जानिए तिरुमाला स्थित वेंकटेश्वर मंदिर और भगवान वराहस्वामी का रहस्य

सोचिये, अगर भारत में इसे दोहराया जाए तो.....

भगवान वराहस्वामी

भारतीय संस्कृति बहुआयामी है, जिसमें भारत का महान इतिहास, विलक्षण भूगोल और पारंपरिक सभ्यता का समावेश है। यह हमारी संस्कृति ही है, जो हज़ारों वर्षों के बाद भी अपने मूल स्वरूप में जीवित है, जबकि मिस्र, असीरिया, यूनान और रोम की संस्कृति अपने मूल स्वरूप में विस्मृत हो चुकी हैं। विकृत प्रवृत्ति के साथ ही कुछ लोगों ने हमारे संस्कृति को मलिन करने के अनेक प्रयास किये थे और इसी सोच के साथ उन्होंने हमारे राष्ट्र पर कब्ज़ा करने का भी प्रयास किया था, परन्तु कुछ तो बात थी हमारी संस्कृति में, जिसने अनेकों आक्रमण भी सहे और फिर भी भारत की आत्मा को मलिन नहीं होने दिया। वहीं, क्या आप जानते हैं कि कैसे अनेकों आक्रमणों के बीच भी तिरुपति वेंकटेश्वर मन्दिर अक्षुण्ण रहा और उनकी रक्षा में भगवान वराहस्वामी ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई? आपको इस मंदिर और भगवान वराहस्वामी की भूमिका से अवगत कराते हैं।

क्या है तिरुमाला वेंकटेश्वर मंदिर का इतिहास?

हाल ही में, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विकसित काशी विश्वनाथ परिसर का शुभारम्भ करने के लिए 13 दिसंबर को वाराणसी पहुंचे, जहां उन्होंने अनेक प्रकार के आक्रमणों का उल्लेख किया। यह सत्य है कि अरब से लेकर मुगलों ने कई मंदिरों पर आक्रमण किया और उन्हें छिन्न-भिन्न किया, परन्तु एक मंदिर को चाहकर भी विदेशी आक्रान्ता हाथ नहीं लगा पाए और वह मंदिर है तिरुपति स्थित वेंकटेश्वर मंदिर। ऐसा परम आश्चर्य कैसे संभव हुआ? इससे पूर्व हम इसकी तह में जाएं, चलिए तिरुपति धाम से परिचित होते हैं।

आन्ध्र प्रदेश के चित्तूर जिले के चंद्रगिरी तालुका में तिरुमला पर्वत के पांव यानी बेस पर बसा है तिरुपति धाम। भगवान वेंकटेश्वर का धाम समुद्र ताल से 2800 फीट ऊंचा है।लेकिन जब सोमनाथ जी, काशी विश्वनाथ धाम इत्यादि भी आक्रान्ताओं की कुदृष्टि से नहीं बच पाए, तो भगवन तिरुपति कैसे बच गए? इसके पीछे अनेक किवदंतियां हैं, जिनमें दो बात समान है – महर्षि भृगु और भगवान वराहस्वामी।

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महर्षि भृगु और भगवान वराहस्वामी

वो कैसे? सनातन धर्म की वैदिक रीतियों की स्थापना में महर्षि भृगु ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ये सप्तर्षि मण्डली के सबसे महत्वपूर्ण सदस्य माने जाते थे और ये अपने विचित्र क्रोध के लिए बेहद चर्चित थे। जितने ही ज्ञानी थे, वे उतने ही क्रोधित भी होते थे। एक समय ऋषि कश्यप के नेतृत्व में गंगा नदी के तट पर एक महायज्ञ के आयोजन के लिए एकत्रित हुए, परन्तु सभी इस दुविधा में थे कि प्रसाद कौन ग्रहण करेगा? देवर्षि नारद ने सुझाव दिया कि महर्षि भृगु तीनों लोकों में त्रिमूर्ति यानी भगवान ब्रह्मा, भगवान विष्णु और भगवान शिव यानी महादेव से वार्तालाप करेंगे।

