सौरव गांगुली: जिन्हें ‘फिक्सिंग’ वाली टीम विरासत में मिली और उन्होंने उसे चैंपियन टीम बनाया

विजेता बनाने के लिए विजेता होने के गुण भी चाहिए!

सौरव गांगुली क्रिकेट

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“सौरव गांगुली के खिलाफ जब आप खेल रहे हैं, तब आपको यह पता होता कि आप एक लड़ाई लड़ने जा रहे हैं। आप जानते हैं कि गांगुली भारतीय क्रिकेट प्रशंसकों के जुनून को समझते हैं। उनके लिए यह केवल क्रिकेट का खेल नहीं था, यह क्रिकेट के खेल से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण था। वह स्वयं उत्साही थे, उन्होंने उत्साही खिलाड़ियों को ही चुना” – नासिर हुसैन

ये शब्द इंग्लैंड के पूर्व कप्तान नासिर हुसैन ने भारत के पूर्व कप्तान सौरव गांगुली के लिए कहा था। सौरव गांगुली ही थें, जिन्होंने भारतीय क्रिकेट टीम में उस जुनून और जज्बे को जगाया कि टीम विश्व विजेता बन सकती है। आज सीमित ओवरों की टीम के कप्तान पद को लेकर कई खबरें सामने आ रही हैं। विराट को कप्तानी से हटाये जाने के बाद कई लोग बीसीसीआई अध्यक्ष और भारतीय क्रिकेट के दिग्गज सौरव गांगुली को निशाना बना रहे हैं। लेकिन गांगुली को निशाना बनाने वाले लोग ये भूल रहे हैं कि ये वही क्रिकेटर हैं, जिन्होंने वैश्विक क्रिकेट मानचित्र पर भारत की वर्तमान सफलता की नींव रखी थी।

टीम को फिक्सिंग के स्कैंडल की काली साया से निकाला

जब वर्ष 2000 की शुरुआत में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ एकदिवसीय श्रृंखला के बाद भारतीय टीम मैच फिक्सिंग के लिए सुर्खियों में थी, तब जनता का विश्वास ही BCCI और भारतीय क्रिकेट टीम से उठ गया था। पूर्व कप्तान मोहम्मद अजहरुद्दीन और अजय जडेजा जैसे क्रिकेटरों को दोषी पाए जाने के बाद उनपर आजीवन प्रतिबंध लगा दिया गया था। एक के बाद एक खुलासों और टीम के कप्तान अजहरुद्दीन के साथ कई खिलाड़ियों की संलिप्तता ने भारतीय क्रिकेट के भविष्य को अंधेरे में डाल दिया था। यह उस समय के 68 साल के इतिहास में भारतीय क्रिकेट टीम के सबसे काले दौर में से एक था। सचिन तेंदुलकर ने एक संक्षिप्त समय के लिए कप्तानी संभाली, लेकिन वो अपनी बल्लेबाजी के जैसा करिश्माई प्रदर्शन ‘कप्तानी’ में नहीं दिखा सकें। पहले की भांति ही उन्हें यह एहसास हो गया कि कप्तानी उनके बस की बात नहीं है।

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हालांकि, उस दौरान 27 वर्षीय उप-कप्तान सौरव गांगुली को सचिन तेंदुलकर के स्थान पर भारतीय क्रिकेट टीम के नए टेस्ट और एकदिवसीय कप्तान के रूप में चुना गया। गांगुली ने टूटी-फूटी और जर्जर टीम में सबसे पहले अनुशासन और एकता की भावना पर ध्यान केन्द्रित किया। कई धड़ों में बंटी टीम को एक करने के लिए नयन मोंगिया और अजय जडेजा जैसे असफल खिलाड़ियों को टीम से बाहर किया गया। यही नहीं, अजहरुद्दीन को 99 टेस्ट खेलने के बावजूद उन्हें टीम से बाहर किया गया। कप्तानी की भूमिका संभालने से पहले, भारतीय टीम को ‘घर के शेर’ के रूप में एक औसत दर्जे की टीम माना जाता था, लेकिन नए जोश से भरे कप्तान गांगुली ने अपनी आक्रामकता से इस टैग को भी हटाया और विदेशों में कुछ यादगार जीत दर्ज की।

