कबीर दास जी का जन्म, जीवन, दीक्षा और मृत्यु से सम्बंधित जानकारी

कबीर दास जी की रचनाएं

संत कबीरदास जी हिंदी के एक महान सुप्रसिद्ध कवि थे. कबीरदास जी ने अपने जीवन में अनेक प्रकार की कृतियां लिखी. इसके साथ ही उनके दोहे भी काफी प्रसिद्ध रहे जिन्हें हम आज तक पढ़ते और सुनते आ रहें हैं. कबीर दास जी का जन्म कहाँ हुआ था? इसके बारें में विद्वान एक मत नहीं है, आईये इतिहास में कबीर दास जी जन्म कहाँ हुआ था इसके बारें में कुछ कथाएं प्रचलित है उन पर प्रकाश डालते है और साथ ही आपको इस लेख में कबीर दास जी के जीवन से जुडी अधिकांश जानकारी प्राप्त हो जाएगी.

कबीर दास जी का जन्म

कबीर दास जी का जन्म 1398 ई. में हुआ था. कबीरदास जी के जन्म के दौरान अनेक प्रकार की बाते की जाती थी. कुछ लोगों का कहना है कि वह जगत गुरु रामानंद स्वामी जी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से अत्पन्न हुए थे. वह ब्राह्मणी उस नवजात को लहरताला ताल के पास फेक आई. जिसके बाद उस शिशु को एक नीरुमान का एक जुलाहा अपने घर लेकर आ गया. और उन्होने उसका पालन पोषण किया. जिसके बाद बालक कबीर कहा जाने लगा. यह कथा कबीर दास जी का जन्म कैसे हुआ था इस पर सबसे ज्यादा प्रचलित है

वहीं कुछ लोगो का कहना है कि वह जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हे हिंदू धर्म की बाते मालूम हुई. वहीं कुछ और लोगों का मानना है की कबीर दास जी का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रुप में हुआ था. कबीर दास जी के माता- पिता के विषय में भी एक राय निश्चित नहीं है.

कबीर दास जी का जन्म स्थान

कबीर दास जी का जन्म के संबंध में तीन मत हैं: मगहर, काशी और आजमगढ़ में बेलाहारा गण. मगहर के पक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि कबीर ने आपनी रचना में मगहर का उल्लेख किया है:

कबीर दास जी का जन्म स्थान दोहा
“पहिले दर्शन मगहर पायो पुनी कासी आधार ऐ

अर्थ- काशी में रहने से पहले उन्होने मगहर देखा. मगहर आजकल वाराणसी के नजदीक ही है और वहां कबीर जी का मकबरा भी है.
कबीर का अधिकांश जीवन काशी में व्यतित हुआ. वे काशी के जुलाहे के रूप में ही जाने जाते थे. कई बार कबीरपंथियों का भी यही मत था कि कबीर का जन्म काशी में हुआ. पर इसका कोई प्रमाण नहीं है. बहुत से लोग आजमगढ़ जिले के बेलाहारा गण को कबीर साहब का जन्मस्थान माने हैं.

उनका मानना है कि ‘बेलाहारा’ ही बदलते-बदलते लहरतारा हो गया. फिर भी पता लगा पर ना तो बेलाहारा गण का सही से पता चला पता है और ना ही यह मलूम हो पता है की बेलाहारा का लहरतारा कैसे बन गया

माता-पिता

कबीर के माता- पिता के विषय में भी एक राय निश्चित नहीं है. “निमा’ और “नीरू’ की कोख से यह अनुपम ज्योति पैदा हुई थी, या लहर तालाब के समिप विधवा ब्राह्मणी की पाप- संतान के रूप में आकार यह पतितपावन हुए थे. एक किवादन्ति के अनुसार कबीर को एक विधवा ब्राह्मणी का पुत्र बताया जाता है. जिसे भूल से रामानंद जी ने पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे दिया था.

कबीर के एक पद से प्रतित होता है की वे आपनी माता की मृत्यु से बहुत दुखी हुए थे.वहीं उनके पिता ने उनको बहुत सुख दिया था. जबसे कबीर ने माला ली थी. उसकी माता को कभी सुख नहीं मिला.इससे यह बात सामने आती है कि कबीर की भक्ति विकास संत- संस्कार के करण उनकी माता को कष्ट था.

