढ़िवादिता और उसमें राजनीतिक दलों का वर्चस्व टूटेगा और सहकारिता के उत्थान का मार्ग प्रशस्त होगा।

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