राणा राज सिंह – जिसके नाम से ही मुग़ल शासन त्राहिमाम कर उठता था!
एक राजकुमारी ने कहा, “ये चित्र तो बहुत देखे। किसी अनुपम राजकुमार का चित्र तो बताइए!”
वृद्ध दासी – “यह हिंदुस्तान के बादशाह आलमगीर हैं! मुकम्मल हिंदुस्तान में इनका कोई सानी नहीं है!”
वह राजकुमारी खिलखिलाकर हंसी और बोली, “हा-हा! इस वनमानुष से कौन शादी करेगा?
इसकी तस्वीर तो मेरे पैरों के नीचे होनी चाहिए!”
राजकुमारी के मुख से इन शब्दों के निकलते हीं पूरे भवन में हाहाकार मच गया। जिसने सिंहासन के लिए अपने ही भाइयों को पीड़ादायक मृत्यु दी हो, जिसने सत्ता के लिए अपने ही पिता को बंदी बना दिया, उस औरंगजेब के बारे में अनुचित सोचना, उपहास तो बहुत दूर की बात रही। पर यहीं से नींव पड़ी कलयुग के एक अनोखे रामायण की, जहां रावण थे औरंगज़ेब, सीता मैया थी किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमति और श्रीराम के प्रतिबिंब थे उन्ही के वंशज, जिन्होंने जाने अनजाने में भारत के द्वितीय स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी!
लोग कहते हैं भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम 1857 में लड़ा गया था। वे गलत नहीं है, परंतु 1857 अंग्रेजों के विरुद्ध भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम तो था ही किन्तु इससे पहले भी विदेशी आक्रान्ताओं के विरुद्ध भारत में विद्रोह की ज्वाला उमड़ी थी। एक 1336 में, तुर्की सल्तनत के विरुद्ध, तो दूसरी 1659 में मुगलिया सल्तनत के विरुद्ध। दोनों में एक बात समान थी – विदोह का प्रारंभ राजपूताना क्षेत्र से हुआ और इसे आगे बढ़ने का काम किया दक्षिण भारत के महान योद्धाओं ने, चाहे वो तुर्क के विरुद्ध विजयनगर के योद्धा हो, या फिर मुगल के विरुद्ध मर्द मराठा और उनके महान शासक, छत्रपति शिवाजी महाराज।
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अध्याय : प्रथम
(शूरवीर, पराक्रमी और देवतुल्य – राणा राज सिंह की अद्भुत कथा)
अब कथा की ओर लौटते हैं। जब चारुमति ने औरंगजेब का उपहास उड़ाने का दुस्साहस किया, तो इस खबर के आगरा पहुंचने में कोई विलम्ब नहीं हुआ। नवे-नवे ‘आलमगीर’ बने औरंगज़ेब की तभी तीन-तीन पत्नियां थी, जिनमें से एक बादशाह बनने से पहले ही स्वर्गवासी हो गई थी और शाही हरम में वे जाने कितनी दासियां भी रखते थे। लेकिन चारुमति का एक चित्र देखते ही इन ‘ज़िंदा पीर’ की सारी धार्मिकता गई तेल लेने और फिर जीवन में एक ही उद्देश्य रह गया और वह था चारुमति को किसी भी स्थिति में प्राप्त करना। संक्षेप में कहें तो, वासना ने मति हर ली थी।
अब यह बात जब चारुमति तक पहुंची, तो वह विचलित हो गई। यूं तो उसने उपहास अवश्य उड़ाया था, परन्तु कहीं न कहीं मुगल और उनके क्रूर सभ्यता के विरुद्ध उनके अन्तः स्थल में विद्रोह की ज्वाला अवश्य उमड़ रही थी। अब वह जानना चाहती थी कि कौन ऐसा योद्धा है राजपूताने में, जिसमें तनिक भी पुरुषत्व जीवित हो।
जहां एक तरफ किशनगढ़ के राजा औरंगजेब के आदेश को सिर आँखों पर नवा रहे थे, तो वहीं राजकुमारी चारुमति ने गुप्त रूप से राजपूताने के विभिन्न प्रांतों को अपने सतीत्व की रक्षा के लिए गुहार लगाई। ऐसे ही एक पत्र पहुंचा एक युवा शासक, राज सिंह सीसोदिया के पास।
