जिसे पाकिस्तान में मिली सज़ा-ए-मौत, उसे भारत में मिला पद्मश्री!

पाकिस्तानी लेफ्टिनेंट कर्नल काजी सज्जाद अली जहीर को हर भारतीय की ओर से पद्मश्री मिलने की शुभकामनाएं

काजी सज्जाद अली जहीर

काजी सज्जाद अली जहीर – धन्य है भारत की मिट्टी और धन्य-धन्य है इसके लिए लड़ने वाले लोग। आज हम आपको एक ऐसे ही इंसान की गाथा सुनने जा रहें है जो मिट्टी का लाल तो नहीं है लेकिन मिट्टी के लाल से कम भी नहीं है। शायद, इसीलिए हमारे राष्ट्र ने उसे पद्म श्री से पुरस्कृत किया।

पद्म पुरस्कार तीन श्रेणियों में दिए जाते हैं: पद्म विभूषण (असाधारण और विशिष्ट सेवा के लिए), पद्म भूषण (उच्च क्रम की विशिष्ट सेवा) और पद्म श्री (प्रतिष्ठित सेवा) के लिए। यह पुरस्कार सार्वजनिक सेवा में नागरिकों के उत्कृष्ट योगदान और उपलब्धियों के लिए दिया जाता है।

9 नवम्बर 2021 को भारतीय गणराज्य के प्रमुख महामहिम रामनाथ कोविन्द द्वारा राष्ट्र के नागरिकों को सार्वजनिक सेवा में उत्कृष्ट योगदान के लिए पद्म पुरस्कार वितरित किया जा रहा था। सभी नागरिकों के कार्यों की भूरी-भूरी प्रसंशा हो रही थी। किसी ने पर्यावरण संरक्षण के निमित्त कार्य किया था, तो किसी ने विद्यालय निर्माण में अपने जीवन काल का सम्पूर्ण संचित धन लगा लगा दिया था। अचानक से स्वर गूँजता है- “लेफ्टिनेंट कर्नल काजी सज्जाद अली जहीर को 1971 के युद्ध में भारतीय सेना के अभूतपूर्व सहायता हेतु पद्म पुरस्कार दिया जाता है।”

सभा में बैठे सभी लोग चौंक जाते है। मस्तिष्क में प्रश्न कौंधता है- “ये कौन सा कर्नल है जिसे पाकिस्तानी होने के बावजूद पद्म- पुरस्कार से सम्मानित किया जा रहा है?” खैर, कारण बताने से पूर्व हम उनका पूर्ण परिचय आपसे करा देते है।

लेफ्टिनेंट कर्नल काजी सज्जाद अली जहीर

1969 के अंत में काजी सज्जाद अली जहीर कैडेट के रूप में पाकिस्तानी सेना में शामिल हुए। 1971 में, उन्होने पाकिस्तान के काकुल सैन्य अकादमी में एक वरिष्ठ कैडेट के रूप में प्रशिक्षण प्राप्त किया। ज़हीर को अगस्त में पाकिस्तानी सेना की आर्टिलरी कोर में कमीशन कर दिया गया।

1971 में, 20 साल की उम्र में लेफ्टिनेंट कर्नल काजी सज्जाद अली जहीर पाकिस्तानी सेना में अधिकारी बने और सियालकोट में तैनात किए गए ।

लेफ्टिनेंट कर्नल काजी सज्जाद अली जहीर की कहानी

1971 के युद्ध की बात है। यहया खान के नेतृत्व में पाकिस्तानी सेना मानव इतिहास के सबसे बड़े जनसंहार को अंजाम दे रही थी। करीब 30 लाख लोग मारे जा चुके थे। औरतों का बलात्कार सैन्य मनोरंजन का विषय बन चुका था। क्रूरता की परकाष्ठा पार हो चुकी थी और अब नयी परिभाषा गढ़ने की जरूरत थी। सियालकोट में तैनात 20 साल की उम्र का एक नौजवान लेफ्टिनेंट अपनी मातृभूमि को पाकिस्तानी सैन्य अधिकारीयों के बूट तले रौंदता देख विचलित हो उठा। उसकी नैतिकता और मातृप्रेम ने पाकिस्तानी सैनिक के कर्तव्यबोध से मुक्त कर भारत से मदद की गुहार लगाने को विवश कर दिया। अपने बूट में कुछ रणनीतिक मानचित्रों और दस्तावेजों को दबाये गोलियों के बौछारों के बीच वो भारत की ओर भाग आया। इतिहास साक्षी है भारतीय जांबाज़ों की शरण में आए शरणार्थी का कोई बाल तक बांका नहीं कर सका, इस नौजवान के पीछे तो कायर पाकिस्तानी सेना पड़ी थी। उस नौजवान पाकिस्तानी कर्नल का नाम था- लेफ्टिनेंट कर्नल काजी सज्जाद अली जहीर।

