एक सरकारी विज्ञापन में संविधान के प्रस्तावना पाठ को ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्दों के बिना चित्रित करने से विवाद खड़ा हो गया है। परंतु, जो लोग यह विवाद खड़ा कर रहें है, उन्हे यह समझने की जरूरत है कि वास्तविक रूप से हमारा मूल संविधान इन दो शब्दों से रहित ही था। संविधान सभा की बहस स्पष्ट रूप से दिखाती है कि मूल प्रस्तावना में इन दो शब्दों को क्यों छोड़ दिया गया था। संविधान सभा की बहस में डॉ. BR अम्बेडकर ने तर्क दिया कि ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को शामिल करने की कोई आवश्यकता नहीं थी क्योंकि पूरे संविधान में धर्मनिरपेक्ष राज्य की अवधारणा शामिल थी, जिसमें अर्थ था धर्म के आधार पर गैर-भेदभाव और सभी नागरिकों को समान अधिकार, स्थिति और अवसर देने का संकल्प है।
बाबा साहब अंबेडकर के विचार
‘समाजवादी’ शब्द को प्रस्तावना में शामिल करने की बहस पर बाबा साहब ने कहा था कि संविधान के माध्यम से तय करना की भारत के लोगों को किस तरह के समाज में रहना चाहिए, लोकतंत्र के मूल्यों के खिलाफ है ।
बाबा साहब अंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था कि “आज बहुसंख्यक लोगों के लिए यह मानना पूरी तरह से संभव है कि समाज का समाजवादी संगठन पूंजीवादी संगठन से बेहतर है। लेकिन, हम संविधान को इस तरह से निर्मित करें की सोचने वाले लोगों के लिए यह पूरी तरह से संभव होगा कि वे सामाजिक संगठन के किसी अन्य रूप को किस तरह से विकसित करें, जो आज या कल के समाजवादी संगठन से बेहतर हो। इसलिए मैं नहीं समझता की संविधान को लोगों को एक विशेष रूप में रहने के लिए बांधना चाहिए। हमें इसे खुद लोगों पर तय करने के लिए छोड़ना चाहिए।”
उनके इन्ही वाक्यों ने “समाजवादी और धर्म निरपेक्ष” शब्दों को छोड़ने के अंतिम निर्णय को प्रभावित किया था।
इंदिरा की चाल
हालाँकि, प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने 1976 के 42 वें संविधान संशोधन में राजनीतिक कारणों से इन दो शब्दों को पुनः पेश किया था। ‘समाजवादी’ शब्द को राजनीतिक रूप से यह संदेश देने के लिए जोड़ा गया था कि वह गरीबों के लिए खड़ी हैं। इन्दिरा गांधी को बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रिवी पर्स की समाप्ति, भू-अधिग्रहण कानून को लागू करने के लिए भारत के आम जन के सामन अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध करनी थी ताकि वो अधिक से अधिक समय तक सत्ता में बनी रह सकें। इसीलिए उन्होने संविधान के प्रस्तावना में अलग से समाजवाद जोड़ा जबकि संविधान की धारणा में यह पहले से परिलक्षित था। ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द स्पष्ट रूप से अल्पसंख्यकों के लिए आपातकालीन अवधि के जन्म नियंत्रण और नसबंदी कार्यक्रमों के संदर्भ में था। ऐसा नहीं था कि शब्द जोड़े जाने से पहले संविधान धर्मनिरपेक्ष या समाजवादी नहीं था। भारत 42वें संशोधन से पहले धर्मनिरपेक्ष रहा है और उसके बाद भी धर्मनिरपेक्ष बना हुआ है। यह केवल राजनीति खेल रहा था।
समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष रहित प्रस्तावना मूल संविधान को प्रदर्शित करती है जो मूल रूप से प्रसिद्ध कलाकार नंदलाल बोस की सुलेख के साथ संविधान सभा के सदस्यों द्वारा हस्ताक्षरित है। यह 26 जनवरी 1950 की उस प्रस्तावना को दर्शाता है जब देश एक गणतंत्र बना था।
उच्चतम न्यायालय में याचिका
सुप्रीम कोर्ट (SC) में दायर एक याचिका ने इस पर कानूनी बहस छेड़ दी है कि क्या भारत के नागरिकों को धर्मनिरपेक्ष होने के लिए मजबूर किया जा सकता है, जब संविधान उन्हें अनुच्छेद 25 के तहत अपने स्वयं के धर्म को मानने और प्रचार करने का अधिकार देता है।
याचिका में संविधान की प्रस्तावना से “धर्मनिरपेक्ष” और “समाजवादी” शब्दों को हटाने की मांग की गई है, जिसे 1976 में संसद द्वारा पारित 42वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया था।
काला इतिहास
प्रस्तावना में जोड़े गए ये दो शब्द देशपर गर्व से ज्यादा उलाहने के समान है। भारत का संविधान विश्व का सर्वोत्तम संविधान है जो सभी सुसिद्धांतों से परिपूर्ण है। ऊपर से जिस तरह से इन शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ा गया था वह स्वयं में भारत का कलंक है। वे ऐसे समय में डाले गए थे जब भारत में कोई लोकतंत्र नहीं था।1976 में जब ये शब्द प्रस्तावना में डाले जा रहे थे तब इन्दिरा गांधी नें देश में आपातकाल लगा रखा था। 28 अगस्त 1976 को जब कानून मंत्री एच.आर. गोखले ने 42वां संविधान संशोधन विधेयक पेश किया तो विपक्ष की बेंच खाली थी। इन शब्दों के विवाद में इस एक तथ्य को आसानी से नजरअंदाज कर दिया की समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्द इन्दिरा सरकार के उस योजना का हिस्सा थे, जिसने संविधान को फिर से लिखा और इसके मूल ताने-बाने को फाड़ दिया। अब समय आ गया है जब प्रस्तावना से इन शब्दों को हटा दिया जाए।