दक्षिण अफ्रीका को कभी रंगभेद के कारण क्रिकेट से दूर रखा गया, अब दक्षिण अफ्रीका में श्वेत विरोधी रंगभेद की लहर है

दक्षिण अफ्रीका क्रिकेट

कुछ के लिए, यह एक खेल है; तो अधिकांश के लिए, यह एक धर्म है। हम बात कर रहे हैं क्रिकेट की, जो फुटबॉल के बाद ही दुनिया का सबसे ज्यादा देखा जाने वाला खेल है। स्वाभाविक रूप से एक जैंटलमैन का खेल माना जाने वाला क्रिकेट राजनीति से दूर रहा है। हालांकि, अब इस खेल में राजनीतिक मुद्दों ने जगह बना ली है और यह अब प्रोपेगेंडा का आखाडा बन रहा है जिसका नमूना हमें विश्व कप टी20 में देखने को मिल रहा है। जब से भारत पाकिस्तान के खिलाफ अपना पहला विश्वकप मुक़ाबला हार गया तब से दो मुद्दों की सबसे अधिक चर्चा है। पहला पाकिस्तानी खिलाड़ियों की जिहादी मानसिकता और दूसरा Taking Knee का मुद्दा। अब इसी मुद्दे पर दक्षिण अफ्रीका क्रिकेट में भूचाल आया हुआ है।

पहले जब Quinton Decock ने BLM के लिए घुटने न टेकने का फैसला किया तब उन्हें टीम से बाहर कर दिया गया। अब उनसे माफी भी मँगवाई गयी है। Quinton Decock द्वारा आरंभ किए गए इस आंदोलन में अन्य क्रिकेटर भी सामने आने लगे हैं जिनके साथ CSA ने अन्याय किया। डी कॉक के बाद, एक और दक्षिण अफ्रीकी स्टार क्रिस मॉरिस ने इस तरह के राजनीतिक मुद्दों से स्वयं को दूर रखने का फैसला किया है और कहा है कि अब दक्षिण अफ्रीका के लिए उनके खेलने के दिन पूरे हो गए हैं। रंगभेद को लेकर दक्षिण अफ्रीका पर बैन लग चुका है , अब लगता है कि इस बार दक्षिण अफ्रीका में श्वेत-विरोधी रंगभेद आरंभ हो चुका है।

दरअसल, कभी जैक कैलिस का स्थान भरने के दावेदार माने जाने वाले साउथ अफ्रीका के ऑलराउंडर क्रिस मॉरिस को आईसीसी टी-20 विश्व कप के लिए साउथ अफ्रीक की टीम में शामिल नहीं किया गया था। अब मॉरिस ने कहा है कि क्रिकेट साउथ अफ्रीका (सीएसए) को भी पता है कि वे दोबारा टीम के लिए नहीं खेलना चाहते। क्रिस मॉरिस ने स्पोर्ट्सकीड़ा से कहा, “साउथ अफ्रीका के साथ खेलने वाले मेरे दिन खत्म हो चुके हैं। मैं उनमें से नहीं हूं जो संन्यास की घोषणा करते हैं। मुझे पता है कि मैं कहां खड़ा हूं लेकिन CSA के साथ मेरे दिन खत्म हो चुके हैं, मुझे लगता है कि उन्हें ये पता है।”

 मॉरिस एक बड़े आईपीएल स्टार रहे हैं, लेकिन दक्षिण अफ्रीकी टीम में कोटा प्रणाली के कारण, उन्हें प्रभावी रूप से एक टी 20 फ्रीलांसर बनने के लिए मजबूर होना पड़ा, जो कि उनके लिए आर्थिक रूप से अधिक लाभदायक साबित हुआ। इसी तरह अन्य खिलाड़ी भी है जिन्हें इन्हीं नीतियों के कारण दक्षिण अफ्रीका की टीम छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। एक समय में रंगभेद के कारण दक्षिण अफ्रीका क्रिकेट से बैन हो चुका है, और अब फिर से इसी नीति का पालन किया जा रहा है; लेकिन अंतर इतना है कि इस बार ये Whites के साथ किया जा रहा है। पहले ही टीम चयन में प्रतिस्पर्धा और प्रतिभा के ऊपर कोटा को तरजीह देना और अब घुटने न टेकने के लिए डी कॉक को टीम से ही बाहर कर देना दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट में बढ़ते ऐक्टिविजम को ही दिखाता है।

