प्रिय प्रवास किसकी रचना है?
“प्रिय प्रवास” आधुनिक हिन्दी साहित्य का प्रथम सफल महाकाव्य है. जिसका रचना लेखक अयोध्यासिंह उपाध्याय “हरिऔध” ने की है. हरिऔध जी को काव्यप्रतिष्ठा “प्रिय प्रवास” से मिली है. इसका रचनाकाल सन् 1909 से सन् 1913 है. “प्रिय प्रवास” विरहकाव्य है. अयोध्या सिंह उपाध्याय जी का जन्म 15 अप्रैल सन 1865 में निजामाबाद आजमगढ में हुआ था. प्रस्तुत लेख प्रिय प्रवास किसकी रचना है एवं इसके प्रत्येक छंद का संक्षिप्त वर्णन दिया गया है.
उनके पिता का नाम भोलासिंह उपाध्याय था और उनकी माता जी का नाम रुक्मिणी देवी था. इनके पूर्वज शुक्ल यजुर्वेदी ब्राह्मण थे जो कालान्तर में सिक्ख हो गये. अयोध्या सिंह उपाध्याय जी का विवाह 17 वर्ष की अवस्था में हो गया था. स्वाध्याय से इन्होने हिंदी अंग्रेजी फारसी संस्कृत आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया.
5 वर्ष की अवस्था में फारसी के माध्यम से इनकी शिक्षा प्रारम्भ हुई . मिडिल परीक्षा पास करके ये क्वीन्स कालेज, बनारस में अंग्रेजी पढ़ने गये, पर अस्वस्थता के कारण अध्ययन छोड़ना पड़ा. स्वाध्याय से ही इन्होंने हिन्दी, संस्कृत, फारसी और अंग्रेजी में अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया. निबामाबाद के मिडिल स्कूल के अध्यापक, कानूनगो और काशी विश्वविद्यालय में अवैतनिक शिक्षक के पदों पर इन्होंने कार्य किया. हरिऔध जी के अध्यापक जीवन धेय अध्यापक ही रहा.वहीं महान साहित्यकार का निधन सन् 1947 ई० में हो गया.
प्रिय प्रवास” खड़ीबोली का महाकाव्य है. जिसके लेखक अयोध्यासिंह उपाध्याय है| इसमें 17 सर्ग है. इसमें ‘श्रृगार’ और ‘करुण रस’ की प्रधानता है. प्रिय प्रवास की भाषा संस्कृत-गर्भित है. इसमें हिन्दी के स्थान पर संस्कृत का रंग अधिक है. इसकी कथावस्तु का मूलाधार श्रीमद्भागवत का दशम स्कंध है, जिसमें श्रीकृष्ण के जन्म से लेकर उनके यौवन, कृष्ण का ब्रज से मथुरा को प्रवास और लौटकर आने का वर्णन किया गया है.
यह महाकाव्य दो भागों में विभाजित है. पहले से आठवें सर्ग तक की कथा में कंस के निमंत्रण लेकर अक्रूर जी ब्रज में आते है तथा श्रीकृष्ण समस्त ब्रजवासियों को शोक में छोड़कर मथुरा चले जाते है. नौवें सर्ग से लेकर सत्रहवें सर्ग तक की कथा में कृष्ण, अपने मित्र उद्धव को ब्रजवासियों को सांत्वना देने के लिए मथुरा भेजते है.
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भाषा-शैली
‘प्रिय प्रवास’ की भाषा संस्कृत-गर्भित है. उसमें हिन्दी के स्थान पर संस्कृत का रंग अधिक है. अनेक विद्वान् सज्जन इससे रुष्ट होंगे, कहेंगे कि यदि इस भाषा में ‘प्रियप्रवास’ लिखा गया तो अच्छा होता यदि संस्कृत में ही यह ग्रन्थ लिखा जाता. कोई भाषा-मर्मज्ञ सोचेंगे इस प्रकार संस्कृत-शब्दों को ठूँसकर भाषा के प्रकृत रूप को नष्ट करने की चेष्टा करना नितान्त गर्हित कार्य है. उक्त वक्तृता में भट्ट जी एक स्थान पर कहते हैं. दूसरी बात जो मैं आजकल खड़ी बोली के कवियों में देख रहा हूँ, वह समासबद्ध, क्लिष्ट संस्कृत-शब्दों का प्रयोग है, यह भी पुराने कवियों की पद्धति के प्रतिकूल है.
विश्वम्भर मानव के अनुसार- “प्रिय प्रवास भरतीय नवजागरण काल का महाकाव्य ही नहीं, यह जीवन के श्रेष्ठतम मानव-मूल्यों का कीर्ति-स्तंभ भी है. यह वैज्ञानिक युग की विभीषिका में मानवतावाद का विजयघोष है. कृष्ण को केन्द्र बनाकर इसमें जो कथा वर्णित है, उससे मनुष्य की महत्ता, जीवन की सुन्दरता, प्रेम की शक्ति और सबसे अधिक मानवीय संबंधों की अनुपमा कोमलता पर प्रकाश पड़ता है.”
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प्रिय प्रवास किसकी रचना है? और छंद का संक्षिप्त वर्णन
प्रिय प्रवास लेखक अयोध्यासिंह उपाध्याय “हरिऔध” की रचना है.
- प्रिय प्रवास -अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ में कुल 17 सर्ग हैं जो इस प्रकार हैं
- प्रिय प्रवास के पहले सर्ग में संध्या का वर्णन है.
- “दिवस का अवसान समीप था. गगन था कुछ लोहित हो चला.’ (द्रुतविलम्बित छंद)
- तरु-शिखा पर थी अब राजती. कमलिनी-कूल-वल्लभ की प्रभा..”
- दूसरे सर्ग में गोकुलवासियों का कृष्ण से विरह होने के बाद उनका व्यथित होना दिखाया गया है.
- तीसरे सर्ग में बाबा नन्द की व्याकुलता एवं माँ यशोदा के द्वारा भगवान् श्री कृष्ण की कुशलता के लिए की गई मनौतियों का वर्णन है.
- चौथे सर्ग में राधा के सौंदर्य का चित्रण है.
- पाँचवें सर्ग में गोकुल के विरह का वर्णन है साथ ही राधा और माता यशोदा की व्यथा की मार्मिक अभिव्यक्ति है.
- छठे सर्ग में कृष्ण और यशोदा का वर्णन है.
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- सातवें सर्ग में नन्द के मथुरा से लौटने पर माता यशोदा के अपने पुत्र श्री कृष्ण के विषय में प्रश्नों का मार्मिक वर्णन.
- आठवें सर्ग में गोकुलवासियों के कृष्ण साथ बिताएँ गए पलों का वर्णन.
- नौवें सर्ग में श्री कृष्ण का गोकुल की यादों में खोया हुए स्थिति का वर्णन है.
- दसवें और ग्यारहवें सर्ग उद्धव प्रसंग के हैं.
- बारहवें सर्ग में श्री कृष्ण का जननायक के रूप में वर्णन किया गया है.
- तेरहवें सर्ग में कृष्ण का समाजसेवी रूप निकलकर आता है.
- चौदहवें सर्ग में गोपी उद्धव संवाद का वर्णन है.
- पन्द्रहवें सर्ग में श्री कृष्ण-विरह में गोपियों के विरह का वर्णन है.
- सोलहवें सर्ग में राधा-उद्धव संवाद है.
- सत्रहवें सर्ग में यह बताया गया है कि विश्व का प्रेम व्यक्तिगत प्रेम से ऊपर है.
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