जब देव आनंद ने नेहरू से पूछा – ‘क्या तुमने सच में एडविना को घायल कर दिया है?’

कांग्रेस ने देव आनंद को दिया था ‘युवा कांग्रेस’ को संबोधित करने का आदेश, देव साहब ने कर दिया था मना!

‘मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया,

मैं ज़िंदगी का साथ निभाता चला गया,

हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया,

हर फिक्र को धुएं में उड़ा……’

अपने इसी अल्हड़ व्यक्तित्व के साथ इस गीत में जिस व्यक्ति ने अपने अभिनय से चार चाँद लगाए थे, वे इस गीत की भांति वास्तविक जीवन में भी हर समस्या को तुच्छ मानकर ही चलते थे। कोई इन्हें ‘ग्रेगरी पेक की कॉपी’ कहता तो कोई इन्हें ‘रोमांस का देवता’। बॉलीवुड में अभिनय और रचनात्मकता को एक अलग मंच देने वाले धर्म देवदत्त पिशोरीमल आनंद यूं ही हमारे ‘एवरग्रीन’ देव आनंद के रूप में चर्चित नहीं हुए, उन्हें ये प्रसिद्धि अपनी प्रतिभा और अपने व्यक्तित्व के बल पर कमाई थी। वह देश के उन चंद हस्तियों में से एक थे, जो आवश्यकता पड़ने पर सत्ता में आसीन राजनेताओं को अपनी सीमाएँ लांघने पर यथार्थ का दर्पण दिखाने में संकोच भी नहीं करते थे, चाहे वे जवाहरलाल नेहरू हो या फिर संजय गांधी…

26 सितंबर, यानी आज ही के दिन अविभाजित भारत के शाकरगढ़ तहसील में अधिवक्ता पिशोरीमल आनंद के घर पर धर्म देवदत्त आनंद का जन्म हुआ। वे चार भाइयों में तीसरे थे और उनके ज्येष्ठ भ्राता मनमोहन आनंद अधिवक्ता थे। उनके दूसरे बड़े भाई प्रख्यात फिल्मकार चेतन आनंद थे और उनके कनिष्ठ भ्राता विजय आनंद प्रारंभ में चरित्र अभिनेता, जिन्होंने 1949 में नवकेतन फिल्म्स प्रोडक्शन कंपनी की स्थापना की।

लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में बी ए में स्नातक करने के पश्चात देव आनंद 1940 के दशक में बॉम्बे आ गए। “अछूत कन्या” और “किस्मत” में अभिनेता अशोक कुमार के उत्कृष्ट अभिनय ने उन्हें प्रभावित किया और वे अभिनेता बनने की राह पर अग्रसर हुए। इसी बीच उनका परिचय एक उभरते हुए कलाकार वसंत कुमार शिवशंकर पादुकोण से हुआ। उनके विलक्षण प्रतिभा से प्रभावित होकर देव ने उनसे मित्रता की और ये शपथ ली कि यदि दोनों में से एक भी सफल हुआ, तो वह दूसरे को भी सफल बनाने में सहायता करेगा। यही वसंत कुमार पादुकोण बाद में प्रख्यात फिल्मकार, लेखक और अभिनेता गुरु दत्त के रूप में प्रसिद्ध हुए।

बेधड़क और अल्हड़ थे देव आनंद

देव आनंद ने ‘हम एक हैं’ से अपने फिल्मी करियर का प्रारंभ किया था। उनके आराध्य और बॉम्बे टॉकीज के स्वामी और अभिनेता अशोक कुमार ने देव आनंद को प्रमुख अभिनेता के रुप में पहली बार मौका दिया। उन्हें अपनी आगामी फिल्म “जिद्दी” के लिए एक युवा और प्रभावशाली अभिनेता की तलाश थी। उनकी ये तलाश देव आनंद पर रुकी और उनका प्रयोग बेहद सफल रहा। ‘जिद्दी’ के पश्चात देव आनंद ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और फिर ‘जीत’, ‘बाजी’, ‘सीआईडी’, ‘नौ दो ग्यारह’, ‘काला बाज़ार’, ‘काला पानी’ जैसी अनेक सफल फिल्में दी। 1960 आते-आते हिन्दी फिल्म उद्योग पर तीन अभिनेताओं का वर्चस्व व्याप्त था– राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद। इनमें देव आनंद सबसे अधिक प्रभावशाली एवं सबसे अधिक प्रयोगशील अभिनेताओं में से एक थे, जो हर प्रकार के रोल में फिट होना चाहते थे।

अब प्रश्न ये उठता है– ऐसे प्रभावशाली और ओजस्वी प्रतिभा के धनी अभिनेता से किसी को क्या शत्रुता होगी? देव आनंद ऑन स्क्रीन जितने बेधड़क और अल्हड़ थे, वे ऑफस्क्रीन भी व्यंग्यकला में उतने ही निपुण थे। कई बार तो इन्होंने शालीनता से बड़े-बड़े नेताओं की पोल पट्टी तक खोल दी और उन्हें आयुपर्यंत आभास भी नहीं हुआ। जवाहरलाल नेहरू से बेहतर ये उदाहरण कौन जान सकता है।

