भारत की मुस्लिम आबादी निरक्षरता और वित्तीय तनाव के दुष्प्रभाव में फंसी है

अवसर मिलने पर भी ये नहीं सुधरना चाहते!

मुस्लिम समुदाय

2011 की जनगणना के अनुसार, देश में मुस्लिमों की कुल साक्षरता दर 59.1 प्रतिशत है। मुसलमानों की यह साक्षरता दर राष्ट्रीय औसत से कम है। मुस्लिम समुदाय एकमात्र अल्पसंख्यक समुदाय है, जिसकी साक्षरता दर माइनस पॉइंट्स में है। यह हरियाणा, बिहार, उत्तर प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, असम, राजस्थान, उत्तराखंड, झारखंड और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों की साक्षरता की तुलना में भी काफी कम है। इसी का परिणाम है कि केवल 22.70 प्रतिशत मुस्लिम बच्चे ही प्राथमिक शिक्षा जबकि 6.71 प्रतिशत मुस्लिम बच्चे ही स्नातक स्तर तक की पढ़ाई कर पाते हैं।

वहीं, मुसलमानों में 3 से 35 वर्ष के युवाओं का अनुपात सबसे अधिक है, जिन्होंने कभी औपचारिक शैक्षिक कार्यक्रमों में दाखिला नहीं लिया था। इस आयु वर्ग के लगभग 17% मुस्लिम पुरुषों का कभी भी शिक्षा के लिए नामांकन नहीं हुआ। यह आंकड़ा SC (13.4%) और ST (14.7%) की तुलना में भी अधिक था। इसी तरह मुस्लिम महिलाओं के लिए यह अनुपात 51.9% था।

शैक्षणिक हाशिए पर खड़ा है मुस्लिम समुदाय

सच्चर समिति ने इस मुद्दे पर प्रकाश डाला है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि मुस्लिम समुदाय शैक्षणिक हाशिए के लिहाजे से विभिन्न मानदंडों के आधार पर SC और ST समुदाय से भी से भी न्यूनतम स्तर पर है। पर, आखिर ऐसा क्या कारण है कि मुस्लिम समुदाय की स्थिति ऐसी हो गई है? दरअसल, मुसलमानों के साथ जितनी उदारता सनातन संस्कृति ने दिखाई है, उतनी तो अन्यत्र कहीं देखने को नहीं मिलती।

भारतीय संविधान ने धार्मिक तौर पर उन्हें भी कई अधिकार दिए हैं किन्तु उदार एवं समावेशी समाज और समान अवसर के बावजूद मुसलमान पिछड़े क्यों हैं? इसका उत्तर है, अपने धर्म के कारण। मुस्लिमों की सामाजिक संरचना से लेकर लैंगिक बर्ताव, रस्मों-रिवाज और यहां तक की अधिकार, कर्तव्य और विचार सब धर्म से संचालित होते हैं। गीता में कहा गया है कि परिवर्तन संसार का सबसे बड़ा नियम  होता है। मुस्लिम समुदाय इसी नियम से दूर रहा है।

 और पढ़ें: कम्युनिस्ट ‘जज़िया’ – सरकारी अधिकारियों से उनका आधा वेतन छीन रही केरल सरकार

आपको बता दें कि लगभग 1400 साल पहले के कानून में बंधे-बंधे उनमें से कुछ में कट्टरता की भावना जागृत हो गई। तकनीक और विज्ञान की राह पर दौड़ते भारत में मुसलमान समुदाय अपने धर्म और उससे जुड़ी भावनाओं को लेकर प्रतिबद्ध रहा है। इस समुदाय के कुछ कट्टरपंथियों को विज्ञान नहीं क़ुरान चाहिए, IIT नहीं मदरसा चाहिए! कट्टरपंथी धार्मिक ठेकेदारों ने कुरान को ऊपर रखते हुए आधुनिक शिक्षा को गर्त में पहुंचा दिया है। वह एक समावेशी राज्य की स्थापना की जगह इस्लामिक शरीयत का ख्वाब देखने लगे हैं। इसलिए यह समुदाय शिक्षा जगत में पीछे छूटने का शिकार हो गया। इस सन्दर्भ में हम आपको एक उदाहरण से समझाने की कोशिश करते हैं।

मुसलमानों को निरक्षरता और गरीबी से उबरना होगा 

बता दें कि मुस्लिम महिलाओं की व्यावसायिक गतिविधियों में कमी का कारण बता दें कि उनपर लगाए गए धार्मिक प्रतिबंध हैं। पारंपरिक धार्मिक और संस्थागत जाति परम्परा उनकी उद्यमशीलता पर प्रतिबंध लगाती है क्योंकि उन्हें पुरुषों के साथ सीमित संपर्क से अधिक की अनुमति नहीं है और घर के बाहर ये महिलाएं महत्वपूर्ण गतिशीलता से वंचित हैं। मुस्लिम महिलाओं को प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है। उदाहरण के लिए आप पांच मानदंडों के अनुसार धार्मिक प्रतिबंधों का मूल्यांकन कर सकते हैं, जिसमें अकेले समाजीकरण और संवाद करने, अकेले घर छोड़ने या बड़ों से सीधे बात करने की क्षमता शामिल है।

अब एक और उदाहरण देखिए कुरान में ब्याज प्रतिबंधित है। अतः अधिकांश मुसलमान बैंकिंग व्यवस्था से परहेज़ करते हैं। कुरान के अनुसार बच्चों की शादी की उम्र भी काफी कम है अतः उनके सर्वंगीड विकास  का मार्ग अवरूद्ध हो जाता है। मुसलमानों को यह समझना होगा कि गरीबी तथा निरक्षरता के चक्रव्यूह को तोड़ने में सबसे बड़ा बाधक कट्टरपंथी समुदाय ही है।

और पढ़ें: महिलाओं की विवाह की आयु 21 करने का प्रभाव बहुत गहरा होगा

ऐसे में, मुस्लिम समुदाय में शैक्षिक समस्याओं को संबोधित करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा एक आदर्श बदलाव किया जाना ज़रूरी है। तीन तलाक के अपराधीकरण को मुस्लिम महिलाओं के लिए कल्याणकारी उपाय के रूप में प्रस्तुत किया गया है। एक शिक्षा आउटरीच पूरे मुस्लिम समुदाय को लाभान्वित कर सकती है। यह कहा जा सकता है कि मुस्लिम समुदाय को गीता के उस सार को समझन होगा जिसमें वर्णित है कि ‘परिवर्तन ही संसार का सबसे बड़ा नियम है’ अन्यथा यह समुदाय विकास के बड़े लाभों से वंचित रह जायेगा।

Exit mobile version