- वर्ष 2017 में पूर्वांचल के 156 में से 106 सीटों पर भाजपा ने जमाया था कब्जा
- पूर्वांचल में राजभर और नोनिया समुदाय पर टिकी सभी की नजरें
- पूर्वांचल में होगी सपा, बसपा और भाजपा के अस्तित्व की लड़ाई
वर्ष 2022 के उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले पूर्वांचल विधानसभा सीटों के लिए लड़ाई तेज हो गई है। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी इस क्षेत्र में बहुमत हासिल करने के लिए जी जान से जुटी हुई है, तो वहीं समाजवादी पार्टी, भाजपा और बहुजन समाज पार्टी के मौजूदा विधायकों सहित अन्य नेताओं को अपने पाले में मिलाने की कोशिश में लगी है। दिलचस्प बात यह है कि लखनऊ में कुछ प्रमुख ब्राह्मण नेता भी समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए हैं। पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव की उपस्थिति में सपा में जाने वाले नेताओं में हरिशंकर तिवारी के दोनों बेटे शामिल हैं। गोरखपुर की चिल्लूपार विधानसभा सीट से बसपा विधायक विनय शंकर तिवारी और संत कबीर नगर से पूर्व सांसद कुशाल तिवारी ने सपा कार्यालय में पार्टी की सदस्यता ले ली।
सपा में शामिल होने के बाद मीडिया से बात करते हुए, चिल्लूपार विधायक विनय शंकर तिवारी ने कहा, “भाजपा सरकार ने केवल राज्य में शासन करने के लिए सरकार बनाई है। अगर कोई सरकार के खिलाफ बोलता है, तो उसे जेल भेज दिया जाता है। पूरे राज्य में आपसी भाईचारा खत्म हो गया है। थानों, पुलिस चौकियों और अन्य भर्तियों में एक खास जाति के लोगों को ही भर्ती किया जा रहा है। ब्राह्मण समाज के लोगों पर बहुत अत्याचार हुए हैं।”
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पूर्वांचल पर ध्यान केंद्रित कर रही है भाजपा
वहीं, दूसरी ओर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अधिकतम रैलियों और क्षेत्र के लिए कई विकास परियोजनाओं के साथ भाजपा पूर्वांचल विधानसभा सीट पर ध्यान केंद्रित कर रही है। इसी बीच समाजवादी पार्टी ने मुख्तार अंसारी और हरिशंकर तिवारी के परिवारों सहित क्षेत्र से कुछ बड़े राजनीतिक नामों को सफलतापूर्वक पार्टी में मिला लिया है। सपा ने ओम प्रकाश राजभर के नेतृत्व वाली सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी सहित छोटे दलों के साथ भी गठबंधन किया है, जिसके बारे में कहा जाता है कि पूर्वांचल क्षेत्र के कई जिलों में उनकी अच्छी पकड़ है ।
खबरों की मानें तो भाजपा के कम से कम 9 मौजूदा विधायक सपा के शीर्ष नेतृत्व के संपर्क में है और जल्द ही समाजवादी पार्टी में शामिल हो सकते हैं। वहीं, सपा-बसपा के कई चर्चित चेहरे भी भाजपा कार्यालय के पंक्ति में लगने के लिए बेताब हैं। करनैलगंज से बसपा प्रत्याशी संतोष तिवारी और विधान परिषद के पूर्व अध्यक्ष गणेश शंकर पांडे ने सपा का दामन थाम लिया है। हालांकि, सबसे चर्चित नाम खलीलाबाद से भाजपा विधायक दिग्विजय नारायण उर्फ जय चौबे का था, जो अब सपा में शामिल हो गए हैं। पूर्वांचल में जय चौबे के स्विचओवर को भाजपा के लिए बड़े झटके के रूप में देखा जा रहा है। कुशीनगर से भाजपा सांसद के भतीजे भी सपा में शामिल हो सकते हैं।
पूर्वांचल की राजनीति
अब सवाल ये उठता है की आखिरकार पूर्वांचल का इलाका इतना महत्वपूर्ण और राजनीतिक दृष्टि से इतना जटिल क्यों है? कहा जाता है कि पूर्वांचल उत्तर प्रदेश की सत्ता की चाबी है। उत्तर प्रदेश की गद्दी का रास्ता यही से होकर गुजरता है, शायद इसीलिए पीएम मोदी ने विगत 8 महीनों में 6 बार पूर्वांचल का दौरा कर लिया और कई विकास परियोजनाओं का अनावरण भी किया। इसीलिए क्षेत्रीय नेता अपनी गणितीय गणना के आधार पर पार्टी बदल रहे हैं, ताकि उन्हें भी सत्ता का थोड़ा सा स्वाद मिल जाए! वर्ष 2017 में पूर्वांचल के 26 जिलों के 156 विधानसभा सीटों में से भाजपा ने106 सीटों पर जीत हासिल की थी। वर्ष 2012 में सपा को 85 सीटें और वर्ष 2007 में बसपा को 70 से अधिक सीटें सिर्फ पूर्वांचल से मिली थी। इन आंकड़ों को देखकर आप समझ सकते है कि जो पूर्वांचल जीता, वही यूपी का सिकंदर बनेगा।
