उर्दू बनाम हिन्दी: वो युद्ध जिसे उर्दू कभी नहीं जीत सकती

हिंदी में जो मधुरता है, वो उर्दू में नहीं!

उर्दू हिन्दी

इन दिनों उर्दू और हिन्दी के बीच में घमासान युद्ध छिड़ा हुआ है, और कारण है फैब इंडिया। नहीं समझे? फैबइंडिया के वर्तमान ‘जश्न-ए-रिवाज़’ कलेक्शन के जरिए दीपावली, और उससे भी बढ़कर भारतीय संस्कृति के उर्दूकरण को बढ़ावा दिया जा रहा था, जिसके चलते इसका भारी विरोध हुआ और फैबइंडिया को इससे संबंधित विज्ञापन हटाने पर विवश होना पड़ा।

लेकिन इससे कई उर्दू प्रेमियों को विशेष जलन होने लगी है। वे सनातनियों, विशेषकर हिन्दीभाषियों को नीचा दिखाने के लिए तरह-तरह के ट्वीट करने लगे। इसमें सबसे अग्रणी रहा इश्क उर्दू नाम का एक ट्विटर अकाउंट, जिसने हिन्दीभाषियों पर तंज कसते हुए ट्वीट किए, “क्योंकि हिन्दू दक्षिणपंथ उर्दू को तनिक भी स्वीकार नहीं कर सकता और फैबइंडिया जैसे ब्रांड को उर्दू का उपयोग करने के लिए बॉयकॉट कर रहा है, इसलिए हमने बिना उर्दू के भारत की कल्पना की है” –

इस थ्रेड के अंतर्गत कई फिल्मों और प्रसिद्ध बॉलीवुड फिल्मों के संवाद का हिन्दी में रूपांतरण किया गया है, जैसे सौदागर फिल्म का नाम हो गया व्यापारी और शहंशाह का बन गया सम्राट। इसके पीछे इश्क उर्दू का उद्देश्य स्पष्ट था – हिंदीभाषियों को उनके आक्रोश के लिए लज्जित करना और उन्हें सबके समक्ष हीन रूप में प्रस्तुत करना। परंतु एक व्यक्ति के ट्वीट ने तो मानो इन्ही के प्रोपगैंडा पर भयंकर पानी फेर दिया। तरणका कुराडू ने बड़े ही भोलेपन से मानो ट्वीट करते हुए कहा,

“एक तेलुगुभाषी होने के नाते मुझे हिन्दी गीत और उनके शीर्षक बड़े क्लिष्ट लगे हैं। मुझे बहुत बाद में आभास हुआ कि वे अधिकतम उर्दू में लिखे जाते हैं, हिन्दी में नहीं। जो हिन्दी के संस्करण आपने लिखे हैं, वो सुनने में भी मधुर हैं, और हमारे जैसे गैर-हिन्दीभाषियों के लिए भी समझने में सरल हैं” –

तरणका अपने विश्लेषण में शत-प्रतिशत सत्य बोल रहे हैं, क्योंकि हिन्दी और उर्दू में उतना ही अंतर है जितना आकाश और पाताल में। इसका सबसे प्रमुख कारण है – अस्तित्व। एक भाषा का अपना मूल अस्तित्व होना चाहिए, उसकी स्पष्ट व्यवस्था, नियमावली, शब्दकोश, पांडुलिपि इत्यादि। हिन्दी में हमें ये सभी तत्व प्राप्त हैं, चाहे वो व्यवस्था हो, नियमावली, शब्दकोश अथवा पांडुलिपि। हिन्दी एक प्रकार से देवभाषा संस्कृत का सरल उच्चारण ही है, जिसे अगर ध्यान से पढ़ा जाए, तो कई क्षेत्रीय भाषाएँ, जैसे तेलुगु, मलयालम, मराठी इत्यादि को समझने, उनका पाठ करने और उनका अनुसरण करने में भी सरलता प्राप्त होगी।

इसकी तुलना में उर्दू का न अपना कोई अस्तित्व है, न कोई नियमावली, न कोई स्पष्ट पांडुलिपि और न ही कोई शब्दकोश। वैसे चोरी के मामले में अंग्रेजी भी उर्दू से भिन्न नहीं है, लेकिन उसने फिर भी अपने एक लिए विशिष्ट प्रणाली स्थापित की है, अपने व्याकरण की अलग पद्वति स्थापित की, परंतु उर्दू तो ये भी करने में असफल रही। ‘उर्दू’ का मूल अर्थ जानते हैं क्या है? ‘छावनी की भाषा’, यानि वो भाषा, जो अधिकतम उस समय के [तुर्की आक्रांता] सैनिक बोलते थे। अरबी, फारसी, खड़ी बोली और हिन्दुस्तानी की अधपकी खिचड़ी का परिणाम है उर्दू। इसे भाषा बोलना ही भाषा शब्द का घोर अपमान होगा, क्योंकि भाषा की सबसे मूल आवश्यकता है मौलिकता यानि originality, जो उर्दू में दूर-दूर तक नहीं है।

