महान सम्राट कुमारगुप्त की विरासत शंखलिपि के रुप में आई सामने

कुमारगुप्त का चित्र

पाश्चात्य, आधुनिकता, आक्रांता, और वामपंथी दुष्चक्र !!! इस दुष्चक्र से सृजित हुई है कई सांस्कृतिक विस्मृति और ऐतिहासिक विकृति। हमारे पूर्वजों के पाठ और उनका गौरवशाली इतिहास सिर्फ पुस्तकों के पृष्ठ परिधि में अंकित है, जबकि इसे चारित्रिक रूप से प्रतिबिंबित और परिलक्षित होना चाहिए था। खैर, हमारे पूर्वजों का इतिहास इतना वृहद और विस्तृत है कि समय स्वयं येन केन प्रकारेण उनका वर्णन करता ही रहता है। सभी प्रकार के ऐतिहासिक झंझावातों और दुष्चक्रों का चक्रव्यूह-भेदन करते हुए अभिमन्यु सम उनकी शूरवीरता आज भी इतिहास की छाती पर अंकित है। इसी क्रम में एक नयी खोज हुई है जिसके बारे में जानना और समझना अति आवश्यक है।

खोज

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) को उत्तर प्रदेश के एटा जिला के बिलसर गांव में 5वीं शताब्दी के गुप्तकालीन प्राचीन मंदिर के अवशेष मिले हैं। बिलसर का यह इलाका 1928 से नियमित रूप से संरक्षित किया गया है। एएसआई मानसून के दौरान अपने संरक्षित स्थलों की सफाई करता है और इसी दौरान गुप्तकालीन मंदिर के अवशेष मिले हैं।

पिछले महीने, वहां सीढ़ी की खुदाई के दौरान शंखलिपि शिलालेख मिले थे, जिसमें “श्री महेंद्रदित्य‘ का नाम अंकित है जो गुप्त वंश के कुमारगुप्त प्रथम की उपाधि थी। शंखलिपि एक प्राचीन लिपी है जिसका उपयोग चौथी से आठवीं शताब्दी के बीच नामों और हस्ताक्षरों के लिए किया जाता था। शंखलिपि शिलालेख सबसे पहले लखीमपुर खीरी में मिले घोड़े की प्रतिकृति पर पाया गया था, जो अब लखनऊ के राज्य संग्रहालय में संग्रहित है।

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कौन थे कुमारगुप्त?

कुमारगुप्त प्रथम प्राचीन भारत के गुप्त साम्राज्य के सम्राट थे। वह भारत के स्वर्णकाल में शासन करनेवाले गौरवशाली राजा सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय और रानी ध्रुवदेवी के पुत्र थे। उन्होंने अपनी विरासत वाले क्षेत्र पर नियंत्रण बनाए रखा, जो पश्चिम में गुजरात से पूर्व में बंगाल क्षेत्र तक फैला हुआ था। कुमारगुप्त प्रथम ने 40 वर्षों तक शासन किया।

वृहद शासन

कुमारगुप्त प्रथम को अपने पिता चंद्रगुप्त द्वितीय और दादा समुद्रगुप्त से एक बड़ा साम्राज्य विरासत में मिला। उन्होंने न सिर्फ इस विरासत को बनाए रखा अपितु उत्कृष्टता और उत्कर्ष भी प्रदान किया। उनके शासनकाल के दौरान जारी किए गए शिलालेख मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में भी मिले है। उनके पुत्र का एक शिलालेख गुजरात से प्राप्त हुआ है। इसके अलावा उनके गरुड़-अंकित सिक्के पश्चिमी भारत में और उनके मोर-अंकित सिक्के गंगा घाटी में मिले हैं। इससे पता चलता है कि कुमारगुप्त उस विशाल क्षेत्र के नियंत्रण, संरक्षण और संवर्धन में सक्षम थे जो उन्हें विरासत में मिला था। एक बड़े साम्राज्य में स्थिरता रखना उनकी मजबूती का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

