रूस और भारत द्वारा समर्थित मध्य एशिया अब चीन के BRI से फिरौती वसूल रहा है

चीन का BRI अब बना उसी के गले की फांस

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चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग का महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट BRI अब उनके ही गले की फांस बन चुका है। दुनिया भर में BRI को विरोध का सामना करना पड़ रहा है। कई देशों को अपने ऋण जाल में फंसा चुका चीन अब स्वयं जाल में फंस चुका है। अफ्रीका में विरोध के बाद अब BRI का मध्य एशिया में भी विरोध आरंभ हो चुका है और इसमें इन सभी मध्य एशियाई देशों को भारत और रूस का भरपूर समर्थन मिल रहा है।

चीन ने सोवियत संघ से अलग हुए मध्य एशिया के देशों में BRI के तहत करोड़ों का निवेश किया था। अपने वर्चस्व की रणनीति के तहत, पांच मध्य एशियाई देशों में चीनी FDI 14.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर है, जो कि वर्ष 2018 तक एशिया में बीजिंग के कुल निवेश का 1.2 प्रतिशत था।

चीन का BRI अब बना उसी के गले की फांस

चीन ने वर्ष 2013 से कजाकिस्तान में 17 बिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक, उज्बेकिस्तान और किर्गिस्तान में लगभग 4 बिलियन अमेरिकी डॉलर और ताजिकिस्तान में 710 मिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक की परियोजनाओं में निवेश किया है। देखा जाए तो इन परियोजनाओं का इन देशों को कोई फायदा नहीं हुआ, बस कंक्रीट इंफ्रास्ट्रक्चर बन कर रह गए। न किसी स्थानीय लोगों को नौकरी मिली, न ही किसी लोकल कंपनी को कोई कांट्रैक्ट मिला और न ही कौशल विकास हुआ। चीन ने इन देशों को पैसा कर्ज पर दिया, लेकिन इंफ्रास्ट्रक्चर के निर्माण के लिए चीनी कंपनी को ही कांट्रैक्ट दिया और चीनी श्रमिकों से ही काम कराया। यानी चीन ने जो कर्ज दिया था, वह इन कंपनियों और श्रमिकों के माध्यम से वापस चीन में ही वापस आ गया।

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अब चीन के इसी चाल को समझते हुए सभी मध्य एशियाई देश BRI की परियोजनाओं के लिए अपनी मांगों को प्रखर रूप से रख रहे हैं। कार्नेगी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस थिंक टैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के बजाय बीजिंग का ध्यान मध्य एशियाई अर्थव्यवस्थाओं के औद्योगीकरण की ओर स्थानांतरित हो गया है। साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि कैसे चीनी कंपनियों को मध्य एशियाई देशों की सरकार और नागरिकों की मांगों को मानना पड़ रहा है, जो स्थानीय स्तर पर अधिक रोजगार, निर्यात और कौशल प्रशिक्षण चाहते हैं।

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मध्य एशिया में रूस का प्रभाव बढ़े ऐसा नहीं चाहता चीन

मध्य एशियाई देश अब स्वयं को चीन की भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं का मोहरा नहीं बनने दे रहे हैं। इसीलिए चीन अपनी किस्मत को बचाना चाहता है तथा मध्य एशियाई सरकारों को खुश रखने की कोशिश कर रहा है। चीन को डर है कि अगर यह क्षेत्र उसके हाथ से निकला, तो अमेरिका और रूस इस क्षेत्र में अपनी शक्ति और प्रभाव बढ़ाने का एक भी मौका नहीं छोड़ेंगे। चीन को मध्य एशिया से बाहर रखने में भारत, रूस और यहां तक ​​कि अमेरिका का भी परस्पर हित है, क्योंकि यह क्षेत्र पूर्वी, पश्चिमी, उत्तरी और दक्षिणी देशों का एक प्रकार से क्रॉसिंग प्वाइंट है।

कज़ाकिस्तान के Nazarbayev University में राजनीति विज्ञान और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की सहायक प्रोफेसर जेसिका नेफी ने कहा,“चूंकि चीन अन्य शक्तियों के अधिक दबाव का सामना कर रहा है, इसलिए उसे स्थानीय जरूरतों पर अधिक ध्यान देने या अपने प्रभाव और ऊर्जा स्रोतों को खोने के लिए मजबूर होना पड़ेगा।” उन्होंने कहा कि इस क्षेत्र में अपनी शक्ति और प्रभाव का विस्तार करने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस के बढ़ते दबाव के बीच चीन मध्य एशियाई सरकारों को खुश रखने पर अपना ध्यान केंद्रित कर रहा है।

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रिपोर्ट के अनुसार चीनी कंपनियों ने भी मध्य एशिया में स्थानीय श्रमिकों के अपने अनुपात में लगातार वृद्धि की है। कजाकिस्तान सफलतापूर्वक चीन पर अधिक स्थानीय श्रमिकों को काम पर रखने और उन्हें अधिक समान रूप से भुगतान करने के लिए दबाव बनाने में सफल रहा था।

रुस के प्रभाव के साथ भारत की ओर हो चुका है इन देशों का रुख

अब इन सभी देशों को चीन के इस चाल का पता चल चुका है और वे सभी स्थानीय लोगों को नौकरी देने के लिए चीन पर दबाव बनाना आरंभ कर चुके हैं। इन सभी मध्य एशियाई देश में रूसी प्रभाव है और साथ ही अब इन देशों में भारत की भी रुचि है। हाल ही में पांच मध्य एशियाई देशों ने अफगानिस्तान की स्थिति पर विशेष ध्यान देने के साथ, नई दिल्ली के साथ क्षेत्र के महत्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा करने के लिए शनिवार को अपने विदेश मंत्रियों को भारत भेजा था। इसका अर्थ यह है कि ये सभी देश चीन के बाजार को छोड़ भारत की ओर मुड़ रहे हैं।

बड़े पैमाने पर पाइप लाइन बिछाने, परिवहन गलियारे, रिफाइनरी, बिजली संयंत्र आदि बनाने के बाद चीन को अब कौशल विकास पर ध्यान केंद्रित करने, स्थानीय और छोटे पैमाने के उद्योगों का निर्माण करने और मेजबान से श्रमिकों को काम पर रखने के लिए मजबूर किया गया है। देखा जाए तो यह विशेष रूप से मध्य एशिया में एक वर्चस्ववादी चीनी उपस्थिति के दृष्टिकोण के विपरीत है। चीन ने मध्य एशिया में जो भी पैसा डाला है, वह प्रभावी रूप से व्यर्थ है। अब चीन को अपना प्रभाव बानए रखने के लिए पैंतरे को बदलना पड़ रहा है। इस नई रणनीति के साथ, मध्य एशिया के देशों को कर्ज में डुबाने का उसका तात्कालिक लक्ष्य हासिल नहीं होगा।

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