आम लोग धर्म और समाज को मानते हैं पर कुछ लोगों को ‘धर्म और समाज’ मानने लगता है। ऐसे लोग समाज की थाती और पीढ़ियों के लिए सीख बन जाते है, धर्म की धुरी और आधारशिला बन जाते है। ऐसे ही एक धर्मधुरंधर है स्वामी रामतीर्थ, जिन्हें सनातन संस्कृति ने शिखर स्थान तो दिया लेकिन आधुनिकता की अंधी दौड़ ने उन्हें युवाओं के स्मृति पटल से विस्मृत कर दिया। धर्म ध्वजा को थामें स्वामी रामतीर्थ स्वयं में सनातन के ‘तीर्थ’ हो गए। आइये, हम उनका जीवन दर्शन करें जो स्वयं में तीर्थाटन स्वरूप है…
स्वामी रामतीर्थ का जीवन परिचय
स्वामी रामतीर्थ का जन्म सन् 1873 में भारत के पंजाब के गुजरांवाला जिले के एक गांव मुरारीवाला में हुआ था। स्वामी रामतीर्थ गोसाईं तुलसीदास के वंशज थे, जिन्हें पहले गोसाईं रामतीर्थ के नाम से जाना जाता था। बचपन में ही उनकी मां का निधन हो गया और उनका पालन-पोषण उनके बड़े भाई गोसाईं गुरुदास ने किया। रामतीर्थ मुश्किल से दस साल के थे, जब उनके पिता ने उनकी शादी कर दी और अपने मित्र भक्त धनराम की देखरेख में छोड़ दिया।
रामतीर्थ एक बहुत ही मेधावी छात्र थे। वो असामान्य बुद्धि, चिंतनशील प्रकृति, गणित और एकांत-प्रेमी थे। उन्होंने बीए परीक्षा में शीर्ष स्थान हासिल किया और गणित में एम.ए. की डिग्री ली। गणित विषय में वो असाधारण प्रतिभा के धनी थे। अपने इसी प्रतिभा के बल पर रामतीर्थ दो साल के लिए लाहौर के फोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज में गणित के प्रोफेसर भी बने।
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उस दौरान की उनकी उदारता, करुणा और कृतज्ञता की एक बड़ी मनभावन घटना प्रचलित है। जब वो लाहौर में बीए की पढ़ाई कर रहे थे तब उनके पास शुल्क जमा करने के लिए 5 रुपये कम थे। एक चाय वाले ने उनकी मदद की। फिर जब रामतीर्थ क्रिश्चियन कॉलेज में गणित के प्रोफेसर बनें, तब अपने वेतन में से प्रति माह 5 रुपये का भुगतान उस चायवाले को करने लगे। चाय वाले के मना करने पर उन्होंने इस राशि को उपकार और कृतज्ञता स्वरूप प्रेम भेंट बताया। उन्होंने लाहौर ओरिएंटल कॉलेज में थोड़े समय के लिए एक पाठक के रूप में भी काम किया।
विदेशियों को कराया वेदांत का परिचय
सन् 1900 में रामतीर्थ ने वनगमन किया और संन्यासी बनें। उन्होंने रावी नदी के तट पर योगाभ्यास किया, जिसके पश्चात वो ऋषिकेश से पाँच मील दूर गंगा नदी के तट पर ब्रह्मपुरी के जंगलों में रहें और ज्ञान प्राप्त किया। रामतीर्थ ने स्वामी विवेकानंद की मृत्यु के 3 दिन पूर्व ही संन्यास को आत्मसात किया। वह अमेरिका और जापान भी गए, जहां उन्होंने अपने प्रेरक और तार्किक भाषणों से अमेरिकियों और जापानियों को वेदांत का परिचय कराया। उन्होंने डॉ अल्बर्ट हिलर के आतिथ्य में सैन फ्रांसिस्को में लगभग डेढ़ साल बिताया। उन्होंने हर्मेटिक ब्रदरहुड नामक संस्था भी शुरू की, जो वेदांत के अध्ययन के लिए समर्पित था। अमेरिकी तो उन्हें जीवित ईसा मसीह तक कहने लगे थे। वहीं, मिस्र के मुसलमानों द्वारा उनका हार्दिक स्वागत किया गया, जहां उन्होंने उनकी मस्जिद में फारसी में व्याख्यान दिया। दिव्य तेज और आनंद से जगमगाते नेत्रों से रामतीर्थ सदा हर्षित और तेजस्वी थे। वह फारसी, अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू और संस्कृत साहित्य में पूरी तरह से पारंगत थे।
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युवाओं के प्रेरणास्रोत
दुनिया में ऐसा कोई धर्म नहीं है जो राष्ट्रवाद को स्वयं से पहले स्थान दे, ऐसे ही धर्म की ध्वजा थामें यह वैरागी धर्मधुरंधर मिट्टी के मोह बंधन में सर्वदा बंधा रहा। स्वतंत्रता सेनानियों में अग्रणी भगत सिंह ने भी उनके राष्ट्रप्रेम को अपना प्रेरणास्रोत बताया। स्वामी रामतीर्थ, वेदांत दर्शन और आध्यात्मिक राष्ट्रवाद के जनक थे, उन्होंने धर्म और राष्ट्रवाद का पावन मिलन कराया। उनके अनुसार राष्ट्रधर्म प्रथम और राष्ट्रहित सर्वोपरि था। उनके अनुसार जिस दिन युवा पीढ़ी भारत को सिर्फ मिट्टी का टुकड़ा मानने के बजाय अपना घर मानेगा, देश को अपने पुरखों की थाती समझेगा, उस दिन से भारतवर्ष का उत्थान निश्चित है।
उन्होंने भारत भूमि को माता और देवी तुल्य मानने की पद्धति को अनिवार्य बताया। भारत के साथ तादात्म्य होने वाली भविष्यवाणी करते हुए उन्होने कहा -“चाहे एक शरीर द्वारा, चाहे अनेक शरीरों द्वारा काम करते हुए रामतीर्थ प्रतिज्ञा करता है कि बीसवीं शताब्दी के अर्धभाग के पूर्व ही भारत स्वतंत्र होकर उज्ज्वल गौरव को प्राप्त करेगा।“ उन्होंने अपने एक पत्र में लाला हरदयाल को लिखा था कि “हिन्दी में प्रचार कार्य आरंभ करो, वही स्वतंत्र भारत की राष्ट्रभाषा होगी।” केवल तीन शब्दों में उनका सन्देश निहित है – त्याग, प्रेम और राष्ट्रधर्म।
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ज़रा सोचिए, आज के युग में सुख और आराम का त्याग कौन करता है? गणित में मेधावी यह युवा लाहौर में प्रोफेसर था, अच्छी तनख़ाह से जीवन निर्वाह कर सकता था। आखिर ऐसी क्या ज़रूरत पड़ी कि ऐसे सौम्य नौजवान ने वैराग्य अपना लिया? इसी में आपके लिए सीख छुपी हुई है। सीख राष्ट्रप्रेम की, जिससे ये वैरागी भी अछूता नहीं रहा। सीख समाज साधना की, जिसमें इस वैरागी ने सबसे उत्कृष्ट थाती सौंपी। रामतीर्थ के कर्मों ने इस मिट्टी को तीर्थ बना दिया। आज के युवाओं को उनसे सीखना चाहिए कि अपनी संस्कृति से प्रेम कैसे करते है?