भयावह अजमेर कांड के 30 साल- आरोपी आज भी बेखौफ घूम रहे हैं!

इस रात की कोई सुबह नहीं!

Ajmer Scandal

Source- TFIPOST

पिछले साल दिसम्बर में अजमेर का पॉक्सो कोर्ट तब दहल गया जब एक गैंगरेप पीड़िता का गुस्सा पॉक्सो कोर्ट रूम में ही निकल गया। पीड़िता ने कहा,“तुम मुझे अब भी बार-बार कोर्ट क्यों बुला रहे हो? 30 साल हो गए।” वह पीड़िता जज, वकीलों और अदालत में मौजूद आरोपियों पर चिल्लाई और कहा,“मैं अब एक दादी हूँ, मुझे अकेला छोड़ दो। हमारे पास परिवार हैं। हम उन्हें क्या कह कहकर कोर्ट आएं?” उनके मुंह से यह निकलते ही पूरे कोर्ट में सन्नाटा पसर गया। उस पीड़िता के शब्दों ने दैनिक भास्कर के स्थानीय संस्करण में सुर्खियां बटोरी। यह वर्ष 1992 के राजस्थान की कुख्यात सामूहिक बलात्कार मामला, जिसे “अजमेर ब्लैकमेल कांड” कहा जाता है, उसके पीड़िता के बयान थे। यह घटना आज भी एक खुले घाव के समान है, जिसे उस घटना की पीड़िताएं पिछले 30 वर्षों से झेल रही हैं। जब तक वर्ष 2004 में दिल्ली पब्लिक स्कूल (डीपीएस) का ‘एमएमएस कांड’ सबके सामने नहीं आया था, तब तक यह देश का सबसे कुख्यात मामला माना जाता था।

यह कई युवतियों के साथ सामूहिक बलात्कार, वीडियो रिकॉर्डिंग, तस्वीरों के साथ सबमिशन और चुप्पी में ब्लैकमेल करने का मामला था। अजमेर गैंगरेप का मामला राजनीतिक संरक्षण, धार्मिक पहुंच, दण्ड से मुक्ति और छोटे शहर के ग्लैमर के जहरीले मिश्रण से पैदा हुआ एक ऐसा घाव था, जिसकी पहुंच कोर्ट तक नहीं पहुंच पाती, अगर शहर के क्राइम रिपोर्टर अपने जान पर खेलने के लिए तैयार नहीं होते।

इस कुख्यात मामलें में विडम्बना यह थी कि अजमेर में हर कोई जानता था कि आरोपी कौन हैं। उस समय अजमेर के प्रसिद्ध चिश्ती भाई, जिनका नाम फारूक चिश्ती और नफीस चिश्ती था, वह खुलेआम घूम रहे थे। यह दोनों भाई अजमेर शरीफ दरगाह के खादिम (संरक्षक) परिवार और उनके दोस्तों के गिरोह से संबंधित थे। इन लोगों ने स्कूल जाने वाली कई युवतियों को महीनों तक धमकियों और ब्लैकमेल के जाल में फंसाया और उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया। उसके बाद भी उनका मन नहीं भरा तो एक फोटो कलर लैब ने महिलाओं की नग्न तस्वीरें छापी और उन्हें प्रसारित करने में मदद की।

जब कहानी सामने आई तो अजमेर में धार्मिक तनाव बढ़ गया और शहर को बंद करना पड़ गया, लेकिन बहुत से लोग आज भी नहीं जानते हैं कि सार्वजनिक बहस में उनके मामले सामने आने के बाद भी पीड़ित महिलाएं कौन थी और वे कहां गायब हो गई हैं। स्थानीय मीडिया ने महिलाओं को “आईएएस और आईपीएस अधिकारियों की बेटी” बताया, लेकिन वे कुलीन नहीं थी। कई पीड़िता तो सरकारी कर्मचारियों के मामूली, मध्यम वर्गीय परिवारों से आती थी, जिनमें से कई महिलाओं ने हंगामे के मद्देनजर अजमेर छोड़ दिया।

