भारत को 5वीं पीढ़ी के लड़ाकू विमानों की विकट आवश्यकता है और Make In India ही है एकमात्र विकल्प

अभी नहीं तो कभी नहीं!

लड़ाकू

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भारतीय सीमा विश्व की सबसे जटिलतम और खतरनाक सीमा है। जटिलतम इसलिए क्योंकि हमारे दो पड़ोसियों को ये सीमाएं मान्य नहीं है और खतरनाक इसलिए कि इस विवादित सीमा के सभी पक्षकार परमाणु संपन्न राष्ट्र हैं। ऊपर से दोनों अलोकतांत्रिक राष्ट्र लोकतांत्रिक भारत को अपना दुश्मन मानते है और भारत को खत्म करने का दुस्वप्न देखते हैं। परंतु, इनके दुस्वप्न और यथार्थ के मध्य अगर कोई खड़ा है तो वो है भारतीय सेना का पराक्रम और हमारे सैन्य संसाधन। किंतु पराक्रम पर्याप्त नहीं है, क्योंकि 1962 में सैन्य इतिहास का सबसे बड़ा पराक्रम दिखाने के बावजूद हमें मुंह की खानी पड़ी थी। 1962 में हमने सीखा कि युद्ध जान देकर नहीं, जान लेकर जीती जाती है। शत्रु सेना पर विजय प्राप्ति के लिए उन्नत हथियार चाहिए और उन हथियारों की संख्या भी पर्याप्त होनी चाहिए। भारतीय सेना अभी इसी संख्या और गुणवत्ता के समस्याओं से गुजर रही है।

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वायुसेना को चाहिए 42 स्क्वाड्रन

पाकिस्तान से हमारी वायुसेना गुणवत्ता और संख्याबल दोनों में बेहतर है। ये बात पाक भी जानता है, अतः वो किसी भी प्रकार का दुस्साहस करने का सामर्थ्य नहीं कर सकता। परंतु, चीन अभी भी मुगालते में है और वो भारत को 1962 के चश्मे से देखता है। हालांकि, भारतीय सैनिकों के शौर्य का एहसास उसे 1962 में ही हो गया था, पर सैन्य संसाधनों में वो अभी भी हमें कमतर आंकता है। चीन को लगता है कि जब तक भारत सैन्य संसाधनों में उससे पिछड़ा हुआ है, तभी वो अपनी विस्तारवादी आकांक्षाओं को पूर्ण कर सकता है, अन्यथा पराक्रम में तो भारतीय योद्धाओं का समस्त विश्व में कोई सानी नहीं है।

भारतीय सैन्य संसाधन की कथित तौर पर सबसे कमजोर कड़ी वायुसेना ही है। यह कथन पाकिस्तान या चीन के संदर्भ में तो सही नही है, पर अगर दोनों एक साथ लड़े तो मामला फंस सकता है और यह निश्चित है कि जब भी लड़ेंगे तो दोनों एक साथ ही लड़ेंगे। अगर इस परिस्थिति का आंकलन कर योजना बनाई जाए, तो भारतीय वायुसेना संख्याबल में इन दोनों देशों से पिछड़ जाएगी। भारत को दो मोर्चों पर युद्ध करने के लिए वायुसेना को 42 स्क्वाड्रन चाहिए, जबकि हमारे पास सिर्फ 32 हैं। उसमे भी मिग जैसे पुराने समय के लड़ाकू विमान है, जिन्हें उड़ते हुए ताबूत के नाम से जाना जाता है।

आनेवाले समय में जब ये विमान सेवानिवृत होंगे, तब हमारी क्षमता घटकर 24-28 स्क्वाड्रन की रह जाएगी। आपको बता दें कि एक स्क्वाड्रन में 20 विमान होते हैं। विमानों की गुणवत्ता और विविधता के मामले में हम दोनों देशों से आगे हैं, क्योंकि हमारे पास फ्रांसीसी मिराज और राफेल, रूस निर्मित सुखोई और स्वदेशी तेजस है, पर यह पर्याप्त नहीं है। ऐसे में इतने जटिल और उन्नत विमानों का फटाफट निर्माण कर संख्याबल में दोनों देशों के बराबर हो जाना भी असंभव है। अतः इस परिस्थिति से निपटने का एकमात्र उपाय है- 5वीं पीढ़ी का लड़ाकू विमान।

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भारत खुद ही निर्मित कर रहा है 5वीं पीढ़ी का विमान

5वीं पीढ़ी का लड़ाकू विमान उसे कहते हैं, जो विमान सर्वाधिक उन्नत हो और रडार की पकड़ में न आए। ऐसे उन्नत विमान सिर्फ अमेरिका के पास हैं, जिसे एफ़-22 के नाम से जाना जाता है। हालांकि, चीन, रूस और फ्रांस भी 5वीं पीढ़ी का विमान रखने का दंभ भरते है। यही विमान भारतीय वायुसेना की एकमात्र आशा है। अगर हम इसे प्राप्त कर लें, तो गुणवत्ता के मामले में इतने उत्कृष्ट हो जाएंगे कि किसी भी देश के संख्याबल को मात दे सकते हैं। इसको प्राप्त करने के तीन तरीके हैं- रूस या अमेरिका के 5वीं पीढ़ी के विमान निर्माण परियोजना में शामिल हो जाना या फिर आत्मनिर्भर होते हुए स्वयं से ऐसी जटिल तकनीक निर्मित करना। भारत ने स्वदेशी निर्माण का रास्ता चुना है, क्योंकि जंग के समय में अगर किसी देश ने आपूर्ति रोक दी तो यह राष्ट्र की सबसे बड़ी क्षति होगी।

इस परियोजना को शीघ्रताशीघ्र पूर्ण करने के लिए सरकारी और निजी उपक्रम दोनों को लगाया गया है। इंजन भी वो चुना गया है, जो 110 किलोवाट की ताकत प्रदान करे। इसके लिए एक ब्रिटिश कंपनी से बातचीत चल रही है। HAL ने ऐरोइंडिया प्रदर्शनी के दौरान इस विमान के 4 प्रारूप सरकार के सामने रखें। जिसका परीक्षण अगले वर्ष से शुरू होने की उम्मीद है, बताया जा रहा है कि साल 2027 तक यह भारतीय बेड़े में शामिल होगा। यह विमान इतना सक्षम है कि इसे पराजित करना शत्रु के लिए अत्यंत दुष्कर होगा। उम्मीद है कि भारतीय वायुसेना के लड़ाकू बेड़े में यह विमान मील का पत्थर साबित होगा।

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