जैन धर्म का संक्षिप्त इतिहास, सिद्धांत, और पंथ संप्रदाय

जैन धर्म

जैन धर्म भारत की श्रमण परम्परा से निकला दर्शन है. ‘जैन’ उन्हें कहते हैं, जो ‘जिन’ के अनुयायी हों. ‘जिन’ अर्थात् जीतने वाला. जिन्होंने अपने मन. वाणी, काया को जीत लिया हो वे हैं ‘जिन’.श्वेतांबर व दिगम्बर जैन पन्थ के दो सम्प्रदाय हैं. वस्त्र-हीन बदन, शुद्ध शाकाहारी भोजन और निर्मल वाणी एक जैन-अनुयायी की पहली पहचान है.वह अपने धर्म के प्रति बड़े सचेत रहते हैं. इनके ग्रन्थ समयसार व तत्वार्थ सूत्र हैं. जैनों के प्रार्थना स्थल, जिनालय या मन्दिर कहलाते हैं.

जैन धर्म में तीर्थंकरों जिन्हें जिनदेव, जिनेन्द्र या वीतराग भगवान कहा जाता है इनकी आराधना का ही विशेष महत्व है. इन्हीं तीर्थंकरों का अनुसरण कर आत्मबोध, ज्ञान और तन और मन पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है.

प्राचीनता

जैन धर्म के अनुयायियों का मानना है कि उनका धर्म ‘अनादि’ और सनातन है.वहीं सामान्यत: लोगों का मानना है कि जैन सम्प्रदाय का मूल उन प्राचीन पंरपराओं में रहा होगा, जो आर्यों के आगमन से पूर्व इस देश में प्रचलित थीं. किंतु यदि आर्यों के आगमन के बाद से भी देखा जाये तो ऋषभदेव और अरिष्टनेमि को लेकर जैन धर्म की परंपरा वेदों तक पहुँचती है.

कहा जाता है कि महाभारत के युद्ध के समय इस संप्रदाय के प्रमुख नेमिनाथ थे. जो जैन धर्म के मान्य तीर्थंकर थे. वहीं आठवीं सदी में 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ जी थे. जिनका जन्म काशी में हुआ था.वहीं काशी के पास ही 11वें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ था. इन्हीं के नाम पर सारनाथ का नाम प्रचलित है. श्रमण संप्रदाय का पहला संगठन पार्श्वनाथ ने किया था.जो वैदिक परंपरा के विरुद्ध थे.

भगवान महावीर जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे, जिनका जन्म लगभग ई. पू. 599 में हुआ था. जिन्होंने 72 वर्ष की आयु में देहत्याग किया था. शरीर छोडऩे से पूर्व महावीर स्वामी जी ने जैन धर्म की नींव काफ़ी मजबूत कर दी थी. अहिंसा को उन्होंने जैन धर्म में अच्छी तरह स्थापित किया. सांसारिकता पर विजयी होने के कारण महावीर स्वामी ‘जिन’ कहलाये. उन्हीं के समय से इस संप्रदाय का नाम ‘जैन’ हो गया.

जैन धर्म में भगवान

जैन ईश्वर को मानते हैं जो सर्व शक्तिशाली त्रिलोक का ज्ञाता द्रष्टा है पर त्रिलोक का कर्ता नही. जैन ग्रन्थों के अनुसार अर्हत् देव ने संसार को द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से अनादि बताया है. जगत का न तो कोई कर्ता है और न जीवों को कोई सुख दुःख देनेवाला है. अपने अपने कर्मों के अनुसार जीव सुख दुःख पाते हैं. जीव या आत्मा का मूल स्वभान शुद्ध, सच्चिदानंदमय है.