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अजमेर रेपकांड

इससे पहले की पुलिस प्रशासन, कांग्रेस पार्टी, धार्मिक पुरुषों और पत्रकारों के कारनामे का पर्दाफाश किया जाए, उससे पहले यह जान लीजिए कि अजमेर रेपकांड आखिर था क्या? वर्ष 1992 में राजस्थान के छोटे से शहर अजमेर में एक शर्मनाक और घिनौना कांड हुआ। इस कांड में सैकड़ों युवा लड़कियों को निशाना बनाया गया, उनके साथ अजमेर दरगाह के चिश्ती बन्धुओं ने लम्बे समय तक बलात्कार किया। और यह तब तक चला, जब तक एक स्थानीय अखबार ‘नवज्योति’ ने कुछ नग्न तस्वीरें और एक कहानी प्रकाशित न कर दी, जिसमें स्कूली छात्रों को स्थानीय गिरोहों द्वारा ब्लैकमेल किए जाने की बात कही गई थी।

रिपोर्ट के अनुसार, ब्लैकमेल ऑपरेशन को जल्द ही धारावाहिक अपराधों की एक श्रृंखला के रूप में खोजा गया। स्थानीय प्रभावशाली पुरुषों का एक विशिष्ट समूह युवा लड़कियों को निशाना बना रहा था। वे एक लड़की को फंसाते थे और अश्लील तस्वीरें लेने में कामयाब होते थे। फिर वे लड़की को उसके सहपाठियों और दोस्तों से परिचित कराने के लिए ब्लैकमेल करते थे। आखिरकार, अन्य लड़कियों के साथ बलात्कार किया जाता था, उनका यौन शोषण किया जाता था और उनकी तस्वीरें ली जाती थी। यह सिलसिला आगे भी चलता रहता था। गिरोह ने अपने संचालन का विस्तार करना जारी रखा और लड़कियों की बढ़ती संख्या का शिकार किया।

पुलिस का नाकारापन!

यह मामला कानूनी लचरपन और पुलिसिया कमजोरी की जीती जागती मिसाल है। यह मामला राजस्थान में 12 सरकारी अभियोजकों, 30 से अधिक एसएचओ, दर्जनों एसपी, डीआईजी, डीजीपी तक फैला हुआ है। अजमेर पुलिस को हमेशा संदेह था कि 100 से अधिक किशोरियों का शोषण किया गया था, लेकिन प्राथमिक जांच के दौरान केवल 17 पीड़ितों ने अपने बयान दर्ज कराए। यह मामला जिला अदालत से राजस्थान उच्च न्यायालय, सुप्रीम कोर्ट, फास्ट ट्रैक कोर्ट, महिला अत्याचार न्यायालय में चला गया और वर्तमान में अजमेर की पॉक्सो अदालत में है। सितंबर 1992 में मुकदमा शुरू होने के बाद से, पुलिस ने छह आरोपपत्र दायर किए हैं, जिसमें 18 आरोपियों (शुरुआत में आठ से ऊपर) और 145 से अधिक गवाहों का नाम है।

पुलिस रिकॉर्ड में बलात्कार पीड़िताओं के पहले नाम और अस्पष्ट सरकारी कॉलोनी के पतों का उल्लेख है, जहां से वे बहुत पहले चले गए थे। उस समय की स्कूली छात्राएं, सामूहिक बलात्कार पीड़िताएं अपने साथियों और बच्चों और पोते-पोतियों के साथ अलग-अलग शहरों में चली गई, जिससे पुलिस के लिए ट्रैक रखना लगभग असंभव हो गया है। दशकों से अदालतों ने हर बार किसी आरोपी के आत्मसमर्पण करने या गिरफ्तार होने पर बचे लोगों को तलब किया। जब भी मुकदमा शुरू हुआ, पुलिस वाले समन देने के लिए राज्य के विभिन्न हिस्सों में महिलाओं के घरों पर पहुंचे है।

हालत तो यह हो गई है कि पुलिस भी मायूस हो गई है। दरगाह पुलिस स्टेशन के एसएचओ दलबीर सिंह ने कहा, “हम उन्हें कितनी बार अदालत में घसीटेंगे? फोन करने पर वे हमें गालियां देते हैं। हर बार जब वे अपने दरवाजे पर एक पुलिसकर्मी को देखते हैं, तो वे घबरा जाते हैं।” करीब एक साल से सिंह को समन देने और पीड़ितों को अदालत में लाने का काम सौंपा गया है। सिंह ने मामले के खींचतान पर कहा, “एक परिवार ने कहा कि उनकी बेटी की मृत्यु हो गई। एक और परिवार ने मुझे धमकी देने के लिए वकील भेजा। कम से कम तीन पीड़ितों ने अदालत में अपना बयान दर्ज कराने के बाद खुद को मारने की कोशिश की।”

जब नतमस्तक हो गई पुलिस!