जवाहर लाल नेहरु की लगाई थी क्लास

हमारे वामपंथी अक्सर ये रोना रोते हैं कि नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में सरकार बड़ी ‘असहिष्णु’ है, वह कलाकारों का सम्मान नहीं करती। लेकिन असल असहिष्णुता तो नेहरू गांधी परिवार के कार्यकाल में हुआ करती थी, जहां ‘गंगा जमुना’ को रिलीज कराने के लिए दिलीप कुमार को पापड़ बेलने पड़े थे और तत्कालीन रक्षा मंत्री वी के कृष्ण मेनन का अनाधिकारिक प्रचार भी करना पड़ा था।

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ऐसे समय में देव आनंद जैसे व्यक्ति ने 1962 में एक पार्टी के दौरान प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से स्पष्ट तौर पर पूछा था, “क्या सच में आपकी कातिलाना मुस्कान ने लेडी माउंटबैटन का दिल चुरा लिया था?” ये एक ऐसा प्रश्न था, जिस पर नेहरू से न निगलते बना न उगलते और वे अपना सा मुंह लेकर रह गए। बता दें कि भारत के अंतिम वाइसरॉय लॉर्ड माउंटबैटन की पत्नी एडविना समेत कई औरतों के साथ जवाहरलाल नेहरू के अनैतिक संबंध की चर्चाएं थी। जवाहरलाल नेहरू के एडविना से संबंध पर ब्रिटिश वेब सीरीज “द क्राऊन” तक ने चुटकी ली है और ऐसे व्यक्ति से स्पष्ट तौर पर पूछना कि कैसे उन्होंने एडविना को ‘प्रभावित किया’, ऐसे जीवट और बेधड़क व्यक्ति थे देव आनंद।

परंतु देव आनंद के कारनामे यहीं नहीं रुके। अपनी निडरता का एक और बेजोड़ उदाहरण उन्होंने कई वर्षों बाद 1975 में दिया। यह वो समय था, जब देश आपातकाल से गुज़र रहा था और पूरे देश पर तत्कालीन कांग्रेस सरकार का अत्याचारी शासन व्याप्त था। कहने को इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थी परंतु वास्तव में सत्ता की कमान उनके पुत्र संजय गांधी के हाथ में थी। वे चाहते थे कि सरकार की योजनाओं में देश के फिल्मी सितारे भी समर्थन दें चाहे उनकी इच्छा हो या नहीं।

जब कांग्रेस की तानाशाही को स्वीकारने से किया था मना

इसी परिप्रेक्ष्य में देव आनंद को कांग्रेस की ओर से आदेश दिया गया कि उन्हे ‘युवा कांग्रेस’ के अधिवेशन को संबोधित करना है और ये संजय गांधी के इशारों पर हुआ था। परंतु देव आनंद उन लोगों में से नहीं थे जो कांग्रेस की तानाशाही को स्वीकार करते। उन्होंने प्रख्यात गायक किशोर कुमार की भांति स्पष्ट तौर पर संजय गांधी के इस आदेश को स्वीकारने से मना कर दिया। इसके साथ ही वह किशोर कुमार एवं मनोज कुमार समेत वे उन चंद हस्तियों की सूची में शामिल हो गए, जिन्होंने आपातकाल का विरोध किया और अन्य हस्तियों की भांति कांग्रेस सरकार की जी हुज़ूरी नहीं की।

हालांकि, उन्हें इसके दुष्परिणाम भी झेलने पड़े। देव आनंद के फिल्मों की स्क्रीनिंग को दूरदर्शन पर प्रतिबंधित कर दिया गया और ऑल इंडिया रेडियो पर उनसे संबंधित किसी भी प्रकार की गीत या सम्बोधन पर भी ठीक उसी प्रकार प्रतिबंध लगा दिया, जैसे किशोर कुमार के गीतों पर उस समय संजय गांधी के इशारों पर ऑल इंडिया रेडियो ने प्रतिबंध लगाया था। परंतु देव आनंद ने भी हार नहीं मानी और वे तब तक लड़े जब तक आपातकाल समाप्त नहीं हो गया। उन्होंने जनता पार्टी के अधिवेशन में इंदिरा गांधी के विरुद्ध निर्भीकता से भाषण दिया लेकिन वे यहीं तक सीमित नहीं रहे। उन्होंने अपनी स्वयं की राजनीतिक पार्टी का प्रयोग भी किया– नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया। कहीं न कहीं ये प्रयोग तमिलनाडु में प्रसिद्ध सुपरस्टार एम जी रामचंद्रन और तेलुगु सुपरस्टार एन टी रामा राव के सफलतापूर्ण प्रयोग से प्रेरित था। देव आनंद का यह प्रयोग सफल नहीं रहा लेकिन नेहरू-गांधी परिवार के अत्याचारों के विरुद्ध उनके योगदान अपने आप में प्रशंसनीय है।

आज इस अभूतपूर्व अभिनेता के 98वें जन्मदिन पर हम इनके प्रभावशाली व्यक्तित्व को नमन करते हैं और आशा करते हैं कि बॉलीवुड में लोग इनसे प्रेरणा लेकर तुष्टीकरण की राजनीति को बढ़ावा देने वालों से दूरी बनाकर रखें और रचनात्मकता को बढ़ावा दें। देव आनंद की स्मृति में उन्हीं की फिल्म का एक गीत आज भी प्रासंगिक है, ‘अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं!’

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