अब ये राज सिंह कोई ऐसे वैसे शासक नहीं थे, बल्कि मेवाड़ प्रांत के राणा राज सिंह थे। इनके पूर्वजों में महावीर बप्पा रावल भी शामिल थे और महाराणा हम्मीर भी, और इन्हीं के पूर्वजों में वे महाराणा कुम्भ और महाराणा प्रताप भी थे, जिन्होंने मेवाड़ और भारत की आन-बान-शान के लिए अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया, परंतु अब राणा राज सिंह उन सबसे बहुत दूर आ चुके थे। वे उसी मुगल दरबार के चाकर थे, जिनके विरुद्ध महाराणा प्रताप ने लड़ते-लड़ते अपने प्राणों की आहुति तक दे दी थी।
परन्तु हर शूरवीर को अपना पराक्रम सिद्ध करने का एक अवसर अवश्य मिलता है, और वही मिला राजकुमारी चारुमति के पत्र के रूप में। अब मेवाड़राज को यह पत्र जिस समय मिला, तो वे धर्मसंकट में पड़ गए। वे अपने ‘अन्नदाता’ यानि मुगलिया सल्तनत के विरुद्ध शस्त्र उठाने वाले थे और ये मेवाड़ के लिए किसी ‘पाप’ से कम नहीं होता। लेकिन राणा राज सिंह अपने संस्कृति से भी बराबर प्रेम करते थे, और एक स्त्री की पुकार को नामंजूर करना उन्हें घोर कलंक का भागी बनाता। इसके अतिरिक्त राणाजी के मन में एक अग्नि भी वर्षों से धधकती थीं, वह थी प्रतिशोध की अग्नि।
वर्षों पहले अपने राज्य के सुंदरीकरण की दृष्टि से राणा जगत सिंह ने जीर्ण-शीर्ण पड़ चुके चित्तौड़ दुर्ग का नवीनीकरण कराया। लेकिन इससे मुगलिया शान को ऐसा आघात पंहुचा कि उन्होंने न केवल मेवाड़ पर आक्रमण की धमकी दी, अपितु राणा जगत सिंह को क्षमा मांगने पर भी विवश किया। इस अपमान के साक्षी राणा राज सिंह भी थे और वे इस अपमान को कदापि नहीं भूल पाए थे।
ऐसे में, राणा राज सिंह ने अपने हृदय की सुनी और चल पड़े वे सतीत्व की रक्षा करने। लोक कथाओं में कहा जाता है कि जब राजकुमारी चारुमति की डोली को मुगल सैनिकों के संरक्षण में संभवत: आगरा ले जाया जा रहा था, तो राणा राज सिंह, जो छापामार युद्ध के विशेषज्ञ थे, अचानक से एक छोटी-सी सशक्त टुकड़ी सहित मुगलों पर टूट पड़े और उनके सामने से राजकुमारी चारुमति को भगा के ले गए।
औरंगजेब के पास सब कुछ था – सत्ता, शक्ति एवं धन। लेकिन एक राजकुमारी की चाहत में उसने अखंड भारत में विद्रोह की वो ज्वाला भड़काई, जिसने उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक भारत को मुगल सल्तनत के विरुद्ध एक कर दिया। इसी विद्रोह की अग्नि से दमकते हुए सोने की तरह निकले चार वीर योद्धा, जिन्हें देवतुल्य कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। उत्तर में थे गुरु गोबिन्द सिंह जी महाराज, पूरब में थे वीर लाचित बोरफुकान और पश्चिम में थे राणा राज सिंह।
इसी अनोखी गाथा को थोड़ी-सी रचनात्मक स्वतंत्रता के साथ अमर लेखक बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने अपनी पुस्तक के माध्यम से जीवित करने का प्रयास किया था।
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अध्याय : द्वितीय
(प्रेम, प्रतिशोध और स्वराज का अद्भुत संगम – राणा राज सिंह की अद्भुत कथा)