अत: सर्वप्रथम महर्षि भृगु भगवान ब्रह्मा जी के पास ब्रह्मलोक पहुंचे, परन्तु वह देवी सरस्वती के वीणा वादन में ही लीन थे और उनकी याचना भी नहीं सुनी। क्रोध में आकर महर्षि भृगु ने श्राप दिया कि मृत्युलोक में उन्हें कोई भी नहीं पूजेगा और इसीलिए अजमेर में पुष्कर मंदिर को छोड़कर आपको संसार में कहीं भी भगवान ब्रह्मा का मंदिर नहीं मिलेगा।

तद्पश्चात महर्षि भृगु महादेव के पास पहुंचे, परन्तु वह भी अपनी प्रिय पार्वती के साथ मग्न थे। क्रोध में भभक रहे महर्षि ने उन्हें भी श्रापित करते हुए कहा कि उनकी पूजा केवल एक लिंग के स्वरुप में होगी और उन्हें किसी और स्वरुप में नहीं पूजा जायेगा। इसके पश्चात् वह वैकुंठ लोक पहुंचे, जहां शेषनाग पर विराजमान भगवान विष्णु माँ लक्ष्मी सहित योगनिद्रा में थे। भृगु के आवेदन पर भी जब भगवान विष्णु नहीं उठे, तो क्रोध में उन्होंने भगवान नारायण के छाती पर लात मारी। लेकिन क्रोधित होने के स्थान पर उन्होंने महर्षि से क्षमा मांगी और उनके पांव दबाये।

महर्षि भृगु ने ऐसा क्यों किया?

असल में महर्षि भृगु के पांवों में एक नेत्र विराजमान था, जो उन्हें विशेष शक्तियां देता था। उन्होंने पांव दबाकर भगवान विष्णु के उस नेत्र को नष्ट किया, जिससे महर्षि भृगु को स्थिति स्पष्ट हुई थी। उन्होंने भगवान नारायण को सबसे योग्य माना और अपने आचरण के लिए कथित रूप से क्षमा भी मांगी। परंतु इस प्रकरण से माँ लक्ष्मी बहुत क्रोधित हुई क्योंकि भगवान् विष्णु की छाती में वह विराजमान थी और उनकी छाती पर प्रहार उनपर प्रहार के समान था। वह भगवान से रुष्ट होकर मृत्युलोक आ गई और वर्तमान कोल्हापुर में विराजने लगी। अब रूठे को मनाना से भगवन कैसे पीछे हटते, सो भगवान नारायण भी मृत्युलोक पहुंचे और उनके पांव सर्वप्रथम तिरुमला पर्वत पर पड़े। इसके पश्चात् उन्होंने तब तक तपस्या की, जब तक माँ लक्ष्मी उनके तप से संतुष्ट नहीं हुई।

विदेशी आक्रान्ता चाहकर भी नहीं लगा सके मंदिर को हाथ 

जब भगवान विष्णु माँ लक्ष्मी और पद्मावती के साथ वैकुंठ लोक वापस जाने लगे, तो अपने अनुयाइयों को उन्होंने आवाहन दिया कि जब भी वे तिरुमला आयें, तो वे पुष्करिणी में स्नान करें, भगवान वराहस्वामी की पूजा करें और फिर भगवान वेंकटेश्वर के दर्शन करें। भगवान वराहस्वामी को प्रसाद दिए बिना दर्शनार्थी तिरुपति के दर्शन के योग्य नहीं होता। यही आवाहन जब इस्लामिक आक्रान्ताओं को पता चला, तो वे क्रोध में मुट्ठी भींचकर रह गए भगवान वराहस्वामी वास्तव में जंगली सूअर का प्रतीक हैं, जो इस्लाम में वर्जित है। इसीलिए इस्लाम के आक्रान्ता चाहकर भी कभी तिरुमला पर नियंत्रण नहीं स्थापित कर पाए।

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आज भी यदि तिरुपति का धाम सुरक्षित है और उसका वैभव विद्यमान है, तो उसका कारण भगवान नारायण की दूरदर्शिता और उनके भक्तों की जिजीविषा है। सोचिये, जब काशी विश्वनाथ के पुनरुद्धार से देश को तोड़ने वाले इतना जलभुन रहे हैं, तो भगवान वराहस्वामी की भारत भर में पुनर्स्थापना से क्या होगा?

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