83 के फ्लॉप होने पर अपना आपा खो रहे हैं कबीर खान

इनके अनुसार विश्लेषक गलत बोल रहें हैं!

कबीर खान 83

कुछ लोगों को देख एक ही बात स्मरण होती है, चमड़ी जाए पर दमड़ी ना जाए, और कबीर खान उन्ही में से एक है। अपनी हठधर्मिता के कारण वे पहले ही 83 जैसी फिल्म को 150 करोड़ रुपए से अधिक का नुकसान करा चुके हैं, पर मजाल है कि वे यथार्थ को स्वीकारें। हाल ही में एक न्यूज नेटवर्क से बातचीत के दौरान ये स्पष्ट झलक रहा था कि कबीर खान को इस बात से तनिक भी अंतर नहीं पड़ता कि उनकी फिल्म ’83’ को 150 करोड़ से अधिक का नुकसान हुआ। उनके अनुसार जो भी ऐसा कह रहे हैं, उन्हें वास्तविकता का कोई ज्ञान नही है।

IANS को दिए साक्षात्कार के अनुसार, कबीर खान का मानना है कि जो भी ट्रेंड विश्लेषक ये कह रहे हैं कि 83 को भयंकर नुकसान हुआ है, वे आंखें मूंदकर बैठे हैं। उनके अनुसार, “उन्हें महामारी के बारे में कुछ सोचना चाहिए। हमें नहीं आभास था कि कोरोना का असर ऐसा पड़ेगा, वरना जनता के प्यार में कोई कमी नहीं थी। जो भी बिना सोचे समझे कुछ भी नंबर छाप रहे हैं, वो प्रोफेशनल नहीं है”

इसी को कहते हैं, उल्टा चोर कोतवाल को डांटे। यदि महामारी एक कारण होता, तो ‘Pushpa ‘ और ‘Spiderman ‘ कैसे बॉक्स ऑफिस से नोटों की गड्डियां निकलवा रहे होते?

लेकिन 83 सुपरहिट तो छोड़िए, अपने मूल बजट का आधा मूल्य भी नहीं बचा पाई। हाल ही में 83 के दो हफ्तों का विश्लेषण सामने आया है, और यह काफी निराशाजनक है। लगभग 270 करोड़ के बजट पर तैयार इस फिल्म को कम से कम थियेटर बिजनेस से 290 करोड़ कमाने चाहिए थे, ताकि वह Breakeven पॉइंट यानि नो प्रॉफ़िट नो लॉस की स्थिति में होती।

परंतु अब तक 83 ने कुल 168 करोड़ ही कमाए हैं, जिसमें से लगभग 60 करोड़ विदेशी कलेक्शन से आए हैं। यानि भारत से इन्हे कुल 110 करोड़ ही प्राप्त हुए, जो निस्संदेह 150 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान हैl

परंतु ऐसा क्यों हुआ? 83 तो एक बहुप्रतीक्षित फिल्म थी, जिसके प्रोमोशन में कोई कसर नहीं छोड़ी गई। कोविड के कारण अधिक विलंब के बावजूद इस फिल्म के लिए कई लोग प्रतीक्षारत थे, क्योंकि इस फिल्म से अनेक लोगों की भावनाएँ जुड़ी थी।

इसके अनेक कारण हो सकते हैं, लेकिन दो प्रमुख कारण थे – फर्जी एजेंडावाद और जनता से जुड़ाव ना होना। इन दोनों ही क्षेत्रों में  ‘Pushpa’ और ‘Spiderman’ ने ना केवल बाजी मारी, अपितु कोरोना के ओमिक्रोन के डर को भी नष्ट किया। तो समस्या महामारी में नहीं, आप के विचारों में है कबीर मियां।

जैसा हमने पूर्व के एक लेख में कहा था, 83 का ध्यान लगभग ‘South Delhi / South Bombay’ में सिनेमा जाने वाले युवाओं तक केंद्रित थी, यानि मेट्रो शहरों तक। परंतु यह लोग सम्पूर्ण भारत नहीं है, और यह बात कभी कबीर खान को समझ में नहीं आयेगी।

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‘बाहुबली’ क्यों सफल हुई? ‘KGF’ क्यों सफल हुई? या ‘Pushpa’ क्यों अभी तक चल रही है? इसलिए क्योंकि इनसे मेट्रो का विकी हो या गाँव का चुन्नू, सभी नाता जोड़ सकते हैं। कुछ नहीं तो कम से कम Bollywood ‘शेरशाह’ या ‘सूर्यवंशी’ से ही कुछ सीख ले लेते। परंतु नहीं, एजेंडा सर्वोपरि, चाहे Bollywood ही भस्म हो जाए।

कबीर खान वो व्यक्ति हैं, जो यदि डूब भी रहे हों, तो भी वे स्वीकारने को तैयार नहीं होंगे कि वे डूब रहे हैं। 2017 से ही वे जिस भी वस्तु से संबंधित रहे हैं, वो औंधे मुंह गिरी है, लेकिन इन्होंने अपना एजेंडावाद नहीं छोड़ा। चाहे ‘ट्यूबलाइट’ हो, ‘द फॉरगोटेन आर्मी’ हो, या फिर अब ’83’, हर जगह कबीर खान ने कथा और मनोरंजन से अधिक अपने एजेंडा को सर्वोपरि रखा, और परिणाम सबके समक्ष हैं।

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