दोहों के अंदर समस्त जीवन जीने का संदेश छिपा होता है। यह जीवन को आगे बढ़ाने का एवं सफलता पाने का अचूक मंत्र होता है. हिंदी में अनेक कवियों ने अपने दोहों के माध्यम से लोगों को काफी सीख दी है।जिससे लोग सफलता के पथ पर भी अग्रसर हुए हैं. कई बार हम अपने अहं भाव की वजह से कई चीजों को निष्पक्ष रुप से नहीं देख पाते हैं जो हमारे इन महान कवियों एवं समाज सुधारकों ने देखा हैं. इस लेख में हिन्दी साहित्य के तीन महान कवि कबीरदास जी, रहीम दास जी और तुलसीदास जी के नीति के दोहे से संबंधित व्याख्या दी गई है.
कबीर दास जी के नीति के दोहे अर्थ समेत
कबीर दास जी के नीति के दोहे नंबर 1-
प्रेम न बाड़ीऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय।
राजा परजाजेहिरूचै, सीस देइ ले जाय।।
दोहे का अर्थ: इस दोहे में कवि कहते हैं कि प्रेम खेत में नहीं पैदा होता है और न ही प्रेम बाज़ार में बिकता है। चाहे कोई राजा हो या फिर कोई साधारण आदमी सभी को प्यार आत्म बलिदान से ही मिलता है, क्योंकि त्याग और बलिदान के बिना प्रेम को नहीं पाया जा सकता है। प्रेम गहन- सघन भावना है – खरीदी बेचे जाने वाली वस्तु नहीं है।
कबीर दास जी के नीति के दोहे नंबर 2 –
जिन ढूंढा तिनपाईयां, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुराबूडन डरा, रहा किनारे बैठ।।
दोहे का अर्थ: इस दोहे में कवि कबीरदास जी कहते हैं कि जो लोग प्रयत्न करते हैं, वे कुछ न कुछ वैसे ही पा ही लेते हैं जैसे कोई मेहनत करने वाला गोताखोर गहरे पानी में जाता है और कुछ लेकर आता है। लेकिन कुछ बेचारे लोग ऐसे भी होते हैं जो डूबने के भय से किनारे पर ही बैठे रह जाते हैं और कुछ नहीं पा पाते।
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कबीर दास जी के नीति के दोहे नंबर 3 –
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलियाकोय।
जो मन खोजा अपना, मुझ-सा बुरा न कोय।।
दोहे का अर्थ: इस दोहे में कवि कहते हैं कि जब मैं इस संसार में बुराई खोजने चला तो मुझे कोई बुरा न मिला। जब मैंने अपने मन में झांक कर देखा तो पाया कि मुझसे बुरा कोई नहीं है।
कबीर दास जी के नीति के दोहे नंबर 4 –
बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलैजानि।
हिये तराजू तौलि के, तब मुख बाहर आनि।।
दोहे का अर्थ: इस दोहे में हिन्दी साहित्य के महान कवि कबीरदास जी कहते हैं कि अगर कोई सही तरीके से बोलना जानता है तो उसे पता है कि वाणी एक अमूल्य रत्न है। इसलिए वह ह्रदय के तराजू में तोलकर ही उसे मुंह से बाहर आने देता है।
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रहीम दास जी के नीति के दोहे
रहीम दास जी के नीति के दोहे नंबर 1-
तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहिं न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति संचहिं सुजान।
दोहे का अर्थ: इस दोहे में कवि रहीम दास जी कहते हैं कि वृक्ष अपने फल खुद नहीं खाते हैं और तालाब भी अपना पानी खुद नहीं पीता है। इसी तरह अच्छे और सज्जन व्यक्ति वो हैं जो दूसरों के काम के लिए अपनी संपत्ति को संचित करते हैं।
रहीम दास जी के नीति के दोहे नंबर 2-
रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय।
सुनि इटलैहैं लोग सब, बाँट न लैहैं कोय।
दोहे का अर्थ: इस दोहे में कवि रहीमदास जी कहते हैं कि हमें अपने मन के दुःख को मन के अंदर ही छिपा कर ही रखना चाहिए क्योंकि दूसरे का दुःख सुनकर लोग इठला भले ही लें, उसे बांट कर कम करने वाला कोई नहीं होता।
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रहीम दास जी के नीति के दोहे नंबर 3–
बड़े बड़ाई ना करैं, बड़ो न बोले बोल।
‘रहिमन’ हीरा कब कहै, लाख टका मम मोल॥
दोहे का अर्थ: इस दोहे में कवि कबीरदास जी कह रहे हैं कि जो लोग सचमुच में बड़े होते हैं, वे अपनी बड़ाई नहीं किया करते, बड़े-बड़े बोल नहीं बोला करते। हीरा कब कहता है कि मेरा मोल लाख टके का है।
रहीम दास जी के नीति के दोहे नंबर 4 –
“जे गरीब पर हित करैं, हे रहीम बड़ लोग।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग।”
दोहे का अर्थ: जो लोग गरीब का हित करते हैं वो बड़े लोग होते हैं। जैसे सुदामा कहते हैं कृष्ण की दोस्ती भी एक साधना हैं।
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तुलसीदास जी
तुलसीदास जी के नीति के दोहे नंबर 1-
मुखिया मुख सौं चाहिए, खान-पान को एक।
पालै पोसै सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।
दोहे का अर्थ: इस दोहे में तुलसीदास जी कहते हैं कि मुखिया मुख के समान होना चाहिए जो खाने-पीने को तो अकेला है, लेकिन विवेकपूर्वक सब अंगों का पालन-पोषण करता है।
तुलसीदास जी का नीति का दोहा नंबर 2 –
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार ।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर ।।
दोहे का अर्थ: तुलसीदासजी कहते हैं कि हे मनुष्य ,यदि तुम भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहते हो तो मुखरूपी द्वार की जीभरुपी देहलीज़ पर राम-नामरूपी मणिदीप को रखो ।
तुलसीदास जी का नीति का दोहा नंबर 3 –
नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु ।
जो सिमरत भयो भाँग ते तुलसी तुलसीदास ।।
दोहे का अर्थ: राम का नाम कल्पतरु (मनचाहा पदार्थ देनेवाला )और कल्याण का निवास (मुक्ति का घर ) है, जिसको स्मरण करने से भाँग सा (निकृष्ट) तुलसीदास भी तुलसी के समान पवित्र हो गया ।
तुलसीदास जी का नीति का दोहा नंबर 4 –
तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर ।
सुंदर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि ।।
दोहे का अर्थ: गोस्वामीजी कहते हैं कि सुंदर वेष देखकर न केवल मूर्ख अपितु चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं ।सुंदर मोर को ही देख लो उसका वचन तो अमृत के समान है लेकिन आहार साँप का है.
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