साइकिल उत्पादन में चीन को मीलों पीछे छोड़ सकता है भारत

भारत को अपनी शक्तियों का कोई आभास ही नहीं है!

आपको पता है रामायण के पवनपुत्र हनुमान और वर्तमान भारत में क्या समानताएँ हैं? दोनों ही अपने लोक के प्राणियों के अवश्यंभावी है, दोनों के बिना संसार में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, लेकिन दोनों ही काफी समय तक अपनी वास्तविक शक्ति से अनभिज्ञ रहे हैं। ऐसे कई क्षेत्र हैं, जहां भारत न केवल वैश्विक वर्चस्व प्राप्त कर सकता है, अपितु आपूर्ति चेन पर डेरा जमाकर बैठे चीन को भी अपदस्थ कर सकता है, परंतु उसे अपनी शक्तियों का कोई आभास ही नहीं है, जैसे कि साइकिल उद्योग।

अगर यूनिट उत्पादन के अनुसार देखा जाए, तो भारत चीन के बाद विश्व का दूसरा सबसे विशाल साईक्लिंग उद्योग है। लेकिन अगर सप्लाई चेन की दृष्टि से देखा जाए, तो भारत दूर-दूर तक अपने निकटतम प्रतिद्वंदी चीन के आसपास भी नहीं ठहरता, जिसकी इस्पात की भांति इस समय साईक्लिंग पर भी वर्चस्व प्राप्त था।

इस पर Pseudoerasmus नामक एक ट्विटर यूजर ने एक विश्लेषणात्मक थ्रेड निकालते हुए पोस्ट किया,

“यूनिट्स के कुल उत्पादन में भारत साइकिल प्रोडक्शन के दृष्टिकोण में चीन के बाद विश्व का दूसरा सबसे विशाल उद्योग है, परंतु साइकिल के उत्पादन में वैश्विक सप्लाई चेन में वह दूर-दूर तक कहीं दिखाई ही नहीं देता” –

https://twitter.com/pseudoerasmus/status/1459141328646942721?s=21

इसके कारण क्या है? इसकी ओर प्रकाश डालते हुए इसी थ्रेड में आगे बताया गया है, “भारत के इस अजीबोगरीब स्थिति के पीछे एक प्रमुख कारण है उसका औद्योगिक स्ट्रक्चर : यहाँ असेंबली ऑपरेशन्स काफी संगठित है, परंतु साइकिल कंपोनेन्ट का निर्माण मात्र 3500 – 4000 छोटे और मध्यम वर्ग के उद्योग करते हैं l” [भारतीय साइकिल उद्योग पर UNIDO की रिपोर्ट के सौजन्य से]

https://twitter.com/pseudoerasmus/status/1459142842341806089

इसके अलावा एक और समस्या की ओर प्रकाश डालते हुए इस थ्रेड में बताया गया, “भारत की साइकिल उद्योग एक्स्पोर्टस पर बहुत कम ध्यान देती है, और यदि करती भी है तो केवल उन्हे, जिनकी ये भारत से भी कम हो। आधे से अधिक साइकिल का दोहन तो घरेलू स्तर पर पूरा हो जाता है”

https://twitter.com/pseudoerasmus/status/1459143891190484992

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कुल मिलाकर इस थ्रेड का मूल सार यह है कि भारत के पास संसाधन भी है और अवसर भी, परंतु वह अपने साइकिल उद्योग को लेकर उतना आक्रामक नहीं रहा है जितना उसे होना चाहिए। Pseudoerasmus नामक यूजर ने ताइवान से भारत की तुलना करते हुए कहा कि उसने भी लगभग उसी समय साइकिल उत्पादन प्रारंभ किया जब भारत ने किया था, परंतु 1970 तक उसने विश्व को साइकिल एक्सपोर्ट करना प्रारंभ कर दिया।

तो क्या इसका कोई समाधान नहीं है? समाधान है! पिछले वर्ष से इसी दिशा में हीरो साइकिल कार्य भी कर रहा है, जिसके बारे में TFI Post ने एक विश्लेषणात्मक लेख में प्रकाश भी डाला था।

उक्त लेख के अनुसार, “इसी दिशा में एक अहम कदम उठाते हुए भारत की प्रसिद्ध साइकिल कंपनी हीरो ने एक बड़ा फैसला लेते हुए 900 करोड़ रुपये का व्यापार रद्द कर दिया है, और साइकिलों के लिए जो आवश्यक पुर्जे चीन से मंगाए जाते थे, अब उसका इम्पोर्ट चीन से नहीं किया जाएगा। बता दें कि हीरो साइकिल कंपनी ने चीन से आयात किए जाने वाले उत्पादों की इनोवेशन और प्रोडक्शन को लेकर जर्मनी से आयातित सामग्रियों की सहायता से काम आरंभ कर दिया है। कंपनी हर साल चीन से 200 करोड़ रुपये के करीब साइकिल के कलपुर्जे आयात करती है और तीन से चार साल के लिए एक साथ अनुबंध करती है। लेकिन अब हीरो कंपनी चीन से यह मैटीरियल नहीं खरीदेगी और अपनी इनोवेशन से हाईएंड साइकिलों का निर्माण इन हाउस करेगी। इससे चीन को तगड़ा आर्थिक झटका लगेगा। एक तरफ तो हीरो साइकिल ने चीन का बहिष्कार कर 900 करोड़ का बिज़नेस रद्द कर दिया है तो दूसरी तरफ ये कंपनी लुधियाना में साइकिल के पुर्जे बनाने वाली छोटी कंपनियों की मदद के लिए सामने आयी। यही नहीं इन कंपनियों को अपनी कंपनी में मिलाने करने का ऑफर भी दिया है।”

ऐसे में जब हीरो साइकिल जैसे विशाल कंपनी अपने स्तर पर साइकिल उत्पादन को बढ़ावा देने को पिछले वर्ष से ही योगदान दे रहे हैं, तो हमें बस आवश्यकता है सरकार की ओर से एक बढ़िया PLI स्कीम की, जैसा उन्होंने इस्पात, टेक्सटाइल उद्योग इत्यादि में किया है। जब अनेक मोर्चों पर भारत आत्मनिर्भर बनके चीन को पछाड़ रहा है, तो फिर साइकिल उत्पादन में हम क्यों पीछे रह जाएँ?

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