यह मामला देश में पुलिस बल की नाकामी बताने के लिए काफी है! पुलिस को लंबे समय तक यह मामला मालूम था, लेकिन वह कारवाई करने से बचती रही। नवज्योति के संपादक दीनबंधु चौधरी ने स्वीकार किया था कि स्थानीय कानून प्रवर्तन अधिकारियों को कहानी के सामने आने से लगभग एक साल पहले से ही जानकारी थी, लेकिन स्थानीय राजनेताओं ने जांच को रोकने की अनुमति दी। इस कहानी को चलाने से पहले अपराध करने वाले ‘खादिम’ परिवार के कारण खुद चौधरी भी झिझक रहे थे। खादिम अजमेर दरगाह की पारंपरिक देखभाल करने वाला परिवार हैं, वे ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के पहले अनुयायियों के प्रत्यक्ष वंशज होने का दावा करते हैं और स्थानीय समुदायों में महत्वपूर्ण प्रभाव रखते हैं।

पुलिस ने मामले को रोक दिया था, क्योंकि स्थानीय राजनेताओं ने इन आरोपों के खिलाफ कार्रवाई की चेतावनी दी थी और कहा था कि कार्रवाई से बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक तनाव होगा। संपादक चौधरी ने कहा कि आखिरकार उन्होंने कहानी को आगे बढ़ाने का फैसला किया, क्योंकि स्थानीय प्रशासन को कार्रवाई करने के लिए जगाने का यही एकमात्र तरीका था। अंतत: पुलिस ने आठ आरोपितों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की। आगे की जांच में कुल 18 लोगों को आरोपित किया गया और शहर में कई दिनों तक तनाव बना रहा। अधिकांश आरोपी मुस्लिम थे, कई खादिमों के परिवारों से थे और अधिकांश पीड़ित युवा हिंदू लड़कियां थी।

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इस कांड से शहर सदमे में था। विरोध करने के लिए लोग सड़कों पर उतर आए और सांप्रदायिक तनाव बढ़ गया। अजमेर में तीन दिन का बंद देखा गया और उसके बाद व्यापक शोषण और ब्लैकमेल की खबरें सामने आने लगी। राजस्थान के सेवानिवृत्त डीजीपी ओमेंद्र भारद्वाज, जो उस समय अजमेर में पुलिस उप महानिरीक्षक थे, ने कहा कि आरोपी का सामाजिक और वित्तीय अभिजात वर्ग का होना, कई और पीड़ितों को आगे आने से रोकता रहा। एक और गंभीर पहलू यह था कि कई पीड़िताएं कमजोर पड़ने के कारण पहले ही आत्महत्या कर चुकी थी।

कांग्रेस ने जो अन्याय किया, वह भूला नहीं जा सकता है!

इसके बाद जो हुआ वह राजनीतिक प्रभाव और प्रशासनिक अक्षमता की एक और गाथा थी। मामला बंद होने से अभी दूर था, कई पीड़ित जिन्हें गवाह बनना था, वे मुकर गए। सामाजिक कलंक और बहिष्कार की बदबू इतनी बुरी थी कि शहर की लड़कियों को गिरोह की शिकार होने के रूप में सामान्यीकृत किया जाता था। पीड़ितों की संख्या कई सौ मानी जाती थी, लेकिन कुछ ही पीड़ित हिम्मत जुटाकर सामने आई। स्थिति इतनी खराब थी कि संभावित दूल्हे, जो अजमेर की लड़कियों से शादी करने वाले थे, समाचार पत्रों के कार्यालयों में आकर यह पता लगाने की कोशिश कर रहे थे कि जिस लड़की से वे शादी करने जा रहे हैं, वह उनमें से एक है या नहीं।

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के राज्य महासचिव और अजमेर के निवासी अनंत भटनागर ने कहा, लोग कहते थे कि अगर लड़की अजमेर की है, तो उन्हें यह पता लगाना होगा कि वह किस तरह की लड़की है। दिलचस्प बात यह है कि मुख्य आरोपियों में से एक फारूक चिश्ती, कांग्रेस का नेता भी था, उसको बाद में मानसिक रूप से अस्थिर घोषित कर दिया गया। फारूक चिश्ती अजमेर युवा कांग्रेस का अध्यक्ष था, जबकि दो अन्य आरोपी नफीस चिश्ती और अनवर चिश्ती शहर कांग्रेस इकाई के क्रमशः उपाध्यक्ष और संयुक्त सचिव थे, जिसके कारण यह वर्षों तक बचते रहे और साथ ही कांग्रेस की सरकार होने पर इनको संरक्षण भी प्राप्त था।