उस घटना को याद करते हुए कर्नल कहते है- “सियालकोट में पाकिस्तानी पैरा-ब्रिगेड सैनिक के रूप में तैनात होते हुए भी मैं एक अलग-थलग पड़ चुका था। तब मुझे लगा कि मेरे अंदर सिर्फ तीन लोग हैं- मैं, मैं और सिर्फ मैं। इसिलिए, मैंने भारत से मदद की गुहार लगाने के लिए योजना बनानी शुरू कर दी। मैंने जम्मू की ओर जाने के लिए शकरगाह मार्ग को चुना जिस पर पाकिस्तानी सेना द्वारा सबसे कम गश्त की गई थी। जैसे ही मैंने भारत-पाक सीमा को पार किया, पाकिस्तान ने गोलीबारी शुरू कर दी। मेरे भागने से अंजान, भारत के सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) ने भी जवाबी फायरिंग की।

कर्नल काजी सज्जाद अली जहीर आगे बताते है- “मैं एक बड़ी खाई में कूद गया और रात भर वहीं पड़ा रहा क्योंकि दोनों तरफ से गोलीबारी जारी थी। मैं गंदे दलदल में रेंगते हुए पूरे रास्ते को पार करने में कामयाब रहा और अंततः भारतीय सेना द्वारा बचा लिया गया।”

भारतीय सेना का व्यवहार

पहले तो भारतीय सेना ने उन्हे पाकिस्तानी जासूस समझा। आगे की पूछताछ के लिए उन्हे पठानकोट सैन्य अड्डे पर वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों के समक्ष प्रस्तुत किया गया जहां उनसे सच उगलवाने के दूसरे तरीके अपनाए गए। परंतु, जब उनके बूट से रणनीतिक मानचित्र और दस्तावेज़ बरामद हुए तब जाकर भारतीय सेना को उनपर विश्वास हुआ। बाद में उन्हें दिल्ली ले जाया गया, जहाँ विभिन्न एजेंसियों के वरिष्ठ अधिकारियों ने उनसे बातचीत की।

लेफ्टिनेंट कर्नल (सेवानिवृत्त) काजी सज्जाद अली जहीर कहते है- “उन्होंने मुझे महसूस तक नहीं होने दिया कि मैं हिरासत में हूं। सैन्य अधिकारियों ने मुझे अच्छा खाना दिया और मेरे साथ अच्छा व्यवहार किया बस मुझे सफदरजंग एन्क्लेव के घर को नहीं छोड़ने का अनुरोध किया। वरिष्ठ अधिकारीयों ने दिन-रात मुझसे बात कर मुझे सहज और सुरक्षित महसूस कराया।”

ज़हीर ने कैसे की भारत की मदद

भारतीय सेना का विश्वास जीतने के बाद सितंबर 1971 में  ज़हीर भारतीय सेना समर्थित मुक्तिवाहिनी की ओर से बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में शामिल हुए। उन्होंने नेतृत्व में सिलहट क्षेत्र के सेक्टर 4 में  दूसरे आर्टिलरी फोर्स का गठन किया गया। भारत सरकार ने उन्हें छह 105 मिमी तोपें दीं और इसके साथ ही मुक्ति वाहिनी के लिए “रौशन आरा” नामक एक फील्ड आर्टिलरी बैटरी बनाई। वह इस ग्रुप के को-कप्तान थे। उनके नेतृत्व में इस दल ने सिलहट क्षेत्र में मुक्ति वाहिनी जेड फोर्स की न सिर्फ सहायता की बल्कि कई क्षेत्रों को पाकिस्तान के चंगुल से मुक्त भी कराया।

