कोमाज़ावा टर्फ का युद्ध – जब भारत ने ‘हॉकी स्टिक’ से पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध लड़ा और विजयी हुआ

जब खेल के मैदान में पाकिस्तानियों ने भारतीय खिलाड़ियों को किया घायल, तो भारत ने लगाई दहाड़

भारत ने पाकिस्तान के विरुद्ध कितने युद्ध लड़ें हैं? अगर आए दिन पाकिस्तान के आतंकी युद्धों को त्याग दें, तो आधिकारिक तौर पर भारत ने पाकिस्तान के विरुद्ध चार युद्ध लड़े हैं, जिनका प्रारंभ 1947 में हुआ, और अंतिम युद्ध 1999 में लड़ा गया था। इन चारों युद्धों में भारत विजयी हुआ, और उन्होंने पाकिस्तान को विपरीत परिस्थितियों में भी पराजित करके दम लिया।

परंतु क्या आपको पता है कि भारत और पाकिस्तान के बीच एक पाँचवाँ युद्ध भी लड़ा गया था? जी हाँ, दोनों देशों के बीच 1947 और 1965 के बीच एक ऐसा ही युद्ध हुआ था। रणभूमि सपाट थी, और शस्त्र भी विचित्र थे, क्योंकि इनसे गोला बारूद नहीं निकलते थे, अपितु इनके साथ गेंद को गोलपोस्ट में पहुंचाना आवश्यक होता था। जिस टोक्यो में 41 साल बाद भारतीय पुरुष हॉकी टीम ने ओलंपिक कांस्य पदक प्राप्त किया था, उसी टोक्यो ओलंपिक में हॉकी के मैदान पर वास्तव में एक युद्ध लड़ा गया था, जहां बंदूकों का नहीं, हॉकी स्टिक्स का प्रयोग हुआ, और उसमें भी भारतीय हॉकी विजयी रही।

कोमाजावा के युद्ध की नींव पड़ी थी वर्ष 1960 के रोम ओलंपिक  में। यह केवल मिलखा सिंह की उस त्रासदी के लिए चर्चा में नहीं था, जहां वे 400 मीटर की रेस में एक ऐतिहासिक पदक जीतने से चूक गए थे। रोम ओलंपिक इसलिए भी चर्चा में था, क्योंकि जो भारतीय हॉकी टीम लगातार छह बार से ओलंपिक हॉकी का स्वर्ण पदक प्राप्त करती आ रही थी, उसके विजयरथ पर आखिरकार पाकिस्तान ने लगाम लगा ही दी थी। मेलबर्न में 1-0 से हारने वाले पाकिस्तान ने इसी अंतर से भारत को परास्त करते हुए अपने प्रथम ओलंपिक स्वर्ण पदक पर कब्जा प्राप्त किया।

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इसके ठीक दो वर्ष बाद 1962 में, चीन ने सैन्य मोर्चे पर भारत को धूल चटाई, और भारत का आत्मसम्मान मानो छूमंतर हो गया। इतना पर्याप्त नहीं था, तो 1962 के जकार्ता एशियाई खेलों में पाकिस्तान ने एक बार फिर से भारत को परास्त करते हुए उस संस्करण का प्रथम स्वर्ण पदक जीता लिया था।

जब टोक्यो ओलंपिक का समय आया, तो भारत की अवस्था बहुत दयनीय थी, हॉकी में भी और वैश्विक राजनीति में भी। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आकस्मिक निधन से देश में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हुई थी, और लालबहादुर शास्त्री के लिए इतनी बदहाल स्थिति संभालना इतना सरल नहीं था। ऐसे ही, भारतीय हॉकी फेडरेशन के तत्कालीन अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किए बीएसएफ़ के उच्चाधिकारी अश्विनी कुमार के लिए भारतीय हॉकी को पुनः पटरी पर लाना सरल नहीं था।

परंतु उन्होंने ये बीड़ा उठाने का निर्णय लिया और जल्द ही टीम का निर्माण प्रारंभ हुआ। प्रबंधक इंदर मोहन महाजन और पूर्व नेशनल चैंपियन नरेंद्र नाथ मुखर्जी अथवा हाबुल दा के नेतृत्व में एक मजबूत टीम का चयन किया गया। इस टीम के कप्तान के रूप में चरणजीत सिंह को चुना गया, जो रोम ओलंपिक में भारत को स्वर्ण पदक जिता चुके होते, यदि सेमीफाइनल में ब्रिटिश खिलाड़ियों ने बेईमानी से उन्हें चोट न पहुंचाई होती।