न्यायपालिका के कारनामें

पुलिस और प्रशासन की लाचारी समझ में आती है, लेकिन इतने बड़े रेप कांड के बाद न्यायपालिका ने जो किया वो भी लगभग असहनीय था! वर्ष 1998 में, अजमेर की एक सत्र अदालत ने आठ लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई, लेकिन वर्ष 2001 में राजस्थान उच्च न्यायालय ने उनमें से चार को बरी कर दिया। अन्य चार की सजा को सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2003 में घटाकर सिर्फ 10 साल कर दिया था। उनके नाम मोइजुल्लाह उर्फ ​​पुत्तन, इशरत अली, अनवर चिश्ती और शमशुद्दीन उर्फ ​​मेराडोना थे। वहीं, फरार सलीम चिश्ती को वर्ष 2012 में राजस्थान पुलिस ने गिरफ्तार किया था। एक अन्य मुख्य आरोपी आलमास महाराज अभी भी फरार है और माना जाता है कि वह अमेरिका में है। सीबीआई ने उनके लिए रेड कॉर्नर अलर्ट जारी किया है।

पत्रकारों ने भी किया ब्लैकमेल

इस भीषण मामले का सबसे परेशान करने वाला पहलू यह था कि हिंसा पीड़ितों को किसी ने नहीं छोड़ा। उस समय अजमेर में स्मॉल टाइम टैब्लॉयड काफी सनसनीखेज थे। मानो सैकड़ों लड़कियों का सामूहिक शोषण शहर की अंतरात्मा पर आघात करने के लिए पर्याप्त नहीं था, कई पीड़ितों को इन टैब्लॉयड और स्थानीय समाचार पत्रों द्वारा कथित तौर पर ब्लैकमेल भी किया गया था। कई पत्रकारों के पास लड़कियों की स्पष्ट छवियों तक पहुंच थी और मालिकों और प्रकाशकों ने लड़कियों के परिवारों से उन्हें छिपाने के लिए पैसे मांगे। इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार, मदन सिंह, ऐसे ही एक अखबार के मुख्य संपादक थे, वो कई लड़कियों से पैसे की मांग करते हुए ब्लैकमेल करने वालों में से एक थे। उन्होंने कथित तौर पर पीड़िताओं की तस्वीरें जारी करने की धमकी तक दे डाली थी। ज्यादातर लड़कियों ने आत्मसमर्पण कर दिया था, जबकि एक पीड़ित, पुष्पा धनवानी ने आगे आकर उसके खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराई थी।

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समग्र समाज इस मामले में अपराधी रहा है!

अजमेर कांड की यह कहानी आज भी शरीर में सिहरन पैदा कर देती है। इस शहर को भारत के सांप्रदायिक सद्भाव के प्रतीक के रूप में जाना जाता है, गंगा जमुनी तहजीब का केंद्र माना जाता है। अक्सर यह हवाला देते हुए यह कहा जाता है कि हिंदू भी दरगाह पर जाते हैं, लेकिन यह शर्मनाक कांड उन सभी दावों पर एक बड़ा सवाल है। किसी को भी पीड़ितों की वास्तविक संख्या का पता नहीं चला। स्कूली छात्राओं को जिस डर और मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ा, उसे किसी ने कभी महसूस नहीं किया।

यौन अपराधों के शिकार लोगों के प्रति समाज अक्सर बेरहम और क्रूर होता है। अब शायद पीड़ितों को न्याय कभी न मिले। हो सकता है कि सिर्फ 18 लोगों को गिरफ्तार किया गया हो, लेकिन समग्र रूप से समाज इस मामले में अपराधी रहा है। अजमेर में लड़कियों की एक पूरी पीढ़ी को हमारा सिस्टम फेल कर चुका है! कानून को बर्बाद करने का कार्य न्यायपालिका और कांग्रेस पार्टी द्वारा बहुत बखूबी से किया गया जिसे हम शायद भुला भी दें, लेकिन इतिहास कभी नहीं भुला सकता है! उन सैकड़ों हिन्दू लड़कियों के साथ जो हुआ, वह अमानवीय नहीं दैत्यीय अपराध था। आज जब यह केस चल रहा है तब भाजपा की सरकार रेप कानूनों को कड़े करने की वकालत कर रही है। शायद यही से अब अच्छे दिनों की शुरुआत भी हो सकती है!

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