हर चमकने वाली चीज सोना नहीं होती, बाहर से जो आकर्षक लगता है, जरुरी नहीं कि अंदर से वह बेहतर हो और आपको पसंद आए। एक साधारण निजी कॉलेज के इंजीनियर इस बात को ज्यादा अच्छे से समझ सकते हैं। जब वो बड़ी कंपनियों या ‘मास रिक्रूटर’ कंपनियों में नियुक्त होते हैं तो उन्हें लगता है कि उनका संघर्ष रंग लाया, लेकिन जब वे इन कंपनियों से जुड़ते हैं, तो उन्हें असलियत समझ में आती है। उन्हें पता चलता है कि इंजीनियरिंग के नाम पर उनका जो चयन हुआ है वह किसी कॉरपोरेट में बैठकर जी हुजूरी करना है और तय व्यवस्था पर काम करना है। उन्हें कुछ नया खोज करने या किसी भी चीज को विकसित करने की स्वतंत्रता नहीं होती। भारत के इंजीनियर इसके सबसे बड़े उदाहरणों में से एक हैं।
इंजीनियर्स को नहीं होती काम करने की स्वतंत्रता
जुलाई 2020 के आंकड़ो के मुताबिक भारत में हर साल लगभग 15 लाख इंजीनियर कॉलेजों से डिग्री लेकर निकलते हैं। इतने इंजीनियर अमेरिका और चीन मिल कर भी पैदा नहीं करते हैं। भारत के इन इंजीनियरों की संख्या आइसलैंड की कुल आबादी से भी दुगुनी है। रिपोर्ट के अनुसार 3.84 प्रतिशत इंजीनियरों के पास स्टार्ट-अप में सॉफ्टवेयर से सम्बंधित नौकरियों के लिये आवश्यक तकनीकी, संज्ञानात्मक और भाषाई स्किल होती है, जबकि मात्र 3 प्रतिशत इंजीनियरों के पास उन क्षेत्रों में नये-पुराने तकनीकी कौशल की जानकारी होती है, जो अब फलफूल रहे हैं।
मास रिक्रूटमेंट
इस साल भारत में टेक कम्पनियों द्वारा फिर से मास रिक्रूटमेंट होगा। HCL टेक अब इस वित्त वर्ष में 30,000 फ्रेशर्स को नियुक्त करने पर विचार कर रही है, वहीं विप्रो ने कहा कि कंपनी इस साल रिकॉर्ड 30,000 फ्रेशर्स को ऑफर लेटर देगी। इंफोसिस ने 13 अक्टूबर को कहा कि उसने साल के लिए अपने नए भर्ती कार्यक्रम को बढ़ाकर 45,000 कर दिया है। शीर्ष चार भारतीय आईटी फर्मों ने वित्त वर्ष 22 में 1.1 लाख फ्रेशर्स को नियुक्त करने की योजना बनाई है। यूएस की आईटी कम्पनी कॉग्निजेंट 2021 में 30,000 फ्रेशर्स की भर्ती करेगा।
अगले साल यह संख्या और बढ़ेगी। एचसीएल टेक और विप्रो प्रत्येक वर्ष 30,000 लोगों को नियुक्त करेंगे, जो पिछले साल की तुलना में 30 प्रतिशत अधिक होगी।
इससे भी डरावना आंकड़ा यह है कि खोज करने के मामलें में हमारा देश 46वें स्थान पर है। विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (डब्ल्यूआईपीओ) द्वारा तैयार किए गए ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स (जीआईआई) 2021 में भारत दो पायदान ऊपर चढ़कर 46वें स्थान पर पहुंचा है। साल 2015 में इस क्षेत्र में हमारा देश 81वें स्थान पर था। हालांकि, देश में विकास हो रहा है, नए-नए खोज हो रहे हैं, ऐसे में आने वाले कुछ सालों में इस रैंकिंग में और ज्यादा सुधार होने की उम्मीद है।
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सवाल यह है कि दुनिया में सबसे ज्यादा इंजीनियर देने वाले देश की बेकार रैंकिंग क्यों है? क्यों नई चीजों, तकनीकों को खोजने में देश विफल रहा है? आइए इसको समझने के लिए एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर का उदाहरण लेते हैं। विकिपीडिया की सामान्य परिभाषा के अनुसार, ‘एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर वह व्यक्ति होता है जो कंप्यूटर सॉफ्टवेयर के डिजाइन, विकास, रखरखाव, परीक्षण और मूल्यांकन के लिए सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग के सिद्धांतों को लागू करता है।’ लेकिन अगर आप सॉफ्टवेयर डेवलपर्स से पूछें कि वे वास्तव में क्या करते हैं और उनके बॉस उनसे क्या चाहते हैं? तो आप देखेंगे कि वास्तविकता काफी अलग है। भारत में ज्यादातर सॉफ्टवेयर इंजीनियरों का काम केवल कॉपी पेस्ट करना होता है क्योंकि उन्हें काम करने की स्वतंत्रता नहीं होती, उन्हें सिर्फ डेस्क तक सीमित कर दिया जाता है।
बड़ी कंपनियों में टैलेंट की नहीं होती कद्र
अब रिक्रूटमेंट का सीजन आने वाला है। तमाम फ्रेशर्स अपनी किस्मत आजमाएंगे, कुछ लोगों का कैंपस सेलेक्शन होगा और वह बड़ी कंपनियों के साथ जुड़ जाएंगे लेकिन शेष लोगों की मुश्किलें बढ़ जाती हैं। कुछ लोग अच्छी कंपनियों से जुड़ जाते हैं, तो कुछ लोगों को विकल्प के अभाव में औसत वेतन पर किसी अन्य क्षेत्र की कंपनियों से जुड़ना पड़ता है। नौकरियों के लिए लगातार बढ़ती प्रतिस्पर्धा, उम्मीदवारों के लिए अपने सपनों की कंपनियों में प्रवेश करना बहुत मुश्किल बना देती है।
हालांकि, बड़े पैमाने पर भर्ती करने वाली कंपनियां अक्सर बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां होती हैं जैसे कि विप्रो, एक्सेंचर, इंफोसिस आदि लेकिन ऐसे इंजीनियर्स इन कंपनियों के विकास में सीधे योगदान नहीं दे रहे हैं। बड़े-बड़े ख्वाब देखकर इंजीनियरिंग को अपना करियर चुनने वाले टैलेंटेड लोगों की स्थिति ऐसी कंपनियों में जाकर क्लर्क की भांति हो जाती है। उनका टैलेंट धरा रह जाता है, कोई उन्हें पूछता तक नहीं।
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दरअसल, कंपनियां सभी प्रकार के इंजीनियरों को लेती है क्योंकि वे सामान्य स्नातकों से बेहतर होते हैं और उन्हें कोडिंग की समझ होती है। उम्मीदवारों को लगता है कि उनके पास एक बेहतरीन नौकरी है लेकिन जल्द ही कई लोगों के शामिल होने के बाद पता चलता है कि यह वह चीज नहीं है जो वह करना चाहते थे।
टीसीएस, इंफोसिस, विप्रो, एक्सेंटिया, कॉग्निजेंट जैसी तमाम कंपनियां बड़े पैमाने पर रोजगार प्रदान करती हैं जो स्वागत योग्य भी है लेकिन इस चीज के लिए इन कंपनियों की निंदा होनी चाहिए कि वह प्रतिभाओं के साथ समझौता, जिससे इंजीनियरों की गुणवत्ता प्रभावित होती है।