उनके अलावा इस टीम में उधम सिंह कुलर जैसे वरिष्ठ खिलाड़ी भी चुने गए। उधम सिंह उंगली की चोट के कारण लंदन ओलंपिक में नहीं चुने गए, अन्यथा वे हेलसिंकी ओलंपिक 1952 से लेकर रोम ओलंपिक 1960 तक लगभग हर टीम में भारतीय हॉकी के लिए ‘संकटमोचक’ के रूप में सामने आए थे। इस टीम के गोलकीपर के रूप में एक बार फिर भारतीय सेना के प्रख्यात गोलकीपर शंकर लक्ष्मण शेखावत को चुना गया। इनके कौशल के कारण भारत ने एक भी टीम को मेलबर्न ओलंपिक में अपने गोलपोस्ट के आसपास भी नहीं फटकने दिया, परंतु इनकी एक चूक के कारण भारत अपना लगातार 7वां ओलंपिक स्वर्ण पदक जीतने से चूक गया l

https://twitter.com/LaffajPanditIND/status/1319605020237557760

 

लेकिन इस टीम के सबसे महत्वपूर्ण सदस्यों में से एक थे तत्कालीन भारतीय टीम के सबसे धाकड़ प्लेयरों में से एक, पेनाल्टी कॉर्नर विशेषज्ञ पृथिपाल सिंह। इन्होंने रोम ओलंपिक में एक प्लेयर की दृष्टि से सबसे अधिक गोल किए, परंतु वे गोल किस काम के, जो एक स्वर्ण पदक न दिला पाए? –

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जब टीम बनकर तैयार हुई, तो वे एक प्रैक्टिस टूर के लिए न्यूज़ीलैंड गए। भारत प्रारम्भिक मैच मामूली अंतर से क्या हार गया, भारतीय मीडिया ने तुरंत छापना प्रारंभ कर दिया कि इस टीम से स्वर्ण पदक की आस लगाना छोड़ दें। परंतु इस नकारात्मक कवरेज की ओर ध्यान न देते हुए भारतीय हॉकी टीम ने टोक्यो ओलंपिक में स्वर्ण पदक पर अपना ध्यान केंद्रित किया। बात केवल स्वर्ण पदक की नहीं की, बात थी स्वाभिमान की, बात थी अपने आत्मविश्वास को वापिस प्राप्त करने की।

जब भारत ने टोक्यो ओलंपिक में अपना अभियान प्रारंभ किया, तो वह उतना धमाकेदार नहीं था। जर्मनी और स्पेन से उसे मैच ड्रॉ कराने पड़े। परंतु जल्द ही भारत ने लय प्राप्त करते हुए अपने बाकी पांचों मैच जीते, और सेमीफाइनल में प्रवेश किया। सेमीफाइनल में जब भारत का सामना ऑस्ट्रेलिया से हुआ, तो भारत प्रारंभ में पिछड़ा, परंतु जल्द ही एक के बाद ताबड़तोड़ 3 गोल ठोंकते हुए ऑस्ट्रेलिया को न केवल 3-1 से हराया, अपितु फाइनल में एक बार फिर पाकिस्तान से अपनी भिड़ंत सुनिश्चित कराई।

भारत के मुकाबले पाकिस्तान का अभियान एकदम अजेय रहा। उसने एक भी मैच नहीं हारा, और ताबड़तोड़ गोल किए सो अलग। लेकिन 23 अक्टूबर 1964 को हुए फाइनल में पहले ही हाफ में भारतीयों ने ऐसा रक्षात्मक खेल अपनाया कि पाकिस्तान को दिन में तारे दिखने लगे –

 

ऐसे में पाकिस्तान ने खेल के मैदान को जंग का मैदान बना दिया। जानबूझकर भारतीय खिलाड़ियों को चोटें पहुंचाई जाने लगी। स्थिति इतनी बुरी हो गई कि एक समय के बाद पृथिपाल ने अपना आपा खो दिया और एक पाकिस्तानी को जमकर पीटा। हाथापाई तक की नौबत आ गई –

https://twitter.com/LaffajPanditIND/status/1319605056799268865

 

आखिरकार, मैच के दूसरे हाफ में भारत को एक पेनाल्टी स्ट्रोक मिला। पाकिस्तानी गोलकीपर अब्दुल हमीद को पूरा विश्वास था कि भारत के लिए ये शॉट असंभव है, परंतु मोहिन्दर लाल के मन में कुछ और ही चल रहा था। अब्दुल हमीद के कद और गोलपोस्ट की ऊंचाई देखते हुए उसने एक सधा हुआ स्कूप लगाया, जो सीधा अब्दुल के हाथों को पार करता हुआ गोलपोस्ट के जाल में समा गया। भारत ने न केवल वह स्वर्ण पदक प्राप्त किया, अपितु इसी भूमि पर 57 वर्ष बाद एक बार फिर भारत ने अपना खोया आत्मसम्मान प्राप्त किया, जब विपरीत परिस्थितियों में भारत ने जर्मनी को 5-4 से परास्त कर कांस्य पदक प्राप्त किया।

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