तीर्थंकर

जैन धर्म के 24 तीर्थकर हुए हैं जो इस प्रकार हैं-

1.ऋषभदेव- इन्हें ‘आदिनाथ’ भी कहा जाता है ,2. अजितनाथ ,3. सम्भवनाथ ,4. अभिनंदन जी ,5. सुमतिनाथ जी ,6. पद्मप्रभु जी ,7. सुपार्श्वनाथ जी ,8. चंदाप्रभु जी ,9. सुविधिनाथ- इन्हें ‘पुष्पदन्त’ भी कहा जाता है ,10. शीतलनाथ जी ,11. श्रेयांसनाथ , 12. वासुपूज्य जी ,13. विमलनाथ जी ,14. अनंतनाथ जी ,15. धर्मनाथ जी ,16. शांतिनाथ ,17. कुंथुनाथ ,18. अरनाथ जी ,19. मल्लिनाथ जी ,20. मुनिसुव्रत जी ,21. नमिनाथ जी ,22. अरिष्टनेमि जी – इन्हें ‘नेमिनाथ’ भी कहा जाता है. जैन मान्यता में ये नारायण श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे. ,23. पार्श्वनाथ ,24. वर्धमान महावीर – इन्हें वर्धमान, सन्मति, वीर, अतिवीर भी कहा जाता है.

जैन धर्म के सिद्धान्त

जैन पन्थ में अहिंसा को परमधर्म माना गया है. सब जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता, इस धर्म में प्राणिवध के त्याग का सर्वप्रथम उपदेश है. केवल प्राणों का ही वध नहीं, बल्कि दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले असत्य भाषण को भी हिंसा का एक अंग बताया है.

जैन पन्थ का दूसरा महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कर्म महावीर ने बार बार कहा है कि जो जैसा अच्छा, बुरा कर्म करता है उसका फल अवश्य ही भोगना पड़ता है तथा मनुष्य चाहे जो प्राप्त कर सकता है, चाहे जो बन सकता है, इसलिये अपने भाग्य का विधाता वह स्वयं है.

अनेकान्तवाद जैन पन्थ का तीसरा मुख्य सिद्धान्त है. इसे अहिंसा का ही व्यापक रूप समझना चाहिए. राग द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत ने होकर दूसरे के दृष्टिबिन्दु को ठीक-ठीक समझने का नाम अनेकान्तवाद है. आगे चलकर जब इस सिद्धान्त को तार्किक रूप दिया गया तो यह स्याद्वाद नाम से कहा जाने लगा तथा, स्यात् अस्ति’, ‘स्यात्नास्ति’, स्यात् अस्ति नास्ति’, ‘स्यात् अवक्तव्य,’ ‘स्यात् अस्ति अवक्तव्य’, ‘स्यात्नास्ति अवक्तव्य’ और ‘स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य’, इन सात भागों के कारण सप्तभंगी नाम से प्रसिद्ध हुआ.

पार्श्वनाथ भगवान के चार महाव्रत थे

1.अहिंसा
2.सत्य
3.अस्तेय
4.अपरिग्रह

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जैन धर्म के मुख्यतः दो सम्प्रदाय हैं श्वेताम्बर और दिगम्बर

दिगम्बर

दिगम्बर साधु (निर्ग्रन्थ) वस्त्र नहीं पहनते है, नग्न रहते हैं|दिगम्बरमत में तीर्थकरों की प्रतिमाएँ पूर्ण नग्न बनायी जाती हैं और उनका श्रृंगार नहीं किया है. दिगंबर समुदाय तीन में भागों विभक्त हैं.
तारणपंथ ,दिगम्बरतेरापन्थ ,बीसपंथ

श्वेताम्बर

श्वेताम्बर एवं साध्वियाँ और संन्यासी श्वेत वस्त्र पहनते हैं, तीर्थकरों की प्रतिमाएँ प्रतिमा पर धातु की आंख, कुंडल सहित बनायी जाती हैं और उनका शृंगार किया जाता है.
श्वेताम्बर भी दो भाग मे विभक्त है:

देरावासी ,स्थानकवासी

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