नागालैंड में AFSPA को खत्म करने पर क्यों विचार कर रही है मोदी सरकार?

AFSPA हटते ही राज्य में सिर उठाने लगेंगे अलगाववादी संगठन!

AFSPA

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नागालैंड में सेना द्वारा खुफिया सूचना के आधार पर घात लगाकर एक वैन पर हमला किया गया था, लेकिन वह सूचना गलत निकली। वैन में कोयला खदान में काम करने वाले स्थानीय श्रमिक बैठे थे। सेना ने गलती से उन्हें आतंकी समझ लिया और फायरिंग में 6 लोगों की मृत्यु हो गई। घटना शाम 6:30 बजे की थी और घटना के 1 घंटे बाद ही 7:30 बजे तक स्थानीय लोगों ने सेना के जवानों पर हमला शुरू कर दिया। इस हमले में एक सैनिक की मृत्यु हो गई, जिसके बाद सेना को बचाव में पुनः फायरिंग करनी पड़ी जिसमें 6 और ग्रामीणों की मृत्यु हो गई। इसके बाद स्थानीय पुलिस ने सेना के जवानों को गांव से निकाल कर मोन शहर पहुंचाया, किंतु हिंसा बंद नहीं हुई और शहर में सरकारी कार्यालय में तोड़फोड़ के साथ ही असम राइफल्स के कैंप पर भी हमला हुआ। केंद्र सरकार के तत्काल हस्तक्षेप और नागालैंड सरकार की सूझबूझ के कारण हिंसा और अधिक नहीं बढ़ी, किंतु तब तक राजनीतिक दलों को अपनी राजनीतिक रोटी सेंकने के लिए मामला मिल चुका था।

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45 दिनों के भीतर अपनी रिपोर्ट सौंपेगी यह पैनल

हिंसा के 3 सप्ताह बाद केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर उच्च स्तरीय बैठक के बाद एक पैनल गठित करने का निर्णय किया है। पैनल यह निर्णय लेगा कि नागालैंड में AFSPA अर्थात् आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट को उस राज्य में आगे जारी रखना उचित है अथवा नहीं। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार ने बीते रविवार को नागालैंड में सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम (AFSPA) को वापस लेने की संभावना की जांच के लिए सचिव स्तर के अधिकारी की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति का गठन किया। यह समिति 45 दिनों के भीतर अपनी रिपोर्ट देगी। खबरों के अनुसार, भारत के रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त विवेक जोशी पांच सदस्यीय समिति का नेतृत्व करेंगे, जबकि केंद्रीय गृह मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव पीयूष गोयल समिति के सदस्य सचिव होंगे। एक सरकारी अधिकारी ने बताया कि समिति के अन्य सदस्य नगालैंड के मुख्य सचिव और डीजीपी और असम राइफल्स के डीजीपी हैं।

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नागालैंड के अलगाववादी संगठनों को प्राप्त है चीनी समर्थन

बताते चलें कि दिसंबर की शुरुआत में हुई मुठभेड़ के बाद से AFSPA को हटाने की मांग जोर पकड़ रही है। किंतु भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र के इतिहास और वर्तमान भू-राजनीतिक परिदृश्य में यह कदम सही नहीं होगा। नागालैंड में अलगाववादी प्रवृत्ति भारत की आजादी के समय से ही सिर उठाती रही है। आतंकवादियों ने हिंसा को अपनी मांग का साधन बनाया है। नागालैंड के अलगाववादी संगठनों को चीन ने पहले भी समर्थन दिया है। पाकिस्तान के विपरीत चीन भारत के अलगाववादी तत्वों को तभी समर्थन देता है, जब भारत और उसके हित टकराते हैं। पाकिस्तान के लिए कश्मीर में अलगाववाद को बढ़ावा देना, उसकी साख का प्रश्न है किंतु चीन सिर्फ और सिर्फ अपने हितों को ध्यान रखकर ऐसे संगठनों की मदद करता है।

मौजूदा समय में भारत और चीन के हित टकरा रहे हैं। लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक सीमा पर तनाव का माहौल है। भारत, चीन के विरुद्ध अमेरिका के पक्ष में खड़ा है और एशिया की शक्तियों को गोलबंद कर रहा है। ऐसे में चीन यही चाहेगा कि भारत अपने पूर्वोत्तर क्षेत्र में पैदा होने वाली समस्याओं में उलझा रहे। ऐसी परिस्थिति में यदि केंद्र सरकार नागालैंड से AFSPA कानून हटाती है, तो भारत की पूर्वोत्तर में सामरिक पकड़ ढीली पड़ जाएगी, जिसका लाभ चीन को मिल सकता है। केंद्र सरकार को नागालैंड के लोगों में पुनः विश्वास बहाल करना होगा, किंतु किसी भी स्थिति में AFSPA कानून पर समझौता राज्य में एक नई परेशानी को जन्म दे सकता है।

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क्या है AFSPA और यह कब लागू हुआ था?

इस कानून को साल 1958 में लागू किया गया था। जिन राज्यों में राज्य सरकार और पुलिस-प्रशासन कानून-व्यवस्था संभालने में नाकाम रहती है, केंद्र सरकार उस क्षेत्र को ‘डिस्टर्ब एरिया’ घोषित कर आंतरिक सुरक्षा के लिए सेना को तैनात कर देती है। ऐसे में सेना को खास पावर दिए जाते हैं। ऐसा ही नागालैंड में भी है। केंद्रीय गृह मंत्रालय हर छह महीने के लिए इस कानून को लागू करता है।

आफस्पा लागू होने पर सेना को कई विशेषाधिकार मिल जाते हैं, जिसमें किसी को भी शक के आधार पर बिना वॉरंट के गिरफ्तार करना, फायरिंग करने के लिए खास परमिशन की आवश्यकता न होना, किसी की हत्या होने पर मुकदमा दर्ज न होना आदि शामिल है। कई बार आरोप लगते हैं कि सेना इन अधिकारों का गलत इस्तेमाल करती है, इसलिए इस कानून को हटाया जाना चाहिए। नागालैंड में भी अब इस हटाने की मांग उठने लगी है, जिसे लेकर समिति का गठन किया गया है।

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