“खबर पक्की है?”
“जी जनाब. उस पोस्ट पर केवल 120 जवान और कुछ BSF के सैनिक हैं”
“फिर तो रामगढ़ पहुंचना बच्चों का खेल है. सुबह का नाश्ता रामगढ़ में, दोपहर का खाना जैसलमेर में, और डिनर दिल्ली में होगा!”
कुछ ऐसा ही सोचकर ब्रिगेडियर जनरल तारिक मीर ने 40 टैंकों सहित 3000 से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों को सभी प्रकार के शस्त्रों से सुसज्जित कर बॉर्डर पार भेजा. मीर को पूरा विश्वास था कि जिस आउटपोस्ट को उसे ध्वस्त करना है, उसे कुचलने में कुछ मिनट ही लगेंगे, लेकिन ये आत्मविश्वास ही उसकी सबसे बड़ी भूल थी. ये कथा है उस लोंगेवाला के युद्ध की, जिसे ‘बॉर्डर’ ने जीवंत तो अवश्य किया, परन्तु पूर्ण न्याय नहीं किया!
1971 के युद्ध की नींव तो पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश में पड़ी थी, परन्तु भारत ने जो हाल पाकिस्तान का किया था, उससे स्वयं पाकिस्तान को आभास था कि बिना पश्चिम में आक्रमण किये पूर्वी पाकिस्तान की रक्षा संभव नहीं. फील्ड मार्शल अयूब खान का कहना था कि “ईस्ट पाकिस्तान के डिफेन्स की चाबी वेस्ट में है!”
120 जवानों ने 3000 से अधिक पाक सैनिकों को चटाई थी धूल
इसी नीति के अनुसार ब्रिगेडियर जनरल तारिक मीर और ब्रिगेडियर जनरल ज़हीर आलम खान ने 40 टैंक के साथ 3000 से अधिक पाकिस्तानी सैनिकों की एक रेजिमेंट को रामगढ़ क्षेत्र की ओर भेजा. लेकिन इन पाकिस्तानियों को बीच में ही रोकने के लिये एक बॉर्डर आउटपोस्ट लोंगेवाला क्षेत्र में पहले से ही उपस्थित थी, जिसका नेतृत्व 23 पंजाब रेजिमेंट के कंपनी कमांडर, मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी के हाथ में था. उनके पास BSF की एक सहायक टुकड़ी के अलावा मात्र कुछ MMG, एक जीप से संचालित Recoilless Gun [RCL] इत्यादि उपलब्ध था, और पोस्ट की रक्षा हेतु उनके पास मात्र 120 जवान उपलब्ध थे, जिनमें से 4-5 तत्कालीन 2nd लेफ्टिनेंट धर्मवीर सिंह भान के नेतृत्व में पैट्रोलिंग पर मुख्य पोस्ट से काफी दूर निकल चुके थे.
मामले की गंभीरता को देखते हुए जब मेजर कुलदीप सिंह ने बटालियन हेडक्वार्टर से सहायता मांगी, तो उन्होंने कहा कि वे सुबह से पहले कोई सहायता नहीं भेज पायेंगे. उन्होंने मेजर कुलदीप को पीछे हटने का विकल्प भी दिया, परन्तु पीछे हटना मेजर चांदपुरी की संस्कृति के विरुद्ध था. उन्होंने निर्णय कर लिया कि वो सहायता आने तक शत्रु का डटकर सामना करेंगे. जब उन्हें ये ज्ञात हुआ कि वायुसेना से भी सहायता नहीं मिल पायेगी, क्योंकि उनके पास रात में हमला करने योग्य विमान नहीं है, तो उन्होंने अंतिम श्वास तक पोस्ट पर डटे रहने का निर्णय किया.
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पाकिस्तान के 36 टैंकों को कर दिया था तबाह
आपदा को अवसर में बदलते हुए मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी ने अपने क्षेत्र का निरीक्षण किया. अन्य क्षेत्रों की तुलना में पाकिस्तान ने दो बड़ी भूल की – एक तो यह कि लोंगेवाला रेगिस्तान में स्थित था, जो पाकिस्तानी टैंकों के लिए बिलकुल भी अनुकूल नहीं था और दूसरा यह कि भारतीयों के पास एंटी टैंक माइंस की कोई कमी नहीं थी, जिसका भारतीयों ने भरपूर उपयोग किया.
अब सबसे बड़ी समस्या थी – पाकिस्तानियों को प्रातः काल तक उलझाए रखना और वायुसेना से सहायता मिलने तक पोस्ट पर डटे रहना. लेकिन ये कार्य भारतीय सेना के जवानों ने तत्परता और अदम्य साहस के साथ किया. भोर की पहली किरण पड़ते ही वायुसेना ने तत्कालीन विंग कमांडर एम एस बावा के नेतृत्व में HAL मारुत और हॉकर हंटर फाइटर जेट्स के साथ धावा बोला. इस पूरे प्रकरण में पाकिस्तान को भारी नुक्सान हुआ, जिनके 36 टैंक या तो हवाई हमलों में अन्यथा एंटी टैंक माइंस के कारण ध्वस्त हो गए. जैसे बॉर्डर में सनी देओल के किरदार ने कहा था, “वो कहते हैं कि नाश्ता जैसलमेर में करेंगे, आज नाश्ता हम उनका करेंगे!”
कई भारतीय शूरवीर भी हुए थे वीरगति को प्राप्त
हालांकि, लोंगेवाला महायुद्ध में भारत को भी हानि हुई और हमारे दो शूरवीर– बिशन दास और गुरमैल सिंह वीरगति को प्राप्त हुए. ये ‘बॉर्डर’ फिल्म के ठीक विपरीत है, जहां आधे से अधिक सैनिकों को वीरगति को प्राप्त होते दिखाया गया था, और सूबेदार रतन सिंह, सेकेण्ड लेफ्टिनेंट धर्मवीर सिंह जैसे शूरवीरों के किरदारों को भी ‘नाट्य रूपांतरण’ के लिए ‘मार दिया गया’!
परन्तु, लोंगेवाला के युद्ध ने 1971 के युद्ध का मानचित्र ही बदल दिया. मात्र 120 शूरवीरों ने लगभग 3000 पाकिस्तानी सैनिकों को न केवल वायुसेना की सहायता से परास्त किया, अपितु अदम्य साहस का परिचय देते हुए ये सिद्ध किया कि असंभव को संभव करना ही भारत का पर्याय है. हालांकि, कुछ लोगों ने मेजर कुलदीप सिंह से इसका श्रेय लूटने का प्रयास भी किया, परन्तु उन्होंने न केवल उन्हें कोर्ट में हराया, अपितु एवज में केवल एक रुपया भी वसूला। जैसे बॉर्डर फिल्म में कहा गया है कि “हम ही हम हैं तो क्या हम हैं, तुम ही तुम हो तो क्या तुम हो!”
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