दक्षिण अफ्रीकी टीम को चोकर्स कहा जाता है! अगर सकारात्मक रवैये से इस वाक्य को परखें, तो इसका अर्थ यह है कि प्रतिभा की कोई कमी नहीं है बस भाग्य साथ नहीं देता। संभावनाओं और क्षमताओं के बावजूद आजतक वो विश्व कप नहीं जीत पाएं। पर, दक्षिण अफ्रीका का एक खिलाड़ी है, जिसने खिलाड़ी के रूप में तो नहीं पर कोच के रूप में न सिर्फ चोकर्स के अवधारणा को ध्वस्त किया, अपितु 28 साल बाद भारतीय टीम को विश्व विजेता के रूप में भी स्थापित किया। उनका नाम है- गैरी किर्स्टन, लेकिन हम भारतीय उन्हें प्यार से “गुरु गैरी” बुलाते हैं। आज उनका जन्मदिन है। गैरी किर्स्टन 54 साल के हो गए, पर कोच के तौर पर उनकी उपलब्धियों को देखकर ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात हो। तो चलिए आज उनके जन्मदिन के अवसर पर उनसे जुड़ी कुछ अद्भुत स्मृतियां पलटते है।
और पढ़ें: ‘The Mad Scientist’ एबी डिविलियर्स – वो खिलाड़ी जिसने क्रिकेट के साइंस को ही बदल डाला
मिशन था भारत को विश्व कप 2011 जीताना
वीरेंद्र सहवाग और गैरी किर्स्टन एक दूसरे से पूर्णतः भिन्न खिलाड़ी हैं। किर्स्टन अपने दिनों के एक विस्फोटक, बाएं हाथ के सलामी बल्लेबाज थे, जिन्होंने एक बार 14 घंटे से अधिक समय तक बल्लेबाजी करते हुए एक पारी में 275 रन बनाए, जो अब तक की दूसरी सबसे लंबी टेस्ट पारी है। जबकि सहवाग, एक दाएं हाथ के आक्रामक सलामी बल्लेबाज, जिन्होंने साल 2008 में केवल आठ घंटे की बल्लेबाजी में तिहरा शतक बनाया, जो अब तक का सबसे तेज तिहरा शतक है! फिर भी नजफगढ़ के नवाब का मानना है कि किर्स्टन ने उनकी बल्लेबाजी और करियर को पुनर्जीवित किया है। इसका कारण है कि किर्स्टन ने सहवाग को कौन सा शॉट खेलना है और कौन नहीं, बताने की बजाय उचित शॉट चयन के लिए कहकर सहज महसूस कराया। स्वयं सहवाग का कहना है कि गैरी किर्स्टन अब तक के सर्वश्रेष्ठ कोच हैं।
जॉन राइट और ग्रेग चैपल के बाद गैरी ने तीसरे विदेशी के रूप में भारत के कोच का उत्तरदायित्व संभाला। किर्स्टन का एक मिशन था- विश्व कप 2011 जीतने के लिए भारतीय टीम का मार्गदर्शन करना और भारत को नंबर 1 टेस्ट टीम बनाना। उनके मार्गदर्शन में भारतीय टीम को शुरुआत के 25 टेस्ट मैच में से सिर्फ 2 मैचों में हार मिली। किर्स्टन को अब टेस्ट रैंकिंग में भारत को विश्व विजेता बनाने की कठिन चुनौती थी। वह मैच के एक-दो दिन पूर्व उन खिलाड़ियों पर विशेष ध्यान देते थे, जिनका फॉर्म भारत के भाग्य का फैसला करेगी। गैरी किर्स्टन के विशिष्ट दृष्टिकोण है: पद्धतिगत, विश्लेषणात्मक और विनम्रतापूर्वक…जो खिलाड़ियों को उनकी योजना से सहमत होने हेतु मनाने के लिए पर्याप्त है।
और पढ़ें: आखिर इतने सारे भारतीय ब्रेट ली का सम्मान क्यों करते हैं?
