एयर इंडिया की विनिवेश प्रक्रिया अंतिम चरण में पहुंच चुकी है। टाटा संस और स्पाइसजेट के प्रमोटर अजय सिंह ने राष्ट्रीय एयरलाइन में 100% हिस्सेदारी हासिल करने के लिए अपनी अंतिम बोलियां जमा कर दी हैं। हिस्सेदारी बिक्री में एयर इंडिया एक्सप्रेस लिमिटेड में एयर इंडिया की 100% हिस्सेदारी और एयर इंडिया एसएटीएस (STS) एयरपोर्ट सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड में 50% हिस्सेदारी शामिल है। निवेश और सार्वजनिक संपत्ति प्रबंधन विभाग (DIPAM) के सचिव, तुहिन कांता पांडे ने एक ट्वीट में कहा- “लेन-देन सलाहकार द्वारा एयर इंडिया के विनिवेश के लिए वित्तीय बोलियां प्राप्त कर ली गयी है, प्रक्रिया अब समापन चरण में पहुँच चुकी हैं।
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सरकार ने पिछले वर्ष जनवरी में एयर इंडिया में पूर्ण हिस्सेदारी के लिए ‘’रुचि की अभिव्यक्ति (ईओआई)’’ जमा करने के लिए खरीददारों को आमंत्रित किया था और समय के साथ बोली शर्तों में कुछ बदलाव किए, जिसमें इच्छुक पार्टियों को एयरलाइन के उद्यम मूल्य पर बोली लगाने की अनुमति दी गयी थी, जिसमें ऋण और इक्विटी दोनों के मूल्य शामिल थे। परंतु, सरकार द्वारा बोलियां आमंत्रित करने के तुरंत बाद, Covid19 संकट आ गया था और प्रक्रिया में देरी हो गई थी। इस साल अप्रैल में, केंद्र ने इच्छुक और योग्य खरीददारों का चयन किया और उन्हें अंतिम बोली जमा करने के लिए कहा था।
60,000 से अधिक का है कर्ज
जनवरी 2020 में DIPAM द्वारा जारी ईओआई के अनुसार, 31 मार्च, 2019 तक एयर इंडिया का कुल कर्ज 60,074 करोड़ रुपये था। जो कर्ज निवेशक द्वारा अवशोषित नहीं किया जा सकता है, उसे एयर इंडिया एसेट्स होल्डिंग लिमिटेड के एक Special Purpose Vehicle में स्थानांतरित कर दिया जाएगा। एयर इंडिया 2007 में घरेलू ऑपरेटर इंडियन एयरलाइंस के साथ विलय के बाद से घाटे में है।
एयरलाइन की स्थापना टाटा समूह द्वारा 1932 में की गई थी और 1953 में इसका राष्ट्रीयकरण किया गया था। मुंबई स्थित समूह ने पिछले कई मौकों पर एयरलाइन का अधिग्रहण करने में रुचि दिखाई है।
एयर इंडिया के निजीकरण लगभग एक दशक ही हो जाना चाहिए था, जब मध्यम वर्ग ने उड़ान भरना शुरू किया और ईंधन की लागत में वृद्धि के बावजूद हवाई टिकटों की कीमतें गिरने लगीं। एयर इंडिया जैसी कंपनियां इस धारणा के साथ काम करती थीं कि हवाई यात्रा एक विलासिता है, उपयोगिता नहीं। हालांकि, मध्यम वर्ग की आय में वृद्धि और टिकट की कीमतों में गिरावट के साथ, इंडिगो, स्पाइसजेट, गोएयर जैसे खिलाड़ियों के प्रवेश के बाद से पिछले दशक में हवाई यात्रा लगभग 20 प्रतिशत प्रति वर्ष बढ़ी है।
प्राइवेट प्लेयर्स की अच्छी और सस्ती सर्विस से हुआ था नुकसान
