मिथुन चक्रवर्ती – बॉलीवुड का वो सितारा, जिसे ‘बाहरी’ होने के कारण कभी चमकने नहीं दिया गया

अपने शिखर पर होने के बावजूद मुश्किल से मिलते थे फिल्मफेयर अवार्ड्स!

मिथुन चक्रवर्ती

“हारे हुए लोग देश की तकदीर नहीं बदलते”, ये संवाद द ताशकंद फाइल्स में जिस व्यक्ति ने व्यक्त किया, वह आज भी भारतीय सिनेमा की जीवटता का प्रतीक है, जिसका एक संदेश स्पष्ट है – यदि आप अपने सपनों को लेकर दृढ़ निश्चय कर लें तो कोई भी शक्ति आपको आपके स्वप्नों को प्राप्त करने से नहीं रोक सकती। ये कथा है मिथुन चक्रवर्ती की, जिन्हे स्टार बनने से रोकने के लिए लोगों ने अनेक प्रयास किए, परंतु उनकी प्रतिभा और उनकी जिजीविषा ने उन्हे एक सदाबहार सुपरस्टार बना दिया।

अजय देवगन, इरफान खान, मिथुन चक्रवर्ती इत्यादि में समान बात बताइए। ये ऐसे लोग हैं जिन्हें बॉलीवुड का हिस्सा होते हुए भी उन्हें अनदेखा करने का प्रयास किया गया, लेकिन अपने प्रतिभा के दम पर इन्होंने इंडस्ट्री के एलीट वर्ग और उनकी गुटबाजी को ठेंगा दिखाते हुए अपनी अलग जगह बनाई।

मिथुन चक्रवर्ती ने प्रारंभ से ही कई संकट झेले, और ये जुझारूपन उनकी फिल्मों में भी स्पष्ट दिखा। जो अपने प्रथम फिल्म Mrigaya से ही नेशनल अवार्ड प्राप्त करे, तो उनकी प्रतिभा पर आप संदेह नहीं कर सकते।

लेकिन यहीं से मिथुन चक्रवर्ती का प्रादुर्भाव हुआ। छोटी-मोटी फिल्मों से उन्होंने धीरे-धीरे अपनी पहचान बनानी प्रारंभ की, लेकिन फिर आया वर्ष 1982, जब मिथुन ने की फिल्म Disco Dancer। इस एक फिल्म ने मानो भारतीय संगीत और बॉलीवुड का कायाकल्प कर दिया और मिथुन चक्रवर्ती रातों-रात सुपरस्टार बन गए। राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन को टक्कर देने एक नया सितारा मंच पर आ चुका था।

Disco Dancer के पश्चात तो मिथुन चक्रवर्ती ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। डांस डांस, कसम पैदा करने वाले की, गुलामी जैसी फिल्मों के जरिए उन्होंने जनता के हृदय में अपने लिए एक बेजोड़ स्थान बना लिया था। उनके लिए कोई भी रोल असंभव नहीं था। जितनी सरलता से वे एक मसाला मूवी में कार्य कर सकते थे, उतनी ही सरलता से वे एक गंभीर फिल्म में भी भूमिका निभा सकते थे। मिथुन चक्रवर्ती को वास्तविक मायनों में हम हर शैली में निपुण अभिनेता मान सकते हैं, जिसमें बाद में इरफान ख़ान, अजय देवगन जैसे अभिनेताओं ने अपने लिए एक अलग नाम कमाया।

लेकिन यहीं से मिथुन को बॉलीवुड में गुटबाजी का प्रथम अनुभव हुआ। ये वो समय था जब बॉलीवुड में अनेक गुट थे, लेकिन इनमें प्रमुख थे – चोपड़ा दल, जिसके अगुआ थे यश चोपड़ा, जौहर दल, जिसके अगुआ थे यश जौहर और सबसे बड़ा दल था मनमोहन देसाई का, जिनके बिना मसाला फिल्म उद्योग की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। रोचक बात तो यह थी कि इन सब में एक बात समान थी- इन सभी के प्रिय सितारे या तो राजेश खन्ना थे या अमिताभ बच्चन।

इन सबने मिथुन चक्रवर्ती के बढ़ते प्रभाव को अपने लिए खतरा समझ लिया, और इन्हे बहिष्कृत करने का प्रयास किया, और बड़ी बजट फिल्में इनकी पहुंच से दूर रही। आखिर एक ‘बाहरी ‘ उनके गढ़ को कैसे ध्वस्त कर सकता था? शायद इसीलिए अपने शिखर पर होने के बावजूद मिथुन दा को 1980 के दशक में बड़ी मुश्किल से फिल्मफेयर अवार्ड्स प्राप्त हुए, और 1986 एवं 1987 में एक के बाद एक सफलतम फिल्म देने के बाद भी उन्हें नामांकित तक नहीं किया गया।

परंतु जिसे जनता का बेहिसाब प्यार मिल रहा हो, वो चांद सेठों की हेकड़ी के सामने क्यों झुकेगा? 90 का दशक आते-आते आधे से अधिक दल हाशिए पर आ चुके थे, और स्वयं यश जौहर को अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए मिथुन चक्रवर्ती का सहारा लेना पड़ा। यदि अग्निपथ में कृष्णन अय्यर का किरदार न होता, तो सोचिए, केवल अमिताभ बच्चन के दम पर फिल्म चल सकती थी क्या?

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लेकिन समय सबका एक समान नहीं रहता, और मिथुन चक्रवर्ती भी यह जानते थे। इसीलिए उन्होंने एक के बाद एक ऐसी फिल्में करनी शुरू की, जो प्रारंभ में अजीबो-गरीब लगे, परंतु इससे निवेशकों को बेहिसाब लाभ मिलता था। यूं ही हमें शपथ, फूल और अंगारे, जैसी फिल्में नहीं मिली। बीच में उन्हें ‘स्वामी विवेकानंद’ में स्वामी रामकृष्ण परमहंस की भूमिका निभाने के लिए तीसरा राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।

असल में मिथुन चक्रवर्ती इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण कि यदि आप स्वप्न देख सकते हैं, तो आप उसे प्राप्त भी कर सकते हैं। चाहे जितनी भी बाधाएं आएं, परंतु अंत में विजय आपकी ही होगी।

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