मुख्य बिंदु
- भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने पंजाब में अपने चुनावी भाग्य को बदलने के लिए प्रमुख सिख चेहरों को साथ लिया है
- किसी भी पार्टी को जीत हासिल करने के लिए दो प्रमुख वोटिंग समूहों पर जीत हासिल करने की जरूरत है
- कृषि कानून वापस लिए जाने के बाद भाजपा पंजाब में अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश कर रही है
- एग्जिट पोल नहीं एग्जैक्ट पोल तय करेगा पंजाब विधानसभा चुनाव का परिणाम
किसी भी चुनाव के नजदीक आते ही मीडिया अपने साधनों जैसे एग्जिट पोल (Exit Poll) आदि के माध्यम से जनता के समकक्ष अपना फैसला सुनाना शुरू कर देती है। अक्सर, कई राजनेता इन आंकड़ों से प्रभावित हो जाते हैं। वहीं, अगर देखें तो पंजाब में भाजपा चुनाव को लेकर ‘चालाकी का खेल’ खेल रही है। चुनाव के दौरान आया राम, गया राम की घटना को देखना एक आम बात है। इस चुनावी मुहावरे का अर्थ है कि अपनी ही पार्टी से संतुष्ट कुछ नेता प्रतिद्वंद्वियों का सहारा लेते हैं। पंजाब में भी कुछ ऐसा ही माहौल है। भाजपा को इन नेताओं से पंजाब के राजनीतिक समीकरणों में कुछ बड़े बदलाव लाने की उम्मीद है। रणनीति में एक महत्वपूर्ण बदलाव के साथ, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने पंजाब में अपने चुनावी भाग्य को बदलने के लिए प्रमुख सिख चेहरों को साथ लिया है।
भाजपा के पास हैं प्रमुख सिख चेहरे
आगमी पंजाब विधानसभा चुनाव लड़ने का मौका पाने के लिए कई नेताओं ने भाजपा में शरण ली है। इनमें मनजिंदर सिंह सिरसा जैसे प्रमुख अकाली दल के कई नेता शामिल हैं। शिरोमणि अकाली दल नेता बिक्रम सिंह मजीठिया के मीडिया सलाहकार और दमदमी टकसाल (रूढ़िवादी सिख सांस्कृतिक और शैक्षिक संगठन) के प्रवक्ता प्रो. सरचंद सिंह आदि कुछ अन्य प्रमुख नाम हैं।
आपको बता दें कि पंजाब में भाजपा को कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। साल भर चलने वाले कृषि आंदोलन के दौरान, भगवा पार्टी के कई नेताओं ने इसे छोड़ दिया, यहां तक कि वे भी जो हिंदू और सिख दोनों के पुराने सदस्य थे। असफलताओं के बावजूद, भाजपा ने अकाली दल के नेताओं को शामिल करके अपने चुनाव अभियान की रणनीति तेजी से बनाई है। दरअसल, पंजाब के राजनीतिक समीकरण के अनुसार, किसी भी पार्टी को जीत हासिल करने के लिए दो प्रमुख वोटिंग समूहों पर जीत हासिल करने की जरूरत है।
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वे समूह हिंदू और सिख हैं। हिंदू वोट आम तौर पर एकीकृत रहते हैं। वहीं, सिख वोट आगे दो गुटों में विभाजित होते हैं-दलित सिख वोट और जाट सिख वोट। परंपरागत रूप से, सिख वोट सबसे अधिक शिरोमणि अकाली दल (शिरोमणि अकाली दल) के पास जाता था किन्तु 2017 के विधानसभा चुनाव में शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा के साथ चुनाव लड़ा था, जिसके परिणाम दोनों पार्टिओं के पक्ष में नहीं थे और सिख मतदाताओं के बीच शिरोमणि अकाली दल की घटती जनाधार की पुष्टि हुई थी। लिहाजा, 2017 के विधानसभा चुनाव में सिख वोटों का बड़ा हिस्सा कांग्रेस को गया क्योंकि कैप्टन अमरिंदर सिंह उनका मुख्य चेहरा थे। कैप्टन के पक्ष में दलित और जाट दोनों सिखों ने एकमत से वोट किया था।
पंजाब में बंटा हुआ है दलित सिख और जाट सिख वोट
हालांकि, जाट सिख हर चुनाव में मुख्य चेहरे के रूप में दलित सिखों का कम प्रतिनिधित्व महसूस करते हैं। दरअसल, 2021 में चरणजीत सिंह चन्नी की मुख्यमंत्री के रूप में नियुक्ति को दलित वोटों (दलित सिख) को अपने पक्ष में करने हेतु कांग्रेस का यह आखिरी प्रयास माना जा रहा है। ऐसे में, पंजाब विधानसभा चुनाव 2022 में परिस्थिति भिन्न है। अब दलित सिख और जाट सिख दोनों वोट बंटे हुए हैं।
एक तरफ जाट सिख कैप्टन अमरिंदर सिंह के अपमान के लिए कांग्रेस से नाराज हैं। वहीं, दूसरी तरफ दलित सिखों प्रतिनिधित्व के तौर पर कैप्टन अमरिंदर सिंह का कांग्रेस पार्टी छोड़ना उन्हें खटक रहा हैं। इसके अलावा, जिस तरह से विरोध स्थल पर एक दलित सिख की पीट-पीट कर हत्या कर दी गई, उसने कांग्रेस के साथ दलितों की कथित वफादारी के बीच एक दरार उत्पन्न कर दी है। इंच दर इंच कांग्रेस से सिखों के वोट दूर होते जा रहे हैं, जिसके बाद कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भाजपा के साथ चुनावी मैदान में उतरने का निर्णय लिया है।
