1967 चो ला का युद्ध: जब भारत ने चीन को ऐसा धोया कि माओ को मुंह छिपाना पड़ गया था

चो ला युद्ध लड़ते भारत के वीर सैनिक

साभार: India Today

कहने को चीन और पाकिस्तान भिन्न देश हैं, भूगोल की दृष्टि से भी, और संस्कृति की दृष्टि से भी। परंतु जब विचारधारा और भारत के प्रति घृणा के दृष्टि से देखें, तो दोनों में अंतर करना असंभव है। एक समय पाकिस्तान भारतीयों को भयभीत करने के लिए एटम बम फोड़ने के नारे लगाता था, तो वहीं चीन भारत को 1962 के युद्ध की पराजय का स्मरण कराता था। हालांकि, जैसे नेपोलियन के लिए वाटरलू तथा हिटलर के लिए स्टालिनग्राड पर हमला करना, उनके जीवन की सबसे बड़ी भूल बनी, वैसे ही चीनी तानाशाह माओ के लिए चो ला पर आक्रमण उनके जीवन की वो भूल थी, जिसके कारण वह कभी भी किसी को मुंह दिखाने योग्य नहीं रहे। ये कथा है चो ला के उस युद्ध की, जिसने सिक्किम की स्वतंत्रता भी सुनिश्चित की, और चीन के घमंड को भी मिट्टी में मिला दिया।

आचार्य चाणक्य ने सही ही कहा था, “जो राष्ट्र शास्त्र पढ़ना छोड़ देता है, वो राष्ट्र समाप्त हो जाता है”, अर्थात जो देश या राष्ट्र अपना इतिहास भूल जाता है, उसका भूगोल स्वत: समाप्त हो जाता है। जो चीन बड़े चाव से हमें 1962 की पराजय का स्मरण कराता है, वो स्वयं 1967 के दो युद्धों के उल्लेख मात्र पर बगलें झाँकने लगता है, जिसने न केवल चीन का घमंड तोड़ा, अपितु उसके क्रूर आक्रांता माओ जेडोंग को कहीं मुंह दिखाने योग्य नहीं छोड़ा।

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1967 से पूर्व सिक्किम एक स्वतंत्र राज्य था, जिसकी सुरक्षा भारत के देखरेख में थी। सिक्किम की राजशाही भारत से वार्तालाप और भारत के विलय के पक्ष में अवश्य थी, परंतु चीन को यह कदापि स्वीकार नहीं था। वह चीन को अरुणाचल प्रदेश की भांति अपना ही हिस्सा मानता था, और उसने कूटनीतिक एवं सैन्य परिप्रेक्ष्य में सिक्किम के राजशाही पर दबाव स्थापित करने का पूरा प्रयास किया।

इसी बीच 1965 में जब भारत पाकिस्तान के बीच युद्ध प्रारंभ हुआ, तो चीन ने पूर्वोत्तर में अतिरिक्त मोर्चा खोलने की धमकी दी थी। उन्होंने तत्काल प्रभाव से जेलेप ला और नाथू ला के दर्रों [Mountain Passes] को खाली करने का ‘आदेश’ भारतीय सेना को दिया, जहां पर उस समय मेजर जनरल सगत सिंह राठौड़ भी तैनात थे। ज़ेलेप ला से भारतीय सेना बिना विरोध हट गई, परंतु नाथू ला की कमान मेजर जनरल सगत सिंह के हाथ में थी, जो भली भांति इस क्षेत्र के रणनीतिक लाभ एवं इसे त्यागने के दूरगामी परिणामों से परिचित थे। उन्होंने अपने वरिष्ठ अफसरों को स्पष्ट कहा कि वे चाहे तो उनका कोर्ट मार्शल करा लें, परंतु वे नाथू ला नहीं छोड़ेंगे।

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ये मेजर जनरल सगत सिंह के कुशल नेतृत्व का ही परिणाम था कि भारत ने न केवल नाथू ला में अपना मोर्चा बनाए रखा, अपितु चीन को मुंहतोड़ जवाब भी दिया। 11 सितंबर 1967 को अंतर्राष्ट्रीय सीमा को लेकर भारतीय सेना ने एक निश्चित सीमारेखा खींचने का निर्णय किया, परंतु चीन इसके पक्ष में नहीं था। इसके बाद भी मेजर जनरल सगत के आदेश पर नाथु ला सेक्टर में 11 सितम्बर 1967 को तारबंदी शुरू किया गया। चीनी सेना बगैर किसी चेतावनी के जोरदार फायरिंग करने लगी। तब भारतीय सैनिक खुले में खड़े थे, ऐसे में बड़ी संख्या में सैनिक हताहत हो गए। इसके बाद जनरल सगत ने नीचे से तोपों को ऊपर मंगाया। उस समय तोप से गोलाबारी करने का आदेश सिर्फ प्रधानमंत्री ही दे सकता था। दिल्ली से कोई आदेश नहीं मिलता देख जनरल सगत ने तोपों के मुंह खोलने का आदेश दे दिया। इसे लेकर काफी हंगामा मचा, लेकिन चीनी सेना पर इस जीत ने भारतीय सैनिकों के मन में वर्ष 1962 से समाए भय को बाहर निकाल दिया।