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गांगुली की कप्तानी में भारत ने अपने पहले अंतरराष्ट्रीय मैच में 302 रनों का पीछा करते हुए दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ 3 विकेट से बेहतरीन जीत हासिल की। यह दूसरा मौका था जब भारत ने वनडे में 300+ के लक्ष्य का पीछा किया। फिक्सिंग की चोट खाई भारतीय टीम वर्ष 2001 में बिखरने के कगार पर थी, उस समय गांगुली को कप्तानी सौंपी गयी थी। टीम चयन के दौरान क्षेत्रवाद का भी खूब बोलबाला था। फिक्सिंग के काले साये में भी सौरव गांगुली ने उस समय जौहरी का काम किया और वीरेंद्र सहवाग, युवराज सिंह, जहीर खान, हरभजन सिंह, आशीष नेहरा, गौतम गंभीर, एमएस धोनी जैसे मैच जिताने वाले नायाब खिलाड़ियों को मौका दिया। उन्होंने इन युवाओं को तराश कर उनमें खुल कर खेलने का विश्वास भर दिया।

विश्व विजेता ऑस्ट्रेलिया को किया चित

इसके बाद भारत ने वर्ष 2001 में युवा राहुल द्रविड़ और वीवीएस लक्ष्मण की मदद से फॉलो-ऑन लागू करने के बाद कोलकाता टेस्ट जीता। सौरव गांगुली ने उस युवा और डरी सहमी टीम में जीत का ऐसा आग भरा कि विश्व विजित कर भारत को जीतने आई ऑस्ट्रेलिया की उस महान टीम को भी पराजय का सामना करना पड़ा। सौरव गांगुली ने उस समय भारतीय टीम की धमनियों में रक्त के स्थान पर शौर्य रुधिर प्रवाहित कर दिया था। इस प्रवाह का तेज़ और आवेग इतना शक्तिमान था कि भारतीय टीम ने दुनिया की सबसे शक्तिशाली टीम को धूल चटा दिया। अभिमन्यु सम लड़ती इस टीम ने न केवल ऑस्ट्रेलियाई टीम के चक्रव्यूह को भेदा, बल्कि समग्र विश्व को चकित करते हुए विजित हो कर आगे  भी निकल गई।

इसके बाद भारत ने वर्ष 2002 में युवराज सिंह और मोहम्मद कैफ जैसे निडर युवाओं की मदद से लॉर्ड्स में नेटवेस्ट सीरीज का फाइनल जीता। उस मैच में गांगुली ने खुद 60 रन बनाए थे। नेटवेस्ट सीरीज फाइनल की जीत भारतीय क्रिकेट में एक मील का पत्थर था। हालांकि, लॉर्ड्स की ऐतिहासिक बालकनी पर गांगुली द्वारा लहराई जाने वाली शर्ट के सामने सब फीका पड़ गया। पूरा विश्व गांगुली की आक्रामकता से चकित रह गया था। अगर यह कहा जाये कि उस यादगार तस्वीर ने ही देश की अगली क्रिकेट पीढ़ी को प्रेरित किया तो गलत नहीं होगा। इसके बाद एडिलेड में जीत, वर्ष 2002 में चैंपियंस ट्रॉफी, वर्ष 2003 में विश्वकप के फाइनल में पहुंचना, पाकिस्तान को पाकिस्तान में हराना, दादा ने देश को जश्न के ऐसे कई मौके दिए।

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‘घर के शेर’ से भारतीय टीम को बना दिया विश्व चैंपियन

युवा खिलाड़ियों को गांगुली ने उनकी प्रतिभा और फॉर्म के आधार पर चुना। उन्हें टीम प्रबंधन की मदद से स्वयं गांगुली ने टीम के लिए तैयार किया था। गांगुली ने चयनकर्ताओं से देश के सभी हिस्सों से टीम चुनने के लिए अपनी इच्छा जताई, न कि केवल मुंबई या दिल्ली या चेन्नई जैसे शहरों से। गुजरात, पंजाब, उत्तर प्रदेश, झारखंड, बिहार, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों से भी खिलाड़ी आने लगे, जहां बहुत से खिलाड़ियों को उच्चतम स्तर पर भारत का प्रतिनिधित्व करने का मौका नहीं मिला था।

