अर्नब को फंसाने वाले तीन यार- अनिल, सचिन और परमबीर, अब हैं कहाँ?

अर्नब के खिलाफ साज़िश रचने वालो को अब भोगना पड़ रहा है अपने कुकर्मों का फल!

पत्रकारिता

भ्रम और भ्रांति ही अज्ञानता और अशांति का मूल कारण है। पत्रकारिता पेशे को लेकर भी एक ऐसी ही विश्व विख्यात प्रचलित भ्रांति है। कुछ लोगों और पत्रकारों को लगता है कि पत्रकारिता सिर्फ राष्ट्र के शासकों की नकारात्मक आलोचना तक ही सीमित है, परंतु, ऐसा कैसे संभव है कि जिस स्तंभ पर लोकतंत्र टिका है, वह राष्ट्रवाद को लेकर इतना असहज और आलोचनात्मक हो? जबकि सच तो ये है कि एक पक्ष की ही आलोचना कभी पत्रकारिता नहीं हो सकती। पत्रकारिता तो राष्ट्र ध्वनि की शासन समक्ष सत्य की अभिव्यक्ति है।

अर्नब गोस्वामी भी ऐसा ही कर रहा थे। अर्नब जानते थे कि संविधान के प्रावधानों अनुसार शासन के अंतर्गत सिर्फ केंद्र सरकार ही नहीं अपितु राज्य सरकार भी आती है। अर्नब ने बिना किसी भेदभाव और पक्षपात के सिर्फ केंद्र ही नहीं राज्य सरकारों को भी अपने उत्तरदायित्व का बोध कराने वाली पत्रकारिता की। यही बात कुछ मीडिया संस्थानों, वामपंथी पत्रकारों और राज्य सरकारों मुख्य रूप से महाराष्ट्र महाविकास आघाड़ी सरकार को चुभने नलगी। अतः, उन्होंने अर्नब को अपने मार्ग से हटाने का निश्चय किया। महाराष्ट्र की उद्धव सरकार ने इसके लिए तीन लोगों को आगे किया। वो तीन लोग हैं- महाराष्ट्र सरकार के गृह मंत्री अनिल देशमुख, मुंबई पुलिस के पूर्व आयुक्त परमवीर सिंह और महाराष्ट्र क्राइम ब्रांच के मुखिया और पूर्व निलंबित अधिकारी सचिन वाज़े।

वह तो भला हो एंटीलिया प्रकरण का। 25 फरवरी 2021 को मुकेश अंबानी के घर के सामने एक स्कॉर्पियो में आरडीएक्स पाई गई। प्रसिद्धि, पैसा और प्रोमोशन के चक्कर में तात्कालिक अधिकारी सचिन वाजे ने इस केस को अपने नियंत्रण में ले लिया जबकि उस स्कॉर्पियो को उन्होंने ही एंटीलिया के सामने प्लांट किया था। रायता ज्यादा ना फैले इसलिए उन्होंने उस स्कॉर्पियो के निर्दोष मालिक मनसुख हीरेन को जानबूझकर इस मामले में फंसाया और अंततः उसकी हत्या कर दी।

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एनआईए ने जब इस केस की कमान अपने हाथों में ली तब परत-दर-परत इन प्रशासनिक और राजनीतिक भेड़ियों की कलई खुलती गई। फिर हत्या से लेकर राजनीतिक भ्रष्टाचार के बड़े बड़े मामले सामने आने लगे। लोगों को यह समझ में आया कि आखिर क्यों एक बर्खास्त पुलिस ऑफिसर को वापस सेवा में नियुक्त कर क्राइम ब्रांच जैसे अहम विभागों में नियुक्त किया गया? सचिन वाज़े असल में महाविकास आघाड़ी सरकार में पदासीन कांग्रेस नेता और गृह मंत्री अनिल देशमुख के दाहिने हाथ थे और परमवीर सिंह इस दाहिने हाथ के सहायक। भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में 5 बार ईडी के नोटिस की अवमानना करने वाले अनिल देशमुख ने उच्च न्यायालय द्वारा जमानत याचिका खारिज करने पर त्यागपत्र दिया और ईडी के समक्ष प्रस्तुत हुए।

