रामानंद सागर: सनातन धर्म को छोटे पर्दे से घर-घर तक लेकर आए

रामानंद सागर: जिन्होंने धर्म की ध्वजा सिनेमा और टीवी जगत में फहराई

रामानंद सागर
“सीता राम चरित अति पावन,
मधुर सरस अरु अति मन भावन”

इन शब्दों का उल्लेख मात्र ही कई दुकानों को बंद कर, लाखों लोगों को घर पर अपने टीवी के सामने बैठने के लिए विवश कर देता था, चाहे वर्ष 1987 हो या 2020। उस कथा की महिमा ही ऐसी थी, जिसे बड़े प्रेम से रूपांतरित किया गया था, कि लोग इसे कभी भूल ही नहीं पाए। ये यात्रा सरल नहीं थी, परंतु जिस व्यक्ति ने इस यात्रा को पूर्ण करने का संकल्प लिया, उसने इस महासंकल्प को सिद्ध किया, उन्होंने ‘जिम्मेदारी ली थी, परिस्थितियों को बदलने की।’ आज जन्मदिवस है श्री चंद्रमौली चोपड़ा का, जिन्हे संसार सुप्रसिद्ध सीरीज़ रामायण के रचयिता, श्री रामानंद सागर के नाम से बेहतर जानती है।

29 दिसंबर 1917 को चंद्रमौली चोपड़ा का जन्म ‘असल गुरु के’ नामक ग्राम में हुआ, जो लाहौर से कुछ ही दूरी पर था। वे एक धनाढ्य परिवार से थे, जो मूल रूप से कश्मीरी पंडित थे। परंतु उनके जन्म से ही कई कठिनाइयाँ प्रारंभ हो गई। वे बालक थे जब उनकी माँ का देहांत हो गया, और उनके पिता, दीनानाथ चोपड़ा ने तुरंत दूसरा विवाह कर लिया। इसी दूसरे विवाह से विधु विनोद चोपड़ा पैदा हुए, जो रामानंद सागर के सौतेले भाई थे, और विचारधारा में दोनों उत्तर दक्षिण समान थे।

परंतु चंद्रमौली की नानी ने उन्हे गोद लिया, और उन्होंने ही उनको नाम दिया ‘रामानंद सागर’। सागर आर्ट्स के आधिकारिक archives के अनुसार, “हालांकि, उनके कुलपुरोहित ने नाम रखा था चंद्रमौली, उनके नए परिवार ने उनका नाम रामानंद रखा। परंतु वे उस वात्सल्य के लिए तरसते थे, जो उन्हे अपने वास्तविक अभिभावकों से मिलना चाहिए था। इसीलिए उनके हर कार्य में भावनाओं का बेहद सम्मान किया जाता था।”

परंतु वो कहते हैं ना, विपत्ति में ही असली रत्न की पहचान होती है। यही रामानंद सागर के साथ भी हुआ। अपनी पढ़ाई के लिए वे स्वावलंबी बने, और उन्होंने चपरासी से लेकर ट्रक क्लीनर जैसे कई छोट-मोटे कार्य किये, ताकि रात में वे केवल अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे सके। वे न केवल अपने विषयों में उत्तीर्ण हुए, अपितु संस्कृत और फारसी के विषयों में अप्रतिम परफ़ॉर्मेंस देते हुए पंजाब विश्वविद्यालय में 1942 में दो स्वर्ण पदक प्राप्त किये!

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अब बाल्यकाल से ही रामानंद सागर को लेखन में रुचि थी। उन्होंने किशोरावस्था में ही अनेक लघुकथाएँ, पुस्तक, कविताएँ इत्यादि रच डाली। 1940 के दशक में उन्होंने भारतीय फिल्म उद्योग का हाथ थामा, और उन्हे सीधा प्रसिद्ध कलाकार पृथ्वीराज कपूर का आशीर्वाद मिला, जिनका प्रसिद्ध ‘Prithvi Theatres’ कई भावी अभिनेताओं और फ़िल्मकारों के लिए किसी तीर्थ से कम न था। परंतु इस स्वप्नलोक पर मानो विभाजन का ग्रहण लग गया।

लाखों हिंदुओं और सिखों की तरह रामानंद सागर को भी धर्मांधता के कारण लाहौर में अपने आवास को त्यागने पर विवश होना पड़ा और वे ‘कर्मभूमि’ बॉम्बे आ गए। परंतु उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और तुरंत सेवा में जुट गए। 1949 में उन्होंने ‘बरसात’ फिल्म की पटकथा लिखी, जिसने रणबीर धनराज कपूर को ‘शोमैन’ राज कपूर में परिवर्तित कर दिया, और उसके बाद तो उन्होंने मुड़कर नहीं देखा।