शिक्षा

कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे. वह अपनी अवस्था के बालकों से एकदम भिन्न रहते थे. कबीरदास के खेल में कोई रुचि नहीं थी. मदरसे भेजने लायक साधन माता पिता के पास नहीं था. जिसे हर दिन भोजन की चिंता रहती हो. उस पिता के मन में कबीर को पढ़ाने का विचार भी ना उठा होगा. यही कारण है कि वह किताबी विद्या प्राप्त नहीं कर सके.

कबीरदास जी का वैवाहिक जीवन

संत कबीरदास का विवाह लोई नाम की कन्या से हुआ था. विवाह के बाद कबीर और लोई को दो संतानें हुई, जिसमें एक लड़का व दूसरी लड़की. कबीर के लड़के का नाम कमाल तथा लड़की का नाम कमाली था.

कबीर की धार्मिक प्रवृति होने के कारण उनके घर साधु-संत और सत्संग करने वालों की हर दिन आवाजाही बनी रहती थी. अत्यधिक गरीबी और ऊपर से निरंतर मेहमानों की आवाजाही के कारण अक्सर कबीर की पत्नी कबीर से झगड़ा करती थी. इस पर कबीर अपनी पत्नी को किस तरह समझाते थे. वहीं कबीर को मानने वाली दूसरी धारा का मानना हैं कि कबीर बाल-ब्रह्मचारी और विराणी थे. उनके अनुसार कामात्य उनका शिष्य था तथा कमाली और लोई शिष्या का नाम था. कबीर लोई शब्द का इस्तेमाल कम्बल के रूप में भी करते थे.

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गुरु दीक्षा-

कबीर जी ने सोचा की गुरु बिना काम बनेगा नहीं. उस समय काशी में रामानंद नाम के संत बड़े ऊंचे कोटि के महापुरुष माने जाते थे. कबीर ने कई बार रामानंद से मिलने और उन्हें अपना शिष्य बनाने की विनती कि लेकिन उस समय जातिवाद अपने चरम पर था. इसलिए हर बार उन्हें आश्रम से भगा दिया जाता था.

लेकिन एक दिन कबीरदास जी ने गुरु रामानंद जी से मिलने की तरकीब निकाली और वह पंचगंगा घाट की सीढ़ीयों पर लेट गये. जैसे ही रामानंद उस रास्ते से निकले उनका पैर कबीर पर पड़ा. और पैर पड़ते ही उनके मुख से राम राम शब्द निकला. उस राम को कबीर ने दीक्षा मंत्र मान लिया. रामानंद कबीर की श्रद्धा को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें अपना शिष्य बना लिया.

कबीर दास की मृत्यु

प्राचीन मान्यता के अनुसार जो व्यक्ति काशी में अपने प्राण त्यागता हैं. उसको स्वर्ग की प्राप्ति होती हैं वहीं जिस व्यक्ति की मगहर में मृत्यु होती हैं. उसे नरक मिलता हैं. बस इसी रूढ़ीवादी धरना को तोड़ने के लिए संत कबीर अपने अंतिम दिनों में मगहर चले गये थे. कबीरदास जी की मृत्यु सन 1494 ई० मगहर में हुई थी. ऐसा माना जाता हैं कि उन्हें अपनी मृत्यु का अंदेशा पहले ही हो गया था. वहीं कुछ लोगों का मानना हैं कि कबीर को मगहर जाने के लिए मजबूर किया गया था. कबीर के शत्रु चाहते थे कि कबीर की मृत्यु के बाद उनको मुक्ति की प्राप्ति न हो.

ऐसी मान्यता है की उनकी मृत्यु के बाद उनके शव को लेकर काफी विवाद उत्पन्न हो गया था. हिन्दू चाहते थे कि उनका अन्तिम संस्कार हिन्दू रीति रिवाज से हो. वहीं मुस्लिम चाहते थे कि मुस्लिम रीतिरिवाज से हो. इसी विवाद के चलते जब उनके शव पर से चादर हट गई. तब लोगों ने वहां फूलों को पड़ा देखा.बाद नें आधे फूल हिंदुओं ने ले लिए और आधे मुसलमानों ने. मुसलमानों ने मुस्लिम रीति से और हिंदुओं ने हिंदू रीति से उन फूलों का अंत संस्कार किया. वहीं मगहर में कबीर जी की समाधि है. आशा करते है कि कबीर दास जी का जन्म से सम्बंधित यह लेख आपको पसंद आया होगा एवं ऐसे ही लेख और न्यूज पढ़ने के लिए कृपया हमारा ट्विटर पेज फॉलो करें.

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