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देखा जाए तो क्रिकेट ने न सिर्फ खिलाड़ियों को बल्कि कई देशों को भी वैश्विक स्तर पर पहचान दी है। डॉन ब्रैडमैन से लेकर डेनिस लिली तक और श्रीलंका से लेकर वेस्ट इंडीज तक ने क्रिकेट से नाम कमाया है। क्रिकेट से पहले वेस्टइंडीज के द्वीपों को कोई जनता भी नहीं था। वेस्टइंडीज क्रिकेट टीम आज 15 छोटे कैरेबियाई देशों का प्रतिनिधित्व करती है, जिसने अपनी प्रतिभा से कई कीर्तिमान रचे हैं।  परंतु इस खेल ने न सिर्फ कैरेबियाई देशों को एक किया, बल्कि एक अंतरराष्ट्रीय पहचान भी दिलाई। वहीं, भारत आज क्रिकेट में सबसे बड़ी शक्ति है चाहे वो दर्शकों की संख्या हो या प्रतिभा हो, या आर्थिक मजबूती। इसी तरह दक्षिण अफ्रीका भी क्रिकेट में अपनी पहचान बना चुका था।

क्रिकेट एक Gentleman का खेल माना जाता है तथा इसमें किसी भी प्रकार के नॉनसेंस को स्वीकार नहीं किया जाता था। उदाहरण – जब दक्षिण अफ्रीका में blacks के साथ रंगभेद नीति अपने उफान पर थी तब ICC ने इसी नस्लीय भेदभाव के लिए दक्षिण अफ्रीका को बैन कर दिया था। आईसीसी के भीतर, गैर-श्वेत सदस्यों, विशेष रूप से भारत ने दक्षिण अफ्रीका में अपने स्वयं के प्रवासी भेदभाव का विरोध किया, जिसमें रंगभेद की नीतियां भी शामिल थीं। हालात इतने खराब थे कि जो भी टीम गैर-श्वेतों को मैदान में उतारती थी, दक्षिण अफ्रीका उनके साथ क्रिकेट ही नहीं खेलता था। यही कारण है कि 1970 में, ICC ने दक्षिण अफ्रीका को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त क्रिकेट में भाग लेने से प्रतिबंधित कर दिया।

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यह निर्णय, यकीनन तब लिया गया था जब दक्षिण अफ्रीका दुनिया की सबसे मजबूत टीमों में से एक थी। उस टीम में ग्रीम पोलक, बैरी रिचर्ड्स और माइक प्रॉक्टर जैसे बेहद प्रतिभाशाली खिलाड़ियों की मौजूदगी थी। कई होनहार खिलाड़ी क्रिकेट खेलने अन्य देश चले गए, जबकि अन्य ने कभी टेस्ट क्रिकेट नहीं खेला।

सबसे ध्यान देने वाली बात यह थी उस दौरान दक्षिण अफ्रीका पर बैन के लिए भारत के अलावा इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने दक्षिण अफ्रीका में Blacks के साथ होने वाले नस्लभेद के खिलाफ आवाज उठाई थी और प्रतिबंध की मांग की थी। क्रिकेट कभी भी राजनीतिक मुद्दों का अड्डा नहीं रहा और न इसमें लाने की कोशिश की गयी। हालांकि, ‘BLM आंदोलन’ का मुद्दा देखा जाए तो यह वास्तविक रूप से एक अमेरिकन मुद्दा है, जिसका मकसद सामाजिक समरसता बढ़ाना नहीं, बल्कि डेमोक्रेट्स का चुनाव जीतना था। जब डेमोक्रेट्स चुनाव जीत गए तो उन्होंने BLM को धीरे-धीरे सॉफ्ट पावर में तब्दील कर दिया और ये विश्व के सभी प्रमुख संस्थानों तक पहुँच बना चुका है। फुटबॉल के बाद धीरे धीरे इसने क्रिकेट में भी अपनी पकड़ बना ली और आज टी20 विश्वकप में इसी का नमूना देखने को मिल रहा है। जब भारतीय टीम ने BLM के लिए घुटने टेके तो उसका कडा विरोध होना तय था क्योंकि इस मुद्दे का भारत से कोई लेना देना नहीं था बावजूद इसके क्रिकेट के मैदान को राजनीतिक मुद्दे के लिए इस्तेमाल किया गया। पाकिस्तान के खिलाफ मैच से पहले घुटने पर बैठी टीम इंडिया की तस्वीर जैसे ही सामने आई भारतीयों ने जमकर BCCI सहित टीम को लताड़ा।