उर्दू की वास्तविकता क्या है, यह ‘हैपी भाग जाएगी’ के एक संवाद से बेहतर कोई नहीं समझा सकता। या तो भूलवश या जानबूझकर, परंतु एक दृश्य ऐसा आता है, जहां फिल्म का अभिनेता शराब के नशे में धुत होकर बताता है कि उर्दू कितनी द्विअर्थी बोली है, जो दिखाती कुछ और है, और वास्तव में होती कुछ और है। फिल्म में संवाद था “पाजी, ये उर्दू न बड़ी डेडली लैंग्वेज है, कोई आम सी चीज़ होनी है, उर्दू में लगदी है किन्नी बड़ी तोप है। पहले मुझे लगता था, कोई खास चीज़ होती है, वो तशरीफ़। जब पता चला तो हँसते-हँसते…. l” निस्संदेह, फिल्म में पाकिस्तानियों का जबरदस्त महिमामंडन हुआ, परंतु उस एक क्षण के लिए अनजाने में सही, परंतु सत्य सामने आ ही गया।

लेकिन जैसे अंग्रेज़ीभाषी अपनी संस्कृति दुसरे लोगों पर थोपने का प्रयास करते रहे हैं, वैसे ही उर्दूभाषी भी अपनी संस्कृति और अपनी बोली लोगों पर बलपूर्वक थोपते आए हैं। ये आज से नहीं, मुगल काल से चल रहा है, जब सर्वप्रथम उर्दू को सर्वाधिक बढ़ावा दिया गया था। हैदराबाद के निज़ाम शाही से लेकर स्वतंत्र भारत का स्वाधीनता संग्राम केवल राजनीतिक ही नहीं, अपितु सांस्कृतिक भी था। हैदराबाद एक ऐसा क्षेत्र था, जहां पर कन्नड़, मराठी, तेलुगु एवं हिन्दीभाषी लोगों का बहुमत अधिक था। यदि प्रत्यक्ष रूप से नहीं तो अप्रत्यक्ष रूप से सब हिन्दी से किसी न किसी प्रकार अवश्य जुड़े थे, लेकिन निज़ाम शाही उन पर जबरदस्ती उर्दू थोपती थी, जिनका उनकी संस्कृति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था। आज ‘Stop Hindi Imposition’ के नारे लगाने वाले वामपंथियों को इन घटनाओं के उल्लेख मात्र पर ही सांप सूंघ जाता है।

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उर्दू की इसी औपनिवेशिक मानसिकता को रेखांकित करते हुए अपने ट्वीट्स के जरिए TFI के संस्थापक अतुल मिश्रा ने बताया कि आखिर क्यों एक लंबी लड़ाई में उर्दू हिन्दी से विजयी कभी नहीं सिद्ध हो सकती। ट्वीट में पूछा गया कि, “भर दे झोली मेरी में से ‘भर दे मेरी’ हटा दें तो बचेगा क्या? झोली भी एक देशज शब्द जिसके अवधी मूल है।”

इसी भांति प्रेम और वासना के उदाहरण के माध्यम से हिन्दी और उर्दू के बीच का अंतर स्पष्ट करते हुए अतुल मिश्रा ने एक अन्य ट्वीट में कहा, “सत्य कहें तो उर्दू हिन्दी से कहीं अधिक वासना से ओतप्रोत हैं। प्रेम तो क्या, प्रणय को भी देवतुल्य बनाने की क्षमता है हिन्दी भाषा में। विश्वास नहीं होता तो स्वयं पढिए –

मैं तुम्हारी जिस्म की गर्मी में जलना चाहता हूँ

मैं तुम्हारे देह की उष्मा में दग्ध होना चाहता हूँ

अब बताइए, वासना किसमें अधिक है?” –

किसी ने सही ही कहा है, कभी भी वो युद्ध प्रारंभ न करें, जिसमें आप विजयी न हो सकें। उर्दूभाषियों ने हिन्दी के गज समान अस्तित्व को अपनी कुंठा से चुनौती देने का दुस्साहस अवश्य किया है, परंतु यदि हिन्दी रूपी गज ने अपना वास्तविक रौद्र रूप दिखाया, तो उर्दूभाषियों को सर छुपाने की भी जगह नहीं मिलेगी।

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