स्मरण रहे कि ये वहीं अनिल देशमुख है, जिन्होंने महाराष्ट्र पुलिस को बार मालिकों और ठेकेदारों से रंगदारी वसूलने के काम पर लगा दिया था और आरोप हैं कि उन्हें 100 करोड़ रुपए इकट्ठा करने का टारगेट दिया था।

इसके साथ-साथ पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों के ट्रांसफर का रैकेट भी चलाते थे और इसके लिए ₹40,00,00,000 की रिश्वत लेने का भी आरोप लगा है। ऐसा हम नहीं बल्कि स्वयं सचिन वाजे कह चुके हैं। बर्खास्त मुंबई पुलिस अधिकारी सचिन वाज़े ने प्रवर्तन निदेशालय को बताया कि महाराष्ट्र के पूर्व मंत्री अनिल देशमुख चाहते थे कि रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी को टेलीविज़न रेटिंग पॉइंट्स घोटाला मामले में गिरफ्तार किया जाए।

इस प्रकरण के संदर्भ में मुंबई पुलिस आयुक्त परमवीर सिंह और खुफिया विभाग की आयुक्त सीमा शुक्ला ने भी क्रमशः मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और महाराष्ट्र पुलिस विभाग के मुखिया को पत्र लिखा, परंतु, महाविकास आघाडी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी। आखिर, वो कार्रवाई करे भी तो कैसे जब इस मामले में स्वयं उसके गृहमंत्री और सबसे चहेते पुलिस अधिकारी अभियुक्त हैं? परंतु मोदी सरकार और न्याय व्यवस्था ने कार्रवाई की। उच्च न्यायालय ने सीबीआई जांच के निर्देश दिए और अब ये लोग स्वयं ही एक-दूसरे की पोल खोल रहे हैं। हालांकि, परमवीर सिंह इस केस में फंसने के बाद कहीं विलुप्त से हो गए हैं।

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इसके विपरीत सचिन वाजे ने ईडी को दिए अपने एक अहम बयान में यह खुलासा किया है कि महाराष्ट्र सरकार के गृह मंत्री अनिल देशमुख चाहते थे की अर्नब गोस्वामी को किसी भी मामले में फंसाया जाए। देशमुख उनको गिरफ्तार करने की इतनी जल्दबाजी में थे कि इस काम का जिम्मा उन्होंने अपने सबसे चहेते पुलिस अधिकारी को सौंपा। चाहे पुलवामा में हमारे सैनिकों की शहादत हो, खुदकुशी का आरोप हो या निरर्थक और बेबुनियाद टीआरपी घोटाला हर मसले पर अर्नब को फंसाने की कोशिश की गई और अंततः वे असफल भी हुए।

वो कहते हैं ना सत्य परेशान हो सकता है, परंतु पराजित नहीं। हमारी विधि व्यवस्था ने भी सत्य और राष्ट्रवाद से भरी हुई पत्रकारिता को पराजित नहीं होने दिया और सत्य के ही आधार पर उनको बाइज्जत बरी कर दिया। अंततः सत्य की तो जीत हुई परंतु प्रश्न तो यह है कि आखिर सत्य परेशान भी क्यों हुआ? गलत कार्यों के निमित्त पुलिस और राजनीतिक व्यवस्था के गठजोड़ का कर्करोग आखिर हमारे शासन पद्धति में किस स्तर तक फैला हुआ है?

पुलिसकर्मी गुंडे बन गए और गुंडे राजनेता। भारतीय लोकतंत्र के लिए यह अत्यंत चिंताजनक है परंतु, जब यह गठजोड़ लोकतंत्र के सबसे मजबूत स्तंभ का गर्दन जकड़ ले तो यह राष्ट्र के विप्लव और विधायक क्रंदन का कारण बन जाता है। लोकतंत्र के मजबूत स्तंभ पर इतना विकृत राजनीतिक प्रहार कभी नहीं देखा गया और खास बात तो यह के प्राइम टाइम तक में भी इसकी चर्चा नहीं हुई। शायद, ये चार पंक्तियां प्राइम टाइम शोज़ और लुटियंस पत्रकारों के लिए एक सार्थक सबक साबित हो-

सच पर ही तो न्याय टिका है

शासन खड़ा है, धर्म बना है

हे लोकतंत्र के चौथे स्तंभ!!

सच से ही तुम बने हो। 

तो अगर कुछ कहो, तो सच कहो

चाहे तख्तापलट दो या ताज बदल दो।

पर अगर कुछ कहो तो सच कहो

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