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परंतु ये युद्ध कथा वहीं पर खत्म नहीं हुई थी। नाथू ला से कुछ ही किलोमीटर दूर एक और क्षेत्र है, चो ला जहां पर चीन और भारत के बीच आए दिन हिंसक झड़प होती रहती थी। यहाँ पर जम्मू कश्मीर राइफल्स की 10 वीं बटालियन यूनिट पहले से ही तैनात थी, जिन्हें ड्यूटी से रिलीव करने हेतु 7/11 गोरखा राइफल्स की बटालियन मेजर कुलभूषण जोशी के नेतृत्व में वहाँ पहुंची थी। छँगु बेस कैंप में दोनों बटालियन का वार्तालाप 1 अक्टूबर को तय था, और मूलभूत सुरक्षा के लिए 20 लोग चो ला पर तैनात रहने थे।

चो ला के युद्ध का मूल कारण सीमा रेखा पर स्थित एक पत्थर था, जो करीब 30 इंच यानि लगभग 2.5 फुट ऊंचा था।  भारतीयों  के लिए वह पत्थर सीमारेखा का हिस्सा माना जाता था, जबकि चीनियों के लिए वह पत्थर उनके भूमि का ही हिस्सा था। इसी बीच 1 अक्टूबर को नायब सूबेदार ज्ञान बहादुर लिम्बू ने जाने अनजाने में अपना पैर उसी पत्थर पर रख दिया। चीनी सैनिकों ने इस पर आपत्ति जताई और ज्ञान बहादुर से आपत्तिजनक भाषा में बात करने लगे। इतने में एक चीनी सैनिक ने ज्ञानबहादुर पर वार किया।

गोरखा सिपाहियों से अपने वरिष्ठ अफसर का अपमान नहीं देखा गया, और उनके साथ उपस्थित एक सिपाही ने उन पर आक्रमण करने वाले सिपाही का हाथ ही अपनी खुखरी से काट डाला। इसके पश्चात गोलियों की बौछार हुई, और हर ओर से बम गोले बरसने लगे, और ‘जय महाकाली आयो गोरखाली’ के सिंहनाद के साथ गोरखा वीर चीनी सैनिकों पर रुद्रगण के समान टूट पड़े। स्थिति बिगड़ते देख हवलदार देबी प्रसाद लिम्बू ने अद्भुत पराक्रम का परिचय दिखाया और कई चीनी सैनिकों को स्वत: ही धराशायी किया, परंतु युद्ध में वे वीरगति को प्राप्त हुए। उन्हें उनके शौर्य के लिए मरणोपरांत वीर चक्र से पुरस्कृत किया गया।

दूसरी ओर चो ला क्षेत्र में पॉइंट 15,450 पर जब चीनियों ने नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास किया, तो युवा अफसर लेफ्टिनेंट राम सिंह राठौर अकेले ही कई चीनियों से भिड़ गए। वे कई बार घायल हुए, परंतु उन्होंने अपने घावों के बारे में न सोचते हुए चीनियों को बाहर खदेड़ते रहे। अंत में वे भी वीरगति को प्राप्त हुए, परंतु RCL विशेषज्ञ हवलदार टिनजोंग लामा ने शत्रुओं पर गोलाबारी जारी रखी, जिसके लिए उन्हें बाद में वीर चक्र से सम्मानित भी किया गया।

इन सैनिकों का शौर्य व्यर्थ नहीं गया। पॉइंट 15,450 को पुनः भारत को वापिस दिलाने के लिए गोरखा राइफल्स और जम्मू एंड कश्मीर राइफल्स की संयुक्त टुकड़ी ने रात को धावा बोला। अद्भुत साहस का परिचय देते हुए उन्होंने लेफ्टिनेंट कर्नल महातम सिंह के नेतृत्व में पॉइंट 15450 पर पुनः नियंत्रण प्राप्त किया और चीनियों को अंतर्राष्ट्रीय सीमा से तीन किलोमीटर पीछे खदेड़ दिया। आज स्थिति यह है कि चीनी और कहीं से भी धावा बोल दे, परंतु चो ला का नाम सुनते ही उनके हलक सूख जाते हैं। लेफ्टिनेंट कर्नल महातम सिंह को उनके शौर्य के लिए भारत के दूसरे सर्वोच्च युद्ध सम्मान, महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।

चो ला के युद्ध में चीन की पराजय ऐसे समय पर हुई, जब माओ ज़ेडोंग अपने शक्ति के शिखर पर थे। उनका देश एक ऐसे देश से पराजित हुआ, जो सैन्य शक्ति की ‘दृष्टि’ से उनसे ‘दुर्बल’ था, और इस कारण से आज भी चीन 1967 के युद्ध में बात करने से हिचकता है। पर ये हमारे देश का दुर्भाग्य है, कि जिस युद्ध का शौर्य इस देश के हर बालक को 1971 की भांति कंठस्थ होना चाहिए था, जिस चो ला के विजय के बारे में देश के हर नागरिक को परिचित होना चाहिए, वो आज भी उससे अनभिज्ञ हैं। हम आशा करते हैं कि हमारे प्रयासों से ऐसे युद्ध और ऐसे वीरों की वीर गाथा से पूरा देश परिचित हो, और उनके शौर्य को सभी नमन करें!

वन्दे मातरम!

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