पूर्वांचल की जटिलता को आप इस तरह से भी समझ सकते हैं कि इस क्षेत्र में 17 अति पिछड़े समुदाय के लोग हैं, जिनमें सैथवार, बिंद, गडरिया, निषाद, प्रजापति, तेली, साहू, हाहर, कश्यप, कच्छि, कुशवाहा, राजभर, नाई, बढई, पंचाल, ढिमन, लोनिया, नोनिया, गोला ठाकुर, लोनिया चौहान, मुराव, फकीर, लोहार, कोइरी, माली, सैनी, भरभुज और तूराहा शामिल हैं। इन सभी पिछड़ी जातियों के अपने-अपने प्रभावशाली नेता हैं, जो इनके मतो के वितरण को स्पष्ट रूप से प्रभावित करते हैं। वैसे तो उत्तर प्रदेश में पिछड़ा वर्ग प्रभावशाली है, पर जब बात पूर्वांचल की आती है, तब अति पिछड़ा वर्ग उससे ज्यादा मत प्रतिशत रखता है।
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राजभर और नोनिया समुदाय पर टिकी निगाहें
गौरतलब है कि भाजपा के पूर्व सहयोगी सुहेलदेव का राजभर समुदाय के बीच काफी समर्थन प्राप्त है। पर, उन्होंने आगामी विधानसभा चुनावों के लिए सपा के साथ हाथ मिलाया है। यद्यपि ‘राजभर’ समुदाय, कुल मतदाताओं का केवल चार प्रतिशत है, पर खासकर ‘पूर्वांचल’ क्षेत्र के कई जिलों में विशेष रूप से वाराणसी, आजमगढ़, जौनपुर, मऊ, बलिया और गाजीपुर में राजभर 12 से 23 प्रतिशत हैं। इसी तरह, जनवादी पार्टी (सोशलिस्ट), जिसका ‘नोनिया’ समुदाय पर काफी प्रभाव है, इस क्षेत्र की लगभग एक दर्जन सीटों पर प्रभाव रखती है। इस पार्टी ने भी इस बार सपा के साथ गठबंधन किया है।
राजनीतिक विशेषज्ञों का मानना है कि अगर सपा ‘राजभर’ और नोनिया समुदायों के वोटों को अपनी झोली में लाने में कामयाब हो जाती है, तो अपने मूल मतदाताओं-यादवों और मुसलमानों के समर्थन के साथ-साथ वह भगवा पार्टी की मुश्किलें बढ़ा सकती है। पूर्वांचल क्षेत्र से राज्य विधानसभा में एक तिहाई से अधिक विधायक चुन कर जाते हैं। दिलचस्प बात यह है कि वर्ष 2017 के विधानसभा चुनावों में भी, इस क्षेत्र में भाजपा को बहुमत मिला था। साथ ही साथ जौनपुर की नौ में से चार सीटें, गाजीपुर की सात में से तीन, अंबेडकर नगर की पांच में से दो सीटों पर भाजपा को जीत मिली थी। वहीं, पिछले साल के पंचायत चुनाव में सपा ने आजमगढ़, बलिया, संत कबीर नगर और कुछ अन्य जिलों में भाजपा उम्मीदवारों को हराया था।
पूर्वांचल में अस्तित्व की लड़ाई
बताते चलें कि वर्ष 1980 और 1990 के दशक के अंत में पूर्वांचल में बसपा का मजबूत जनाआधार था और वर्ष 2014 में मोदी लहर के लिए सबसे बड़ी चुनौती थी। पार्टी को इस क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन करने की उम्मीद है, जो मायावती की हालिया रैलियों के दौरान उनके जुझारूपन को दर्शाता है। मायावती के लिए जो महत्वपूर्ण है, वह है मुसलमानों, गैर-जाटव दलितों, विशेष रूप से पासी, खटीक और क्षेत्र की अन्य छोटी उप-जातियों का समर्थन प्राप्त करना, जो राजनीतिक रूप से सतर्क और जागरूक हैं। वर्ष 2016 में दलित विरोधी घटनाओं की संख्या में बढ़ोत्तरी और गुजरात में गौरक्षक समूहों द्वारा दलितों की सार्वजनिक पिटाई मायावती के पीछे दलितों को मजबूत करती है। लेकिन यह देखा जाना बाकी है कि क्या यह मतदान और सीटों में तब्दील हो जाता पाएगा?
पूर्वांचल में यूपी अभियान का शेष हिस्सा स्पष्ट रूप से तीन प्रमुख खिलाड़ियों के बीच अस्तित्व की लड़ाई के समान है। हर राजनीतिक दल और उसके नेताओं के लिए बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। दलित नेता के रूप में बसपा और मायावती के अस्तित्व के साथ साथ राहुल और अखिलेश की विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा भी दांव पर है। एक प्रमुख हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी के रूप में भाजपा का भविष्य, योगी और उनके नेता नरेंद्र मोदी के लिए भी यह एक कठिन परीक्षा है। उत्तर प्रदेश हमेशा भारतीय चुनावी राजनीति में एक महत्वपूर्ण राज्य रहा है, लेकिन इस समय जो कुछ दांव पर लगा है, वह यह है कि हम देश में किस तरह की राजनीति और समाज स्थापित करना चाहते हैं। देखते रहिए, पूर्वांचल का ऊंट किस ओर करवट लेता है।
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