पिछले दो दशकों से न्यायिक व्यवस्था में प्रचलित लालफीताशाही को लेकर काफी शोर-शराबा हुआ है। सार्वजनिक मंचों से इस समस्या पर लगातार चर्चा की जाती है परंतु, अंतर्निहित कारणों को दूर करने के लिए बहुत कम ही प्रयास किए गए हैं। अब न्यायपालिका ने यह आकलन करके समाधान का द्वार खोल दिया है कि भारत की न्यायिक प्रक्रिया की धीमी गति विधायिका द्वारा कानून बनाने में तेजी का परिणाम है।
भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश एनवी रमन्ना घोंघे की गति वाली न्यायिक प्रक्रियाओं के मूल कारण का पहचान करने के लिए आगे आए हैं। उनके अनुसार सरकार कानून बनाने और समाज पर इसके प्रभाव का आकलन करने में उचित परिश्रम का पालन नहीं करती है।
राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद और केंद्रीय कानून मंत्री किरेन रिजिजू की उपस्थिति में संविधान दिवस के समापन समारोह में बोलते हुए रमन्ना ने बताया कि “न्यायपालिका ने अपनी ओर से सरकार को कई सुझाव दिए हैं।” उन्होंने अपनी राय दी कि “लंबित न्याय वितरण तंत्र का मुद्दा प्रकृति तौर पर बहुआयामी है और संकट को हल करने के लिए राज्य के विभिन्न अंगों की आवश्यकता है।”
Negotiable Instruments Act की धारा 138 को विकृत कानून के उदाहरण के रूप में उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा-“एक और मुद्दा यह है कि विधायिका अध्ययन नहीं करती या कानूनों के प्रभाव का आकलन नहीं करती है, जो वह पारित करती है। यह कभी-कभी बड़े मुद्दों और जटिलता की ओर जाता है। धारा 138 की शुरूआत इसका एक उदाहरण है। पहले से ही बोझ तले दबे मजिस्ट्रेट पर बोझ बढ़ता जा रहा हैं। इसी तरह मौजूदा अदालतों को एक विशेष बुनियादी ढांचे के निर्माण के बिना वाणिज्यिक अदालतों के रूप में फिर से ब्रांडिंग करने से लंबित मामलों पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।”
CJI ने न्यायिक बुनियादी ढांचे में सुधार के लिए 9,000 करोड़ रुपये के आवंटन के लिए मोदी सरकार की भी सराहना की। हालांकि, उन्होंने कहा कि “फंड कभी भी वास्तविक समस्या नहीं थी, वास्तविक समस्या यह है कि कुछ राज्य फंड का उपयोग नहीं करते हैं।” उन्होंने केंद्रीय कानून मंत्री से न्यायिक बुनियादी ढांचे के लिए एक विशेष लक्ष्य स्थापित करने का भी अनुरोध किया।
वैसे CJI अपने आकलन में सही हैं कि विधायिका की लापरवाही न्यायिक देरी का कारण है पर यह ध्यान रखना भी उचित है कि कानून बनाने का उत्तरदायित्व सिर्फ विधायिका के पास ही नहीं है।
भारत जैसे विविध देश में कानून बनाना एक जटिल प्रक्रिया है। “वन साइज फिट ऑल” फॉर्मूले के भारत में काम करने की संभावना बेहद कम है। इसलिए, विधायिका कानून के अंतिम मसौदे तक पहुंचने के लिए परामर्शी प्रक्रिया को शामिल करने का निर्णय लेती है। इन परामर्शी प्रक्रियाओं में विषय विशेषज्ञों, प्रख्यात शिक्षाविदों, जेएनयू जैसे विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति, विभिन्न अध्ययन समूहों के प्रमुख और नीति अनुसंधान निकाय जैसे नीति अनुसंधान केंद्र आदि के साथ विचार-विमर्श के विभिन्न दौर शामिल हैं।
इन परामर्शी प्रक्रियाओं के साथ समस्या यह है कि इस प्रक्रिया में शामिल लोग और संस्थान स्वतंत्र भारत के अस्तित्व से नहीं बल्कि उपनिवेशिक विचारधारा से प्रभावित हैं। इसके अलावा इन संस्थानों की अपनी कोई कार्य प्रणाली या विचारधारा नहीं है और वे बस पश्चिमी मार्क्सवादी विचारधारा की नकल करते हैं और इसे भारतीय सेट-अप पर चिपका देते हैं।
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ये वामपंथी विचारक समाज को उत्पीड़क बनाम उत्पीड़ित में विभाजित करते हैं, जिसके तहत समाज का एक वर्ग हमेशा उत्पीड़ित रहेगा जबकि दूसरा भी उत्पीड़क होगा। अब, आबादी के इन उत्पीड़ित वर्गों का काल्पनिक रूप से उत्थान करने के लिए वे विधायिका को कानूनी सिद्धांतों से दूर जाने की सलाह देते हैं। कानूनी सिद्धांतों के खिलाफ जाने वाले कानून न्यायपालिका के लिए सबसे महत्वपूर्ण विवादों में से एक हैं।
आधुनिक न्यायिक प्रणाली पर आधारित सबसे महत्वपूर्ण कानूनी सिद्धांतों में से एक यह है कि, “एक आरोपी को तब तक निर्दोष माना जाता है, जब तक कि वह दोषी नहीं पाया जाता”। इस सिद्धांत को इस बात को ध्यान में रखते हुए लागू किया गया है कि मनुष्य की आदिवासी मानसिकता होती है और यदि अभियुक्त पर अपनी बेगुनाही साबित करने का बोझ होता है तो यह लोगों द्वारा अपने व्यक्तिगत कलह और दुश्मनी को निपटाने के लिए बहुत सारे मामलों को जन्म देगा।
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 में लोक लुभावनवाद पर सवार सरकार ने इस मौलिक कानूनी सिद्धांत को खत्म करने का फैसला किया। इसने समाज के कथित उच्च वर्ग वर्ग पर तत्कालीन ‘उत्पीड़ित’ समूह द्वारा फर्जी मामलों की अधिकता को जन्म दिया है।
इन दो कानूनी उदाहरणों से आप समझ ही गए होंगे कि हमारे कानूनी प्रक्रिया में शामिल तथाकथित बुद्धिजीवी लोग किस प्रकार कानूनी पेचीदगी को जन्म देते हैं। ऊपर से हमारी विधायिका अभी भी औपनिवेशिक मानसिकता में जकड़ी हुई है। आज भी हमारी कानूनी प्रणाली चाहे वो प्रक्रियात्मक हो या संवैधानिक, ब्रिटिश आधारित है और इस व्यवस्था में बैठे तथाकथित बुद्धिजीवी लोग इसी रूढ़िवादी व्यवस्था और संरचना का समर्थन करते है। हालांकि,मोदी सरकार ने इन्हें पूर्ण रूप से परिवर्तन करने का प्रयत्न कर रही है। सरकार का इस संदर्भ में प्रयत्न सराहनीय है।