इतना ही नहीं बांग्लादेश की आज़ादी के पश्चात उन्होने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में मारे गए भारतीय सैनिकों को पुरस्कार और मान्यता प्रदान करने के लिए प्रधान मंत्री शेख हसीना से संपर्क किया। वह युद्ध में मारे गए भारतीय सैनिकों को सम्मान प्रदान करने के लिए बांग्लादेश सरकार के साथ समन्वय कर रहे हैं। इसके साथ-साथ उन्होंने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के आदिवासी दिग्गजों को मान्यता प्रदान करने के लिए शुद्धोई मुक्तिजोधो की स्थापना भी की।

पाकिस्तान की बर्बरता

गैर-मुस्लिम और बंगालियों पर पाकिस्तान की नृशंसता को वर्णित करते हुए कर्नल काजी सज्जाद अली जहीर बताते है- “पाकिस्तान हमारे लिए कब्रिस्तान बन गया था। हमारे साथ दूसरे दर्जे के नागरिकों की तरह व्यवहार किया गया। इस हद तक की हमे अधिकार के लिए आवाज़ तक उठाने से वंचित कर दिया गया। हम सिर्फ एक दोयम दर्जे की आबादी थे। हमें कभी लोकतंत्र नहीं मिला। हमें केवल मार्शल लॉ और सैन्य नरसंहार मिला। जिन्ना ने वादा किया कि हमारे पास समान अधिकार होंगे लेकिन हमारे पास सिर्फ मौत और शोषण का दर्दनाक मंजर था। पाकिस्तान हमे अपना नागरिक नहीं बल्कि गुलाम समझता था।”

आपको बता दे पाकिस्तान की सैन्य अदालत ने आज से 50 वर्ष पूर्व भारत की मदद के लिए कर्नल ज़हीर को मृतुदंड दे रखा है।

कर्नल काजी सज्जाद अली जहीर का सम्मान

पूर्वी पाकिस्तान ( अर्थात आज के बांग्लादेश) की मुक्ति के पश्चात वो बांग्लादेश सेना में एक उच्च पदस्थ अधिकारी के रूप में कार्यरत रहे।

उनके अदम्य साहस और वीरता के लिए बांग्लादेशी सेना ने उन्हे “बीर प्रोतीक” से सम्मानित किया जो कि भारतीय “वीर चक्र” के समकक्ष है। सेवानिवृति पश्चात उन्हे बांग्लादेश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान  “स्वाधिनाता पदक” से भी आभूषित  किया गया। और अब उनको भारत ने अपने सर्वोच्च नागरिक पुरस्कारों में से एक पद्म श्री से सम्मानित किया है। उनका पुरस्कार पाना सार्थक है और एक नागरिक के तौर पर हमारे लिए संतोषप्रद है।

परंतु भारतीय सेना की सफलता का श्रेय लेने से इनकार करते हुए उन्होने कहा की भारतीय सेना ने शकरगढ़ की लड़ाई में पाकिस्तान के 56 मील अंदर तक कब्जा कर लिया था जो कि अपने आप में उनके अदम्य साहस को परिलक्षित करता है। दूसरी पीढ़ी के इस सैन्य अधिकारी को उन सभी लोगों पर गर्व है जो निःस्वार्थ भाव से अपने देश की सेवा करते हैं।

स्वयं कर्नल ज़हीर के पिता ब्रिटिश सेना में एक अधिकारी थे और द्वितीय विश्व युद्ध में बर्मा की लड़ाई का हिस्सा थे। उनका छोटा भाई उस मुक्ति वाहिनी का हिस्सा था जिसने बांग्लादेश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ी थी। काजी सज्जाद अली जहीर भले ही आप भारत पुत्र नहीं, लेकिन भारत आपको रत्न के रूप में प्राप्त कर धन्य हुआ। भले ही आपकी धमनियों में भारत का रक्त नहीं है परंतु भारत के लिए आपने अपना रक्त अर्पण किया इसके लिए भारत सदैव आपका ऋणी रहेगा। सार्वजनिक क्षेत्र में महान उपलब्धियों के लिए पद्म पुरस्कार दिये गए है, आगे भी दिये जाते रहेंगे परंतु भारत के लिए अदम्य शौर्य और पराक्रम का प्रदर्शन करने वाले किसी पाकिस्तानी को ये रत्न शायद ही मिले।

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