झारखंड के पश्चिम सिंहभूम के टोंटो थाना क्षेत्र के दुरुला गांव में आदिवासी से धर्मांतरण कर ईसाई धर्म अपनाना एक परिवार को महंगा पड़ गया। धर्मांतरण कर ईसाई बने परिवार में एक शख्स की मौत के बाद आदिवासी समाज ने शव को आदिवासी ‘हो समाज’ के कब्रिस्तान ससन दीरी में दफनाने नहीं दिया। आखिरकार ईसाई धर्म अपनाने वाले परिवार को अपने घर के आंगन में ही शव को दफनाना पड़ा। घटना मंगलवार, 14 सितंबर की है जब एक व्यक्ति की मौत के बाद शव को दफनाने की विवाद नें इतना तूल पकड़ा कि आखिरकार पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ा तब जाकर 40 घंटे के लंबे समय बाद शव को घर के आंगन में दफनाया जा सका।
दुरुला गांव में ‘हो समुदाय’ के लोगों ने अपने ससन दिरी, कब्रिस्तान में ईसाई परिवार के मृत व्यक्ति शव दफनाने से रोक दिया। ‘हो समुदाय’ का कहना था कि धर्मांतरण करने वाले परिवार के शव को वंशजानुसार ससन दिरी कब्रिस्तान में दफनाने नहीं दिया जाएगा। ग्रामीणों के विरोध के बाद ईसाई परिवार ने वंशजानुसार ससन दिरी में शव को नहीं दफनाया।
कब्रिस्तान में खुदाई होते ही विरोध शुरू
शव दफनाने के लिए ईसाई परिवार ने जैसे ही ससन दीरी में खुदाई शुरू ही की थी कि दूसरी तरफ विरोध शुरू हो गया। ग्रामीणों ने आदिवासी ‘हो समाज’ युवा महासभा के लोगों को जानकारी दी। इस विवाद को निपटाने के लिए गांव में बैठक करने पर सहमति बनी। बैठक में ‘हो समुदाय’ के ससन दिरी (कब्रिस्तान) स्थल में शव को नहीं दफनाने देने का फैसला लिया गया। फिर भी मामला शांत नहीं हुआ। पुलिस के बीच बचाव के बाद शव को घर के आंगन में दफनाने का निर्णय परिवार वालों ने लिया। परिवार के सदस्य आंगन में शव को दफनाने के पक्ष में नहीं थे। जानकारी के अनुसार पुलिस के दबाव में शव आंगन में दफनाया गया। मालूम रहे कि शनिवार को ही 25 साल के अमृत लाल बोयपाई की मृत्यु किसी बीमारी से हो गई थी।
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अब तक 11 परिवारों का धर्मांतरण
इस दुरुला गांव में लगभग 11 परिवार का धर्मांतरण ईसाई धर्म में हो चुका है। धार्मिक मुद्दे को लेकर कई दौर की पंचायत भी बैठ चुकी है। इसमें कुछ धर्मांतरण परिवार का सामाजिक बहिष्कार भी किया गया है। जिसका मामला थाना तक जा पहुंचा और थाना प्रभारी ने दोनों पक्ष को समझा-बुझाकर गांव में शांति-व्यवस्था के साथ रहने की सलाह दी।
ग्रामीणों ने बाहर के लोगों द्वारा गांव में लोगों को भड़काने, प्रलोभन देकर धर्मांतरण कराने और पुलिस-प्रशासन का भय दिखाने को लेकर थाना प्रभारी से शिकायत की। थाना प्रभारी ने ग्रामीणों के गुस्से को शांत कराते हुए बाहर से आकर गांव वालों को न भड़काने और गांव की शांति-व्यवस्था को न बिगाड़ने के लिए धर्म प्रचारकों को कड़ी चेतावनी भी दी है, साथ ही साथ कड़ी कानूनी कार्रवाई करने का निर्देश दिया है।
आदिवासी, जनसांख्यिकी और धर्मांतरण
सिंहभूम के वन गांवों में, हो आदिवासी ग्रामीण साझा वन क्षेत्रों और चरागाहों से लकड़ी और घास इकट्ठा करते हैं और भूमि के छोटे भूखंडों पर धान उगाते हैं। जहां तक धर्मांतरण का सवाल है 1845 में जर्मन प्रोटेस्टेंट मिशन यहां पहुंचा, उसके बाद कैथोलिक आए। अंग्रेजों द्वारा 1941 तक के जनगणना में “जनजातीय धर्म” या जीववाद को एक विशिष्ट धर्म के रूप में गिना जाता था। लेकिन, स्वतंत्र भारत में इस प्रथा को बंद कर दिया गया था। नई जनगणना के अनुसार, झारखंड की 3.2 करोड़ आबादी में से 67.8% या 2.2 करोड़ हिंदू हैं और 4.3% या 14.1 लाख ईसाई हैं। “अन्य धर्म” के अंतर्गत जो सरना आबादी का वर्गीकरण उसको लेकर जो सरना नेताओं का कहना है कि सरना आबादी 12.8% या 42.3 लाख अनुमानित है।
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आदिवासी बुद्धिजीवी धार्मिक जनगणना के आंकड़ों के बारे में क अलग दृष्टिकोण रखते हैं। जनगणना के आंकड़े जारी होने के बाद उन्होंने आदिवासियों के लापता होने का सवाल उठाया है। आदिवासी संख्या 86.4 लाख है जो की झारखंड की आबादी का 26.2% है। जिनमें ईसाइ आदिवासी 14.1 लाख और “अन्य धर्म” सरना 42.3 लाख है। वे पूछते हैं, बाकी के 30 लाख आदिवासी कहां हैं।
आदिवासी सुरक्षा मंच के तत्वावधान में गुरुवार को बिरसा सरस्वती शिशु मंदिर तपकारा में आयोजित बैठक में आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों पर चर्चा हुई। पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत ग्राम प्रधान, प्रधान, प्रधान और जिला परिषद का पद केवल अनुसूचित जनजाति के लोगों के लिए आरक्षित है। अतः वो अब इसमे भाग लेने हेतु अयोग्य है।
निष्कर्ष
स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध और संवैधानिक अधिकार है। इन संवैधानिक प्रावधानों में धार्मिक स्वतन्त्रता भी सन्निहित है जिनका उल्लेख अनुच्छेद 26 में है। इन प्रावधानों के अंतर्गत संविधान अपने नागरिकों को इसके प्रचार प्रसार संबंधी स्वतन्त्रता भी देता है। लेकिन, धर्मांतरित किए जाने वाले व्यक्ति की सहमति अगर किसी छल से ली जाती है या फिर धर्मांतरण राष्ट्रविरोधी नियत से जनसांख्यिकी परिवर्तन हेतु किया जाता है तो निश्चित ही यह सोचनीय विषय है। अधिकार कर्तव्य, नागरिक और राष्ट्र हित में हो तभी कल्याणकारी होता है। अन्यथा अधिकार और निरंकुश स्वतन्त्रता ही अराजकता की जननी है। जनजातीय संस्कृतियों को संरक्षित और संवर्धित करने के बजाय अगर धार्मिक स्वतन्त्रता के नाम पर इनका धर्मांतरण निंदनीय है।