इंडिगो जैसी कंपनियों ने भारतीय हवाई यात्रा क्षेत्र में दो बड़े क्रांतिकारी बदलाव किए। पहला यह था कि उन्होंने ‘अच्छी सेवाओं’ के नाम पर प्रदान किए जाने वाले सभी अनावश्यक खर्चों में कटौती की जिससे टिकटों की कीमत में काफी कमी आई। दूसरा यह कि पटना, कानपुर, लखनऊ, भोपाल, इंदौर, आदि जैसे टियर II और टियर III शहरों के लिए भी उड़ानें शुरू होना था।
एयर इंडिया के प्रबंधक, जो भ्रष्ट और ‘Old School Elitist’ थे, इस अवसर को महसूस नहीं कर पाए जिससे कंपनी को घाटा होना हुआ। इसके अलावा, यूपीए सरकार के दौरान बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार ने कंपनी के वित्तीय स्वास्थ्य को और खराब होने में योगदान दिया और आज यह हर साल अरबों डॉलर का नुकसान झेल रही है।
प्रतिद्वंदिता का प्रारंभ होते ही उपभोक्ता के पास विकल्प का अवसर होता है। यही विकल्प का अवसर उसे सर्वश्रेष्ठ सेवा प्रदाता की ओर उन्मुख करता है। सरकारी विमानन उपक्रम भी इसी समस्याओं से ग्रसित था। इंडिगो स्पाइसजेट विस्तारा और अन्य विमानन कंपनियों द्वारा नए घरेलू मार्गों पर उड्डयन का संचालन एवं बजट विमानों के प्रादुर्भाव ने एयर इंडिया की कमर तोड़ दी। सरकारी निवेशकों की कमी पारंपरिक मार्गों पर उड्डयन और अत्यंत खर्चीला परिवहन होने के कारण एयर इंडिया कभी भी इन निजी विमानन कंपनियों से मुख्यतः इंडिगो से प्रतिद्वंदिता करने में असमर्थ रहे।
हालांकि, भारत सरकार के माध्यम से करदाता के पैसे से चलने के कारण यह बच गया, लेकिन मोदी सरकार प्रशासन के पहले दिन से ही बिल्कुल स्पष्ट थी कि ‘बिजनस करना सरकार का काम नहीं है।’
जब यह पहले कार्यकाल के दौरान एयर इंडिया में सफलतापूर्वक हिस्सेदारी नहीं बेच सकी, तो दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने 2019 में गृह मंत्री अमित शाह की अध्यक्षता में मंत्रियों के एक समूह का पुनर्गठन किया। सरकार ने कर्मचारियों की पदोन्नति और भर्ती पर भी रोक लगा दी है। 10,000 से अधिक कर्मचारियों को रोजगार देने वाली कर्ज में डूबी एयरलाइन आज 60,000 करोड़ से अधिक रुपये के कर्ज के बोझ से दबी है।
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अगर सरकार इस बार कर्ज में डूबी कंपनी को बेचने में सफल हो जाती है तो इससे न सिर्फ हर साल परिचालन खर्च में अरबों डॉलर की बचत होगी बल्कि यह उसकी राजनीतिक अर्थव्यवस्था की दिशा में भी एक बड़ा संदेश होगा।
आजादी के शुरुआती दिनों से ही भारत एक ‘भ्रमित अर्थव्यवस्था’ था। सरकार ने निजी खिलाड़ियों को ‘बड़े उद्योगों’ से बाहर रखा और एकाधिकार के साथ संचालित किया। हालांकि, छोटे उद्योगों को निजी क्षेत्र के लिए खुला रखा गया था। 1991 में, देश ने आर्थिक उदारीकरण शुरू किया और निजी क्षेत्र के लिए बड़े उद्योग खोले, लेकिन पूंजीवाद पक्षपात पर आधारित था और सरकार ‘बाजार समर्थक’ होने से ज्यादा ‘व्यापार समर्थक’ थी। मोदी सरकार ‘न्यू इंडिया’ को नियम आधारित पूंजीवादी अर्थव्यवस्था बनाने की कोशिश कर रही है।