हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ आ चुकी है और वो आसमान छूने को तैयार है

जो जो हिन्दू rate of growth बोल के मज़े लेते थे, आज मुंह बाए खड़े हैं!

हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ

कल भारत को एक अप्रत्याशित शुभ समाचार मिला जब भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रथम तिमाही के आर्थिक आँकड़े सबके समक्ष आये। अनेक बाधा, कोरोना की दूसरी लहर और लॉकडाउन के बावजूद भारत ने प्रथम तिमाही में ही न केवल दावों के अनुसार दहाई में आर्थिक प्रगति का आंकड़ा पार किया, अपितु 20 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि भी दर्ज की। जी हाँ, आपने ठीक सुना। 2021-2022 के आर्थिक वर्ष में अप्रैल से जून के तिमाही में भारत ने 20.1 प्रतिशत की ग्रोथ रेट दर्ज की, और अगर इसे हम ‘हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ’ की उपाधि दें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

लेकिन इस ग्रोथ रेट को ‘हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ’ की उपाधि किसलिए? आखिर आर्थिक प्रगति का धर्म से क्या लेना देना? लेना देना है, और इसके पीछे एक बहुत विस्तृत इतिहास भी है, जिसका विश्लेषण करना अवश्यंभावी है। आइए जानते हैं कि क्यों वर्तमान आर्थिक प्रगति वास्तविक ‘हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ’ है, और आगे अनंत तक जाने को तैयार है।

इस कहानी का प्रारंभ होता है 1947 से, जब भारत अंग्रेज़ों के शासन से स्वतंत्र हुआ था। भारत को अंग्रेज़ों ने काफी लूटा था, परंतु जिस अवस्था में वे छोड़कर गए थे, उसमें भी भारत चाहता तो एक लंबी उड़ान भर सकता था। 1950 में भारत की जो आर्थिक व्यवस्था थी, और जो आधारभूत संरचना यानि Infrastructure था, वो कई यूरोपीय देशों, जापान, कोरिया, यहाँ तक कि तत्कालीन चीन से भी बहुत बेहतर था। यहाँ तक कि भारत के संविधान के अनुसार हम एक संप्रभु लोकतान्त्रिक गणराज्य थे, जहां उद्योगों और अन्य आर्थिक गतिविधियों का स्वस्थ आदान प्रदान होना चाहिए था।

लेकिन प्रश्न तो अब भी वही है, ये ‘हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ’ की उपाधि किसलिए? इसे प्रारंभ में वामपंथी तंज की भांति उपयोग में लाते थे। राज कृष्णा नामक अर्थशास्त्री ने सर्वप्रथम हिन्दू रेट ऑफ ग्रोथ का उपयोग 1978 में किया था, जोकि सनातन धर्म के अनुयाइयों के ‘संतोष’ पर प्रहार था। वामपंथी किसी भी प्रकार से अपनी निकृष्ट विचारधारा पर आंच नहीं आने देना चाहते थे, जो वास्तव में भारत के अर्थव्यवस्था के विनाश का मूल कारण थी।

तो फिर ऐसा क्या हुआ, जिसके कारण भारत के पास ऐसी व्यवस्था और संरचना होते हुए भी हमारी अर्थव्यवस्था का कोई विकास नहीं हुआ? उलटे 1991 आते आते हमारी स्थिति इतनी बेकार हो गई कि हमें अपने देश को बचाने हेतु अपना स्वर्ण भंडार का एक हिस्सा गिरवी रखना पड़ा? कारण केवल एक था, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू द्वारा जबरदस्ती भारतीयों पर थोपा गया समाजवाद, और कोई ऐसा वैसा समाजवाद नहीं, फैबियन समाजवाद।

फैबियन समाजवाद क्या है?

अब यह फैबियन समाजवाद क्या है? जिस आर्थिक व्यवस्था में शासन भाई भतीजावाद, लाइसेंस राज या परमिट राज, अनेक प्रकार के टैक्स और नौकरशाही के झमेलों को बढ़ावा दे, और शासन कछुआ चाल से प्रगति करे, उसे फैबियन समाजवाद कहते हैं। एक स्वतंत्र देश होने के नाते भारत में अगर एक आधुनिक बिल्डिंग भी बनकर तैयार होती, तो उससे ही कितनी क्रांति आ सकती थी। लेकिन फैबियन समाजवाद ने जनमानस को इस हद तक खोखला बना दिया कि वे आधुनिक परिवहन तक का विरोध करने लगे, क्योंकि इससे ‘तांगे वालों’ का जीवन खतरे में आ जाएगा। बी आर चोपड़ा की ‘नया दौर’ की पूरी कथा इसी बारे में तो थी, और एक प्रकार से हमारे फिल्म उद्योग ने इसी फैबियन समाजवाद को बढ़ावा देने में भरपूर योगदान दिया।

फलस्वरूप, जिस देश को अपने प्रारम्भिक वर्षों में कम से कम कुछ नहीं तो 15 से 20 प्रतिशत की दर से आर्थिक प्रगति करनी चाहिए थी, तो वहीं पर हमारे प्रारम्भिक वर्षों में आर्थिक प्रगति की दर कभी चार, तो कभी 5 प्रतिशत रहती थी। 1962 से 1964 के बीच तो आर्थिक प्रगति की दर अपने निम्नतम स्तर पर थी, जब देश 2 प्रतिशत के दर से आर्थिक वृद्धि करता था। तब न तो कोई महामारी थी, न ही ‘हिन्दुत्व का राज’ था, और न ही देश में ऐसी कोई समस्या थी, जैसा आज वामपंथी रोते हैं।

लेकिन आज भारत ने पुनः 20 प्रतिशत की अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज की है जो अपने आप में एक ऐतिहासिक विजय है; वो भी तब जब दूसरी लहर अपने चरम पर थी, भारत के पास स्वास्थ्य संसाधनों की कमी पड़ने लगी थी, और लॉकडाउन जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी। वास्तव में  जब मोदी सरकार कहती है ‘सबका साथ सबका विकास’, तो वे सनातन धर्म के मूल मंत्र ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे संतु निरामय:’ का ही अनुसरण करते हैं। जब पूरी दुनिया कोविड के कारण दुविधा में था, तब भी मोदी सरकार ने स्वास्थ्य के साथ साथ निवेश और रोजगार पर भी बराबर ध्यान दिया। आज इसी कारणवश जब संसार त्राहिमाम कर रहा है, तो भारत सबके लिए एक बार फिर ‘संकटमोचक’ के रूप में प्रस्तुत हुआ है।

जब कोरोना वायरस के कारण लगाए गए पाबंदियों से अर्थव्यवस्था में 23 प्रतिशत की गिरावट आई, तो बिना सोचे समझे वामपंथियों ने मोदी सरकार को कोसना शुरू कर दिया। लेकिन अगर कोई वस्तु जितना नीचे गिरा है, वो उतनी ही तेजी से ऊपर भी तो उछलेगा? आज यही वामपंथी भारत की अप्रत्याशित प्रगति पर मौन धारण किये हैं, क्योंकि वे भली भांति जानते हैं कि इस बार मोदी सरकार ने असंभव को संभव सिद्ध करके दिखाया है। जो आर्थिक वृद्धि हमने अप्रैल से जून के बीच में विकट परिस्थितियों के बीच देखी है, वो वास्तविक सनातनी प्रगति है, और ये तो प्रारंभ है, ये रुकने नहीं वाली।

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