‘Net Zero Emissions’ पर दादागिरी कर रहे पश्चिमी देशों की पीएम मोदी ने लगाई जबरदस्त क्लास

दुनिया को साझा तौर पर तैयार करना होगा रोडमैप!

शून्य कार्बन उत्सर्जन

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17वीं-18वीं शताब्दी में अपना विकास करने के बाद अब पश्चिमी देश भारत से कुंठित हैं, क्योंकि भारत अब धीरे-धीरे विकासशील से विकसित होने की ओर तेजी से कदम बढ़ाते दिख रहा है। आर्थिक मोर्चे पर भारत की ये स्थिति उन देशों को भी चुभ रही है, जिन्होंने विकास के नाम पर पर्यावरण का सर्वाधिक दोहन किया है। इसके विपरीत भारत को यही पश्चिमी देश, अब शून्य कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को लेकर लेक्चर दे रहे हैं। ऐसे में अब पीएम मोदी ने स्पष्ट तौर पर कह दिया है कि भारत शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य रखा वाला नहीं है, जो कि अन्य पश्चिमी देशों के लिए किसी झटके की तरह ही है। भारत का कहना है कि कार्बन उत्सर्जन को कम करने लिए दुनिया को साझा तौर पर एक रोडमैप तैयार करना होगा, सबकुछ भारत पर थोपा जाना गलत होगा।

भारत ने दिखाई आक्रामकता

खबरों के मुताबिक हाल ही में अमेरिका, ब्रिटेन, चीन, सऊदी अरब जैसे देशों ने कार्बन उत्सर्जन को शून्य करने के लिए एक डेडलाइन तय किया है। ये फैसला तब सामने आया है, जब जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर इसी हफ्ते से शुरू हो रहे COP-26 सम्मेलन (कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज) ग्लास्गो में होने वाला है। ऐसे में ये सभी देश अपने फैसले से भारत पर भी दबाव बनाने की कोशिश कर रहे थे। इसके विपरीत भारत सरकार ने इन सभी उम्मीदों के परखच्चे उड़ा दिए हैं। द हिन्दू की एक रिपोर्ट बताती है कि भारत ने बुधवार को शुद्ध शून्य कार्बन उत्सर्जन लक्ष्य की घोषणा करने के आह्वान को खारिज कर दिया और कहा कि दुनिया के लिए इस तरह के उत्सर्जन को कम करने के साथ ही वैश्विक तापमान में खतरनाक वृद्धि को रोकने के लिए एक साझा मार्ग बनाना होगा।

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शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य नहीं है समाधान

भारत पर जलवायु परिवर्तन को लेकर सर्वाधिक आरोप थोपने के प्रयास किए जाते रहे हैं। इसको लेकर जलवायु परिवर्तन संबंधित बैठक से पहले पर्यावरण सचिव रामेश्वर प्रसाद गुप्ता ने शून्य उत्सर्जन लक्ष्य को पूर्णतः खारिज कर दिया है। उन्होंने भारत का पक्ष रखते हुए कहा, यह अधिक महत्वपूर्ण है कि आप शुद्ध शून्य तक पहुंचने से पहले वातावरण में कितना कार्बन डालने जा रहे हैं। वहीं, इस मामले में आलोचकों का कहना है, चीन और सऊदी अरब दोनों ने 2060 के लक्ष्य निर्धारित किए हैं, लेकिन ये अब ठोस कार्रवाई के बिना काफी हद तक अर्थहीन हैं।

आरपी गुप्ता ने इस मुद्दे पर कहा, “इस सदी के मध्य तक, संयुक्त राज्य अमेरिका की ओर से वातावरण में 92 गीगाटन कार्बन और यूरोपीय संघ की ओर से 62 गीगाटन कार्बन छोड़ा जाएगा। वहीं, चीन की ओर से यह आंकड़ा 450 गीगाटन जोड़ा होगा। भारत सरकार का कहना है कि देश का कार्बन उत्सर्जन विकसित देशों के मुकाबले जनसंख्या के अनुपात में सर्वाधिक कम होगा।

जारी हैं भारत के प्रयास

जानकारी के मुताबिक भारत ने अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के स्तर से 2030 तक 33% से 35% तक कम करने के लिए प्रतिबद्ध किया है, जो 2016 तक 24% की कमी को प्राप्त कर चुका है। कुछ पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि भारत अपनी उत्सर्जन तीव्रता को वित्त पर निर्भर 40 प्रतिशत तक कम करने पर विचार कर सकता है। वहीं, केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव ने कहा कि वो ग्लासको सम्मेलन की सफलता को इस बात से मापेंगे कि इस सम्मेलन ने आर्थिक विकास को सुनिश्चित करते हुए विकासशील देशों को अपने उत्सर्जन में कटौती करने में और इस संबंध में मदद करने के लिए जलवायु वित्त पर कितना योगदान दिया है।

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आक्रामक है भारत का रुख़

भारत का रुख जलवायु परिवर्तन को लेकर पहले ही वैश्विक स्तर पर आक्रामकता का पर्याय बन गया है। भारत सीधे तौर पर कह चुका है कि विकसित देशों के कारण कार्बन उत्सर्जन से जितना नुकसान विकासशील देशों को हुआ है, उसकी भरपाई 2009 के करार के अनुसार विकसित देशों को देनी चाहिए, जिसकी कीमत $100 अरब से भी ज्यादा है। ऐसे में एक तरफ भारत विकसित देशों से हर्जाने की मांग कर रहा है, तो दूसरी ओर अब ये संकेत भी दे रहा है कि पश्चिमी देश शून्य कार्बन उत्सर्जन के मुद्दे पर भारत को किसी भी प्रकार का ज्ञान ना दें, क्योंकि आज भी अमेरिका और चीन जैसे देशों में भारत की अपेक्षा सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन होता है।

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