यूं ही नहीं राणाजी की स्तुति में छत्रपति शिवाजी महाराज ने आलमगीर को कहा था, ‘निर्धन पर शक्ति न दिखाओ, सामर्थ्य हो तो राणा राज सिंह से जज़िया लेके दिखाओ!” जब शिवाजी राजे ने आलमगीर की औकात बताते हुए उसे राणा राज सिंह से जज़िया लेने की चुनौती दी, तो उन्होंने ये बात यूं ही नहीं कही थी। राणा राज सिंह का कौशल और पराक्रम ही ऐसा था कि औरंगजेब की सेनाएं एक नहीं, बल्कि तीन बार राणाजी के योद्धाओं द्वारा परास्त हुई। सर्वप्रथम, शेर की मांद में घुसकर उसे चुनौती देना कोई छोटी बात नहीं, परन्तु ये महान कार्य राणा राज सिंह ने बिना किसी समस्या के सफलतापूर्वक किया और किशनगढ़ की राजकुमारी चारुमति के सतीत्व की रक्षा भी की। औरंगज़ेब क्रोध से भभक रहे थे, परंतु उन्होंने खून का घूंट पीते हुए कुछ समय के लिए प्रतिशोध की भावना पर लगाम लगाई।
इसी बीच 1660 के दशक के अंतिम वर्षों में कई अभूतपूर्व कार्य हुए। सर्वप्रथम तो छत्रपति शिवाजी महाराज मुगलों के नेत्रों में धूल झोंकते हुए आगरा से सकुशल निकल आए, और
इस बीच मारवाड़ में विद्रोह की बरसात हुई, जब महाराजा जसवंत सिंह और उनके विश्वासपात्र सेनापति दुर्गादास राठौर ने मुगल सल्तनत के विरुद्ध अपना झण्डा बुलंद किया। इसी क्षण मारवाड़ राज जसवंत सिंह की पत्नी ने मेवाड़ से सहायता मांगी क्योंकि मेवाड़ उनकी जन्मस्थली थी। इसके अतिरिक्त, वर्षों बाद मेवाड़ में स्वाभिमान की रौनक आई थी और इस बार भी राणा राज सिंह के दरबार से कोई खाली हाथ नहीं गया। औरंगजेब को जब इसकी सूचना मिली, तो उसने मेवाड़ की राजधानी उदयपुर पर आक्रमण के लिए अपनी सेनाएं भेजी। लेकिन जब तक मुगल सेना उदयपुर पहुंची, वह निर्जन प्रतीत हुआ। एक पक्षी भी वहां नहीं उड़ रहा था। मुगल राजकुमार अकबर कुछ समय के लिए विश्राम करने की सोचे ही रहे थे कि अचानक से वज्रपात के समान राणाजी की सेना टूट पड़ी और फिर मुगलों की वो कुटाई हुई, जिसके कारण शहजादे अकबर को दुम दबाके भागना पड़ा था।
मुगलों ने तीन बार ऐसे आक्रमण किया था और तीनों बार छापामार युद्ध के कारण मुगलों की जबरदस्त कुटाई हुई। इतना ही नहीं, जब श्रीकृष्ण जन्मभूमि परिसर का औरंगजेब ने विध्वंस किया, तो श्रीनाथजी की मूर्ति को किसी तरह बाहर तो निकाल लिया गया पर समस्या यह थी कि इस मूर्ति की रक्षा कौन करेगा? जब कोई नहीं माना, तो मेवाड़राज आगे आए, और उन्होंने ससम्मान श्रीनाथजी को मेवाड़ में स्थापित किया।
लेकिन नीति की कुटिल रीति ने इस विभूति को हमसे छीन लिया। जैसे राणा कुम्भ की अच्छाई कइयों के लिए शूल की भांति चुभने लगी, वैसे ही राणा राज सिंह का पराक्रम भारत को गुलाम देखने वालों के लिए शूल की भांति चुभने लगा। उनके षड्यन्त्र आखिरकार सफल हुए और विष सेवन से राणा राज सिंह का 1680 में देहांत हो गया। यह घटना ठीक उसी वर्ष घटी, जब हिंदवी स्वराज्य के जनक छत्रपति शिवाजी महाराज इस संसार को छोड़ चुके थे।
ये कथा है मेवाड़ के गौरव को पुनर्जीवित करने की, ये कथा है भारत के दूसरे स्वतंत्रता संग्राम के उत्पत्ति की, ये कथा है सतीत्व के रक्षा की, ये कथा है संस्कृति के उत्थान की, धन्य है राणा राज सिंह और धन्य है भारत भूमि, जहां ऐसे वीर जन्मे।
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