हालांकि, अगर दक्षिण अफ्रीका की बात करें तो वहाँ चीजें थोड़ी भिन्न है। दक्षिण अफ्रीकी टीम के चयन में कोटा सिस्टम लागू होता है जो प्रतिभाशाली श्वेत खिलाड़ियों के चयन में सबसे बड़ी समस्या बन जाता है। वास्तव में, नस्लवाद धीरे-धीरे और निश्चित रूप से वापस आ रहा है। आज फर्क सिर्फ इतना है कि गोरे लोग recieving end पर हैं। ‘रिवर्स-नस्लवाद’ या ऐसी स्थिति, जहां गोरों के साथ अश्वेतों के हाथों भेदभाव किया जाता है, और इसने दक्षिण अफ्रीका में आज के क्रिकेट को त्रस्त कर दिया है। आज के दक्षिण अफ्रीकी समाज में गोरे अछूत हो गए हैं, जिससे गोरों के लिए राष्ट्रीय क्रिकेट टीम में सीट सुरक्षित करना कठिन हो गया है। कोटा प्रणाली शुरू होने के कारण प्रतिभाशाली श्वेत खिलाड़ी बेहतर अवसरों के लिए विदेश जाने के लिए मजबूर हो जाते हैं। उदाहरण के लिए, केविन पीटरसन, 19 साल की उम्र में अवसर तलाशने के लिए इंग्लैंड चले गए थे। इसी तरह, जैक्स रुडोल्फ, काइल एबॉट, मोर्ने मोर्कल और अन्य जैसे विश्व स्तरीय खिलाड़ियों ने दक्षिण अफ्रीका को छोड़ दिया है।

अब अगर उन्हीं white खिलाड़ियों को BLM के लिए घुटने टेकने के लिए कहा जाए तो यह वैसा हो होगा कि अफ़ग़ानिस्तान में सिखों को कहा जाए कि आप तालिबानियों के लिए घुटनों पर आ जाए और अपनी सहानुभूति दिखाये। डी कॉक बेहतरीन क्रिकेट खिलाड़ियों में शुमार किए जाते हैं लेकिन उन्हें जबर्दस्ती घुटने पर जाने के लिए कहा गया और जब उन्होंने ऐसा करने से माना कर दिया तो उन्हे टीम से ही निकाल दिया गया। यानी CSA ऐसे किसी खिलाड़ी को टीम में नहीं रखना चाहता है जो उसके राजनीतिक पक्ष का समर्थन न करता हो। समान्यतः कोई भी खिलाड़ी ऐसी मनमानियों के सामने घुटने टेक देगा लेकिन एक सीमित समय तक ही। कभी न कभी उसका गुस्सा सामने आएगा और डी कॉक के साथ यही हुआ। अगर यह कहा जाये कि अन्य खिलाड़ी भी अब इसी पदचिन्ह पर चल सकते हैं तो गलत नहीं होगा।

दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट टीम में श्वेत खिलाड़ियों की आज की दुर्दशा को देखते हुए, आदर्श रूप से, अश्वेत खिलाड़ियों को श्वेत खिलाड़ियों के समर्थन में “घुटने टेकने” के लिए कहा जाना चाहिए था। लेकिन एक दक्षिण अफ्रीकी श्वेत खिलाड़ी को बीएलएम आंदोलन का समर्थन करने के लिए कहना उसके घावों पर नमक छिड़कने जैसा है।

 दरअसल, क्रिकेट जैसे खेल में बीएलएम जैसे आंदोलन के लिए कोई जगह नहीं है। यह सभी देश जितनी जल्दी समझ लें उतना ही बेहतर होगा नहीं, तो उनके देश के क्रिकेट को भी दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट जैसा बर्बाद होने में समय नहीं लगेगा।

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