दिलचस्प बात यह है कि एक कप्तान के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान, उनके गृह राज्य पश्चिम बंगाल के केवल एक खिलाड़ी दीप दासगुप्ता को भारतीय टीम में चुना गया था। लक्ष्मी रतन शुक्ला जैसे खिलाड़ी बंगाल के लिए अच्छा खेल रहे थे, लेकिन फिर भी गांगुली की कप्तानी में उन्हें भारतीय टीम में मौका नहीं मिला। संभवतः दबाव की स्थितियों में खराब प्रदर्शन के कारण ही ऐसा हुआ था। ऐसे में यह कहा जाये कि गांगुली ने खिलाड़ियों के चयन में क्षेत्रीय पूर्वाग्रह को भी अप्रासंगिक कर दिया था। खिलाड़ियों को न केवल फॉर्म और प्रतिभा के आधार पर चुना गया, बल्कि दबाव की स्थितियों में अच्छा प्रदर्शन करने की क्षमता पर भी चुना गया।

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टीम से बड़ा नहीं हो सकता कप्तान- गांगुली

अजहरुद्दीन के नेतृत्व में, भारत का जीत प्रतिशत 29.79 फीसदी था, जो तेंदुलकर के नेतृत्व में 16 फीसदी तक गिर गया था। हालांकि, गांगुली ने इसे बढ़ाया और इसे 42.86 फीसदी तक ले गए। गांगुली की सफलता का कारण उनकी क्रिकेट समझ और खिलाड़ियों की प्रतिभा को पहचानना था। वो जानते थे कि एक कप्तान को टीम से बड़ा नहीं होना चाहिए। उन्होंने खिलाड़ियों का बेहतरीन प्रबंधन किया। जिस टीम में सचिन तेंदुलकर, राहुल द्रविड़, वीवीएस लक्षमण, अनिल कुंबले और जवागल श्रीनाथ जैसे सीनियर खिलाड़ी हो और वीरेंद्र सहवाग, युवराज सिंह, मोहम्मद कैफ, एमएस धोनी, जहीर खान और इरफान पठान जैसे युवा खिलाड़ी हों, उस टीम में समायोजन और ड्रेसिंग रुम में एकता बनाए रखना सौरव गांगुली के नेतृत्व क्षमता को प्रदर्शित करता है।

इन सभी खिलाड़ियों ने आगे चल कर दादा के वर्ष 2003 के अधूरे सपने को वर्ष 2011 के आईसीसी विश्वकप जीत कर पूरा किया। दादा एक खिलाड़ी के तौर पर अपने विरोधियों से कहीं आगे हैं। सौरव गांगुली ने भारतीय क्रिकेट और कप्तानी, दोनों के ही मायने बदल दिए थे। जो भारतीय क्रिकेट टीम मैच बचाने के लिए खेलती थी, उसे सौरव गांगुली ने न केवल मैच, बल्कि सीरीज जीतना भी सिखाया। गांगुली ने कप्तान रहते जिस तरह से टीम को एकजुट किया था वह सिर्फ प्रसंशनीय ही नहीं है, बल्कि आज के युवा कप्तानों को उनसे सीखने की भी जरूरत है।

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आज जिस तरह से कप्तानी को लेकर तामाशा बनाया जा रहा है, वह कहीं से भी टीम के लिए सही नहीं है। आज विराट स्वयं को टीम से कहीं ऊपर समझने लगे हैं। कई बार ऐसा लगता है कि वो स्वयं पर लाईमलाइट चाहते हैं। हालांकि, क्रिकेट एक टीम गेम है और इस तरह की मानसिकता से टीम को ही नुकसान होता है। आज भारतीय क्रिकेट के भीतर मौजूदा तनाव कोई आदर्श नही है। हालांकि, पक्ष लेने और आरोप लगाने से पहले, किसी को यह मानना ​​चाहिए कि भारतीय क्रिकेट को सबसे बदतर स्थिति से बाहर निकालने वाला व्यक्ति ही शीर्ष पद पर बैठा है। आज जो स्थिति है सौरव गांगुली ने इससे भी बदतर स्थिति का सामना किया है, इसके बावजूद उन्होंने टीम को ऐसी गति प्रदान की, जिसके कारण आज भारतीय टीम सबसे मजबूत टीमों में से एक है। ऐसे में सभी को सौरव गांगुली पर भरोसा करने की जरुरत है।

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