हिंदू वोटों का प्रवाह भाजपा की ओर
पंजाब में माना जाता है कि पूर्व मुख्यमंत्री अपने साथ अधिकांश सिख वोट छीन लेते हैं। आपको बता दें कि कृषि कानून वापस लिए जाने के बाद भाजपा पंजाब में अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश कर रही है। भाजपा अपनी रणनीति के तहत अन्य राजनीतिक दलों के नेताओं को शामिल कर रही है। याद रहे कि कृषि कानूनों को वापस लेने से पहले, भाजपा को पंजाब में बहुत विरोध का सामना करना पड़ रहा था। किसान आंदोलन के समर्थक भाजपा नेताओं को अपने क्षेत्र में प्रचार करने की अनुमति भी नहीं दे रहे थे।
कादियां सीट से कांग्रेस विधायक फतेह सिंह बाजवा और श्री हरगोबिंदपुर साहिब सीट से बलविंदर सिंह लड्डी भाजपा में शामिल हो चुके हैं। बताते चलें कि बाजवा कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य प्रताप सिंह बाजवा के भाई हैं। इसके अलावा शिरोमणि अकाली दल के नेता गुरतेज सिंह गुंधियाना, यूनाइटेड क्रिश्चियन फ्रंट पंजाब के अध्यक्ष कमल बख्शी, पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में एडवोकेट मधुमीत, निहाल सिंह वाला से सिविक बॉडी मेंबर, संगूर से पूर्व सांसद जगदीप सिंह धालीवाल और पूर्व क्रिकेटर दिनेश मोंगिया भी भाजपा में शामिल हो चुके हैं। अगर हम हिंदू वोटों की बात करें तो वे कुल मिलाकर भाजपा के पक्ष में हैं। इसके अलावा, हत्या के प्रयास से भाजपा की ओर अधिक हिंदू वोटों का प्रवाह होने की उम्मीद है।
क्या है दमदमी टकसाल संगठन?
गौरतलब है कि दमदमी टकसाल एक सिख शैक्षिक संगठन है और इस क्षेत्र में पंथवादी मुद्दों पर एक प्रमुख आवाज माना जाता है। संयोग से, यह एक बार कट्टरपंथी सिख उपदेशक जरनैल सिंह भिंडरावाले के नेतृत्व में था। हालांकि, सिरसा ने इसपर बचाव करते हुए कहा, “अगर दमदमी टकसाल के सदस्य कांग्रेस जैसी पार्टियों में हो सकते हैं, तो मुझे भाजपा में शामिल होने वाले किसी व्यक्ति के लिए शोर-शराबा नहीं दिखता।” भाजपा में शामिल एक अन्य सदस्य हरिंदर सिंह कहलों थे, जिन्होंने ऑल इंडिया सिख स्टूडेंट्स फेडरेशन का नेतृत्व किया और 1980 के दशक में कट्टरपंथी आंदोलनों के सबसे महत्वपूर्ण ओवरग्राउंड नेताओं में से एक बने रहे। उन्हें एक समय देशद्रोह के आरोपों का भी सामना करना पड़ा था।
बड़े जनाधार वाले नेताओं पर है भाजपा की कड़ी नजर
भाजपा की नई रणनीति प्रमुख सिख चेहरों को अपने साथ लेकर पंजाब को जीतना है। शिरोमणि अकाली दल के वरिष्ठ नेता और दिल्ली के एक लोकप्रिय सिख चेहरे मनजिंदर सिंह सिरसा भाजपा में शामिल होने वाले बड़े सिख चेहरों में से एक हैं। उन्होंने कहा था कि “वह अपने समुदाय की खातिर भाजपा में शामिल हो रहे हैं।” शिरोमणि अकाली दल नेता बिक्रम सिंह मजीठिया के मीडिया सलाहकार और दमदमी टकसाल के प्रवक्ता प्रो. सरचंद सिंह ने कहा, “कृषि आंदोलन के दौरान किसानों की मौत के लिए भाजपा के नेतृत्व वाले केंद्र को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।”
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उन्होंने कहा कि भाजपा को दोष देना उचित नहीं है। उन्होंने कहा कि भाजपा सिखों का सम्मान कर रही है। 26 दिसंबर को ‘वीर बाल दिवस’ के रूप में मनाने के लिए पीएम मोदी की हालिया घोषणा को लेकर SGPC सहित विभिन्न सिख निकायों द्वारा व्यापक रूप से निंदा की गई थी। वहीं, एक प्रमुख सिख संगठन दमदमी टकसाल ने इस फैसले की सराहना की। ऐसे में, कहा जा सकता है कि चुनाव युद्ध की तरह होते हैं। ज्यादातर बार, यह युद्ध-कक्ष की रणनीति है जो अंतिम परिणाम तय करती है। पंजाब में भाजपा की रणनीति के लिए भी यही सच है कि इस बार सब पार्टियों के बड़े जनाधार वाले नेताओं को जोड़ भाजपा पंजाब में अपनी फतह मजबूत करने में जुट गई है।