Frustrated Review: ‘दिल धड़कने दो’ का एक बहुत देर लेकिन सटीक विश्लेषण

हम 'सूर्यवंशम' का खीर खा लेंगे, लेकिन 'दिल धड़कने दो' दोबारा नहीं देखेंगे!

दिल धड़कने दो

Source- TFIPOST

क्या गोबर को एक आकर्षक पकवान के रूप में सजाकर लोगों को ग्रहण करने पर विवश किया जा सकता है? क्या प्रोग्रेस के नाम पर पुरुषों को और देसी संस्कृति को अपशब्द सुनाना कूल हो सकता है? बिलकुल हो सकता है, क्योंकि ‘दिल धड़कने दो’ यही सिखाता है! इस फिल्म के किरदार भी अद्भुत हैं, जिसमें एक अरबपति पति-पत्नी, उनके अल्ट्रा डिप्रेस्ड बेटा-बेटी और एक अति बुद्धिमान श्वान है, जिसका किरदार आमिर खान निभा रहे हैं! अरे ठहरिये, अभी से उछलिये मत, इस अद्भुत लोक में आपने मात्र प्रवेश किया है। इस मूवी में मुख्य भूमिका है कबीर मेहरा यानी झकास अनिल कपूर की, जो एक अमीर और व्यभिचारी बिजनेसमैन है। पत्नी सब जानती है, पर लोक लाज में चुप रहती है, क्योंकि लोग क्या कहेंगे?

बेटा लाखों करोड़ों उड़ाता है, पर पायलट नहीं बन पाया, तो डिप्रेस्ड है। बहन ट्रेवल कम्पनी चलाती है, परन्तु वो अपने विवाह से संतुष्ट नहीं है। इसी पसोपेश को प्लूटो नामक श्वान अपनी मदमस्त नेत्रों और आकर्षक कंठ से बताता है। अगर दिल धड़कने दो को कुछ शब्दों में समाहित करें, तो यदि ‘हम आपके हैं कौन’ से आपको बचपन में बहुत जलन मचती थी, यदि आपको परिवार तोड़ने में विशेष दिलचस्पी है, यदि आपको अपनी संस्कृति का उपहास उड़ाने में आनंद मिलता है, तो दिल धड़कने दो आपके लिए सबसे बेशकीमती उपहार है, क्योंकि यहां आज्ञाकारी पुत्र होना अपराध है, अपनी संस्कृति का सम्मान करना Uncool है और तो और एक पुरुष होना तो सबसे बड़ा अपराध है! Wokeism, Gender Fluidity तो बालकों के खिलौने है, असल विष तो इस मूवी में पडा है।

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Hypocrisy की भी सीमा होती है!

इस मूवी में फरहान अख्तर, राहुल बोस यानी मानव को नारी सशक्तिकरण पर एक डायलॉग से क्लीन बोल्ड करने का प्रयास करते दिखते हैं, जिसे देखने के बाद पूरे देश की लड़कियां और कुछ अति भावुक पुरुष फेमिनिस्ट भावनाओं में कुछ अधिक ही बह गए! लेकिन आखिर गलती क्या थी मानव (राहुल बोस) की? अपने मां की सेवा करना पाप है क्या? नन्हें-मुन्हें बच्चों को तारों के अनोखे स्वरूपों से परिचित कराना और उनके संस्कृत नाम बताना पाप है क्या? अपने पत्नी के व्यभिचारी होने पर उससे प्रश्न पूछना पाप है क्या?

अब बात नारी सशक्तिकरण पर उठी ही है, तो The Queen of the Hour सुश्री आयशा मेहरा (प्रियंका चोपड़ा) पर भी ध्यान देने की जरुरत है। कहने को महोदया एक सफल ट्रेवल कम्पनी चलाती हैं, एक सेल्फ मेड वुमन हैं। परंतु, उन्हें दिक्कत इस बात की है कि उन्हें प्रॉपर्टी में हिस्सा नहीं मिला, उन्हें समस्या इस बात से है कि उन्हें मां बनने के लिए बाध्य किया जा रहा है।

चलिए, ये बात भी उचित है, इसे हम नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते, क्योंकि जब ज़माना बदल रहा है, तो हम पुराने विचार से क्यों बंधे रहें। परंतु फिर नारी सशक्तिकरण पर यही लम्बे चौड़े ज्ञान देने वाली प्रियंका चोपड़ा बातचीत करने के बजाये गर्भनिरोधक गोलियां चबाती है और फरहान अख्तर को देखते ही अपना नियंत्रण खो बैठती है और फिर मानो Hypocrisy भी आत्महत्या कर ले!

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इस मूवी में जीत होती है Wokeism की

अभी दिल धड़कने दो में पायलट चन्द कबीर और फराह अली के बीच के मधुर संबंधों पर जितनी कम चर्चा हो, उतना ही अच्छा है। लेकिन जब मानव को आयशा मेहरा यानी प्रियंका चोपड़ा के कर्मकांडों के बारे में पता चलता है, तो वो अनिल कपूर से शिकायत करने आते हैं, क्योंकि ऐसी बातों को नज़रअंदाज थोड़ी न किया जायेगा। पर यह जोया अख्तर की मूवी है, तो पुरुष गलत होगा ही! ऐसे में दिल धड़कने दो में भी अंत में जीत होती है नारीवाद की, जीत होती है Wokeism की और जीत होती है एजेंदावाद की।

तो इस मूवी का स्पष्ट सार क्या है? धरती फट जाए, कयामत का मंजर आ जाए, आसमान काला पड़ जाए, पर पुरुष कभी सही नहीं होगा। स्वयं व्हाईट हाउस भी प्रमाणित कर दे, परन्तु भारतीय संस्कृति कभी भी प्रोग्रेसिव और कूल नहीं होगी और तो और आज्ञाकारी पुत्र होना सबसे बड़ा पाप है भैया! एक बार को हम सूर्यवंशम की खीर खाने को तैयार हो जाएं, परन्तु यदि कोई फिर कहे कि दिल धड़कने दो एक उत्कृष्ट मूवी है, तो भगवान भी उसका कुछ नहीं कर सकते!

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