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कुछ संकेत मिलते हैं कि कुमारगुप्त प्रथम का शासन युद्धों और अशांति से रहित नहीं था। हूण और शकों के निरंतर आक्रमण के सामने वो अभेद्य कवच बनकर खड़े थे। वह युद्ध देवता कार्तिकेय की पूजा करते थे। उनके सोने के सिक्कों से पता चलता है कि उन्होंने अश्वमेध यज्ञ भी किया था। कुमारगुप्त प्रथम ने ना सिर्फ त्रिकुटों को हराया अपितु दशपुरा को जीतकर उन्होंने सम्पूर्ण आर्यभूखंड पर भगवा पताका लहराया। उनकी शासन व्यवस्था तो आश्चर्यचकित करती है।

उन्नत शासन

उनकी शासन संरचना आज के आधुनिक व्यवस्था से भी उन्नत थी। एपिग्राफिक सबूत बताते हैं कि कुमारगुप्त प्रथम ने राज्यपालों (उपरिकस) के माध्यम से अपने साम्राज्य पर शासन किया, जिन्होंने महाराजा की उपाधि धारण कर विभिन्न प्रांतों (भुक्ति) का प्रशासन किया। तब प्रांतों के जिलों का प्रशासन जिला मजिस्ट्रेट (विश्यपति) द्वारा किया जाता था, जिन्हें एक सलाहकार परिषद द्वारा समर्थित किया जाता था। सलाहकार परिषद में नगर अध्यक्ष या महापौर (नागरा-श्रेष्टिन), व्यापार समूह के प्रतिनिधि (सार्थवाह), कारीगर समूह के प्रमुख (प्रथम-कुलिका), लेखकों या शास्त्रियों के समाज के प्रमुख (प्रथम-कायस्थ) शामिल थे। कुमारगुप्त प्रथम ने चीन के शासक Liu Sung के साथ कूटनीतिक संबंध तक स्थापित किया।

कुमारगुप्त प्रथम की धार्मिक व्यवस्था

कुमारगुप्त प्रथम स्वयं वैष्णव संप्रदाय को मानते थे। वे सनातन संस्कृति की सहिष्णुता और सामर्थ्य के प्रत्यक्ष प्रमाण थे। उन्होंने इसे साबित भी किया। एपिग्राफिक साक्ष्य इंगित करते हैं कि कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल के दौरान शैववाद, वैष्णववाद, बौद्ध धर्म और जैन धर्म सहित विभिन्न धर्मों का विकास हुआ। शासन का धर्म और शासक के धर्म में इतना स्पष्ट वर्गीकरण अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलता। आर्थिक विकास और व्यापार चीन के सुदूर क्षेत्रों तक फैला हुआ था। कुमारगुप्त प्रथम के शासनकाल के कम से कम 18 अभिलेख उनके स्वर्णकाल को वर्णित करते हैं। कुमारगुप्त प्रथम की मृत्यु के बाद स्कंदगुप्त 455 ई. में सत्तासीन हुए।

निष्कर्ष

इस नए ऐतिहासिक खोज की ख़बर भावी पीढ़ियों के लिए सीख है। कहा जाता है कि जो अपना इतिहास को भुला देते हैं इतिहास उनके अस्तित्व को भुला देता है। बिना गौरवशाली इतिहास के अस्तित्व निरर्थक है और भविष्य अंधकारमय। इस तमस में तेजस सम जाज्वल्यमान कुमारगुप्त प्रथम भावी पीढ़ियों के लिए आज भी प्रासंगिक और पथ प्रदर्शक हैं। मुग़लों और अंग्रेजों का महिमामंडन आपके अंदर हीनता और कुंठा को भर देगा और यह इस सीमा तक भर देगा कि उसमें घुटकर संस्कृति और राष्ट्र की मृत्यु हो जाएगी। आपकी अज्ञानता और हीनता ही राष्ट्र की वास्तविक पराजय है। लेकिन इस घोर प्रलयंकारी वैचारिक युद्ध में कुमारगुप्त प्रथम की महिमगाथा आपके रुधिर में बह रहे ओजस्वी अंश को उद्वेलित करती है और यह बताती है कि आप कितने महान संस्कृति के संवाहक है। बस, आवश्यकता है तो इन नायकों को अपने स्मृतियों मे स्थान देने की और इतना तो आप कर ही सकते है।

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