गैरी किर्स्टन का आगमन और कोचिंग स्टाइल
किर्स्टन को दिसंबर 2007 में, एक पैनल द्वारा भारत के कोच के लिए आमंत्रित किया गया था, जिसमें सुनील गावस्कर भी थे। गावस्कर का कहना है कि “विभिन्न क्रिकेट पहलुओं पर किर्स्टन के विचार स्पष्ट और सटीक थे। वह एक अच्छे विचारक के रूप में सामने आए, जिसने मुझे प्रभावित किया।” किर्स्टन के अनुभवहीन होने के बावजूद पैनल जानता था कि क्रिस्टन टीम के साथ घुलमिल जाएंगे। वैसे भी वो हमारे अधिकांश सीनियर्स के खिलाफ खेल भी चुके थे और इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि किर्स्टन एक ‘आधुनिक’ क्रिकेटर थे, इसीलिए एक 70-80 के दशक के कोच से ज्यादा अच्छे से हमारे खिलाड़ियों के मनोभावों से परिचित थे।
जब उन्होंने कार्यभार संभाला, तब भारतीय टीम एक कठिन दौर से उबर रही थी। विश्व कप जीतना तो दूर, टीम सुपर लीग से ही बाहर हो गई थी। ग्रेग और गांगुली विवाद से भी सभी परिचित थे। जिसके बाद सीरीज के साथ कोच बदलते रहें। तब रवि शास्त्री ने बांग्लादेश के दौरे पर टीम को कोचिंग देने की जिम्मेदारी ली थी। वहीं, ICC टी20 विश्व कप जीतने के प्रयास में लालचंद राजपूत कोच के रूप में थे।
किर्स्टन का चयन
किर्स्टन ने राजपूत के बाद पदभार संभाला और कुंबले के नेतृत्व में श्रीलंका और ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ उल्लेखनीय जीत के साथ भारत की किस्मत का मार्गदर्शन करना शुरू किया। साल 2008 में ऑस्ट्रेलिया के भारत दौरे के बाद कुंबले ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट से संन्यास ले लिया। जिसके बाद करिश्माई महेंद्र सिंह धोनी ने भारतीय कप्तान के रूप में पदभार संभाला और इन दोनों के नेतृत्व और मार्गदर्शन में भारतीय टीम विश्व कप भी जीत गई और टीम टेस्ट क्रिकेट की बेताज बादशाह भी बनी।
टीम संरचना, योजना और प्रदर्शन की ज्वलंत इच्छा से प्रेरित एक अफ्रीकी खिलाड़ी के रूप में गैरी किर्स्टन दक्षिण अफ्रीकी क्रिकेट मानसिकता के साथ भारत आए थे। पर, जल्द ही उन्हें पता चला कि भारतीय अपने खेल को प्रोटियाज और आस्ट्रेलियाई लोगों से अलग तरीके से देखते हैं। उन्हें इस तथ्य का भी सामना करना पड़ा कि टीम में तेंदुलकर, कुंबले, राहुल द्रविड़ और वी.वी.एस लक्ष्मण जैसे सुपरस्टार थे। सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि साल 1993 में किर्स्टन के टेस्ट क्रिकेट में पदार्पण से पहले ही तेंदुलकर और कुंबले अंतरराष्ट्रीय क्रिकेटर बन गए थे। उच्चतम स्तर पर क्रिकेट दिमाग में खेला जाता है और गैरी किर्स्टन को जल्दी ही इसका एहसास हो गया। वो समझ गए की इतने बड़े खिलाड़ियों को सीख से ज्यादा सम्मान की जरूरत है। जिसके बाद दिग्गज खिलाड़ियों के सोचने के तरीके को समझना और उनके विश्वास को जीतना किर्स्टन की प्राथमिकता रही।
और पढ़ें: राहुल द्रविड़-रोहित शर्मा की जोड़ी ने स्टाइल में स्थापित किया अपना दबदबा
गैरी किर्स्टन का मंत्र
गैरी किर्स्टन का मंत्र सरल और बहुत प्रभावी था। उनका कहना था कि “यदि कुछ टूटा नहीं है, तो उसे बेवजह ठीक न करें।” किर्स्टन प्रत्येक खिलाड़ी को खुद को नैसर्गिक रूप से व्यक्त करने की अनुमति देते थे। जबकि मैदान के बाहर एक सलाहकार की भूमिका निभाते हुए सभी मैदानी फैसले कप्तान पर छोड़ देते थे। किर्स्टन ने यह भी महसूस किया कि एक स्कूल मास्टर का रवैया कभी भी आधुनिक भारतीय टीम के साथ काम नहीं करेगा, जिसमें बड़ी प्रतिष्ठा और सम्मान वाले खिलाड़ी हैं।
गुरु गैरी को जो उत्तरदायित्व सौंपा गया और वो उसमें पूर्णतः सफल रहें। सफलता से भी ऊपर उठते हुए उन्होंने इस टीम की उत्कृष्टता के नए मानदंड स्थापित कर दिये। शायद, इसीलिए विश्व कप जीतने के बाद भारतीय टीम ने अपने गुरु को कंधे पर उठा लिया था। बहुत, कम लोगों को पता होगा कि श्रीलंका को विश्व कप दिलाने वाले कोच देव व्हात्मोर के रहते बोर्ड ने अनुभवहीन गैरी का चयन किया, पर उन्होंने जो मुकाम हासिल किया और जिस मुकाम पर भारत को पहुंचाया वो स्वप्न-सा लगता है। “धन्यवाद गुरु गैरी!” आप भारतीय क्रिकेट इतिहास में स्वर्णांकित हैं।