उसके पश्चात तो रामानंद सागर ने भारतीय फिल्म उद्योग में धीरे-धीरे अपनी अलग पहचान बनाई। वामपंथ से सने कीचड़ समान उद्योग में वे कमल की भांति खिले और ‘राजश्री’ प्रोडक्शंस के अलावा वे अकेले थे, जिन्होंने अपने आदर्शों से कोई समझौता नहीं किया। ‘पैगाम’, ‘घूँघट’, ‘आरज़ू’, ‘आँखें’, जैसी फिल्मों से उन्होंने बॉक्स ऑफिस पर अपनी अलग छाप छोड़ी। ‘आँखें’ के लिए इन्हे 1969 में इन्हे अपना सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का एकमात्र फिल्मफेयर पुरस्कार भी जीता।

परंतु उनकी महिमा का गुणगान अभी शेष था। 80 के दशक तक रामानंद सागर ने तुरंत एक स्मार्ट इन्वेस्टर की भांति सिनेमा के साथ टीवी की ओर भी अपनी नजर घुमाई। इसी समय उनके मस्तिष्क में आया कि क्यों न रामायण को टीवी पर रूपांतरित किया जाए।

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हालांकि, ये यात्रा सरल न थी। TFIPost के एक विश्लेषणात्मक लेख के अनुसार,

“कांग्रेस पार्टी ‘रामायण’ तक को सेक्युलर के तौर पर दिखाने पर तुली थी और ऐसा न करने पर वे रामानंद सागर के विश्व प्रसिद्ध शो को बीच में बंद करने की धमकियाँ भी देते थे। रामानंद सागर के पुत्र और फिल्मकार प्रेम सागर अपनी पुस्तक में बताते हैं कि तत्कालीन दूरदर्शन के निदेशक भास्कर घोष ने मांग की थी कि रामायण को ‘थोड़ा और धर्मनिरपेक्ष बनाना चाहिए’, ताकि दूरदर्शन पर ध्रुवीकरण के आरोप न लगे। इतना ही नहीं, वे रामायण को 26 हफ्तों के प्रसारण का समय भी देने को तैयार नहीं थे, जिससे शो बीच में ही बंद हो जाए।”

लेकिन ये शो इतना विख्यात हुआ, और लोगों की आस्था इस शो से इतनी जुड़ चुकी थी कि न चाहते हुए भी भास्कर घोष को अपना विवादित निर्णय बदलना पड़ा था। दरअसल, तब जन समर्थन के कारण ही राजीव गांधी प्रशासन ने भास्कर घोष पर दबाव बनाया, अन्यथा वो तो रामायण के प्रसारण के लिए ही तैयार नहीं था। अब आपको पता है कि ये भास्कर घोष किसके पिता हैं? ये उसी सागरिका घोष के पिता हैं, जो आए दिन केंद्र सरकार और सनातन धर्म के विरुद्ध विष उगलती हैं, और निरंतर सनातन धर्म को अपमानित करने का प्रयास करती है।

आज रामायण इतनी प्रसिद्ध की बड़े से बड़े वेब सीरीज़ भी इसके सामने कहीं नहीं ठहरते। उदाहरण के लिए TFIPost के एक अन्य लेख के अनुसार,

“दुनिया भर में देखी जाने वाली सबसे चर्चित सीरिज गेम ऑफ थ्रोन्स और फ्रेंड्स के भी रामायण ने व्यूअसशीप में रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं l रामायण 77 मिलियन व्यूअरशीप के साथ नंबरवन बन गया ह l बता दें कि F R I E N D S (फ्रेंड्स) के दर्शकों की संख्या 52.5 मिलियन है l वहीं गेम ऑफ थ्रोन्स की सातवें सीजन तक, सभी प्लेटफार्मों में औसत दर्शक संख्या मात्र 30 मिलियन प्रति एपिसोड है”

जब विधु विनोद चोपड़ा और अनुपमा चोपड़ा जैसे लोगों का नाम सामने आता है, तो लोग ये भूल जाते हैं कि उसी परिवार से चन्द्रमौली चोपड़ा उर्फ रामानंद सागर भी निकले, जिन्होंने कभी अपने आदर्शों से समझौता नहीं किया, अपितु धर्म की ध्वजा सिनेमा और टीवी के जगत में भी स्थापित की। इन्हे सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम इनके आदर्शों पर चले और अपने वास्तविक नायकों को नमन करें।

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