ULFA पहली बार असम में गणतंत्र दिवस समारोह के दिन कोई खतरा पैदा नहीं करेगा

हिमंता बिस्वा सरमा की कार्रवाई का दिख रहा असर!

Himanta

Source- TFIPOST

गोस्वामी तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ में एक बात तो बहुत ही उचित लिखी गई है, ‘भय बिनु होइ न प्रीति’। मौजूदा समय में यह पंक्तियां असम के लिए बिल्कुल सटीक बैठती है। इस गणतंत्र दिवस पर पहली बार असम स्वतंत्र रूप से गणतंत्र दिवस मनाने जा रहा है। दशकों से पूर्वोत्तर भारत में, विशेष रूप से असम में गणतंत्र दिवस घर पर बैठकर मनाया जाता था, क्योंकि लोग अपने घरों से बाहर कदम रखने से डरते थे। बाहर निकलने पर उनकी जान को खतरा होता था, लेकिन जब से भाजपा सत्ता में आई है, उसने असम में समीकरण बदल दिए हैं। भाजपा ने उल्फा जैसे संगठनों पर ध्यान देना शुरू कर दिया है और उनपर लगाम लगाना आरंभ कर दिया हैं।

हिमंता ने ट्वीट कर कही ये बात

दरअसल, यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम उर्फ ULFA इंडिपेंडेंट ने गणतंत्र दिवस 2022 पर बंद नहीं बुलाने का फैसला किया है। संगठन ने 26 जनवरी को कोई सशस्त्र विरोध प्रदर्शन नहीं करने का भी फैसला किया है। यह खबर तब सामने आ रही है, जब असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने संगठन के सभी गुटों से बंद बुलाने की घोषणा नहीं करने और कोई बहिष्कार का आह्वान नहीं करने की अपील की थी। रविवार को ट्वीट करते हुए असम के मुख्यमंत्री ने इसकी जानकारी दी और संगठन से भारत सरकार के साथ सार्थक चर्चा के लिए आगे आने का अनुरोध भी किया है।

हिमंता बिस्वा सरमा ने ट्वीट किया, “मैं उल्फा के गणतंत्र दिवस के दौरान बंद का आह्वान नहीं करने और किसी भी प्रतिरोध से दूर रहने के फैसले का स्वागत करता हूं। मैं इस अवसर पर एक बार फिर श्री परेश बरुआ से भारत सरकार के साथ सार्थक चर्चा के लिए आगे आने की अपील करता हूं।”

इससे पहले पिछले वर्ष उल्फा-I ने 15 अगस्त को भी भारत बंद नहीं बुलाया था। आपको बताते चलें कि संगठन ने 15 मई, 2021 से युद्धविराम की घोषणा की है, जिसे नियमित अंतराल पर नवीनीकृत किया जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि भारतीय अधिकारियों ने भी उल्फा-I के खिलाफ पिछले कुछ समय से कोई भी कार्रवाई नहीं की है।

यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम या उल्फा-इंडिपेंडेंट (ULFA-I) ने घोषणा की है कि संगठन गणतंत्र दिवस 2022 पर कोई भी बंदी या बहिष्कार नहीं बुलाएगा। इतना ही नहीं, संगठन ने यह भी कहा है कि वे 26 जनवरी को सशस्त्र विरोध प्रदर्शन में शामिल भी नहीं होंगे। ULFA-I के कमांडर-इन-चीफ परेश बरुआ द्वारा एक विज्ञप्ति के माध्यम से इसकी जानकारी दी गई है। बरुआ ने कहा कि राज्य में मौजूदा कोविड महामारी परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया गया है।

और पढ़ें: PM मोदी के ‘डिजिटल इंडिया मिशन’ ने बढ़ाया एक और कदम सफलता की ओर

कोविड तो सिर्फ बहाना है!

कोविड को सिर्फ एक बहाना है, क्योंकि अगर ऐसा होता तो 2021 के गणतंत्र दिवस पर भी कोरोना था, लेकिन बंद नहीं बुलाया गया था। यह तो बर्बादी से बचने का तरीका है। असम सरकार इस समय पूरे फॉर्म में उल्फा उग्रवादियों से निपट रही है, ऐसे में सरकार से पंगा लेना किसी शेर के मुंह में हाथ डालने के समान है।

ध्यान देने वाली बात है कि 1979 में एक संप्रभु असम बनाने के उद्देश्य से गठित, यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असोम (उल्फा) असम में सबसे बड़ा उग्रवादी संगठन है, जो कि सशस्त्र संघर्ष के साथ अपने स्वदेशी लोगों के लिए एक स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की मांग कर रहा है। तब से यह संगठन अपने आतंक, अपहरण और हत्या के दम पर लोगों के बीच में डर फैला रहा है।

कांग्रेस शासन के दौरान राज्य में राज्य में अराजकता फैलाने वाले उल्फा के दिन तब लद गए, जब हिमंता बिस्वा सरमा सत्ता में आये। असम के मुख्यमंत्री के रूप में अपनी पहली मीडिया ब्रीफिंग में, हिमंता बिस्वा सरमा ने विद्रोही समूह यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (ULFA) के स्वयंभू “कमांडर-इन-चीफ” परेश बरुआ से शांति के लिए आगे आने के लिए अपील की। कई दशकों से असम ULFA के आतंक से आतंकित रहा था, पर उस समय लगा कि मुख्यमंत्री हिमंता के पास उनके लिए विशेष प्लान है। सरमा ने कहा, “उल्फा के साथ बातचीत Two way Street है। परेश बरुआ को आगे आना होगा। इसी तरह भी हमें उनके पास जाना होगा। यदि दोनों पक्षों में इच्छाशक्ति है तो बातचीत मुश्किल नहीं होगी।“

सरकार के रवैये से डरा है उल्फा

सरकार और इस संगठन के बीच बातचीत को लेकर पहले तो आनाकानी हुई। उल्फा अपने शर्तो से हटकर बातचीत को तैयार नहीं था। अब आप यह सोच रहे होंगे कि कैसी शर्त? तो आपको बताते चलें कि वर्ष 2003 में, उल्फा ने भारत सरकार के साथ बातचीत और बातचीत के लिए तीन शर्तें रखी थी। उस समय की भाजपा सरकार ने इन शर्तों को तुरन्त खारिज कर दिया था। शर्तें यह  थी कि-

जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने इन शर्तों को रदद् कर दिया और इस संगठन पर कार्रवाई की तैयारी में थी, तब वर्ष 2004 में, उल्फा ने पहली दो शर्तें हटा दी और सरकार से बात करने की पेशकश की। भारत सरकार स्वतंत्रता के मुद्दे पर बातचीत के लिए तैयार नहीं थी। मौजूदा समय में भी वहीं प्लान चल रहा है। दोनों पक्षों की ओर से लगातार बातचीत की अपील की जा रही है। हिमंता बिस्वा सरमा भी कई बार इस बात को दोहरा चुके हैं।

जब बातचीत में देरी हुई तो हाल ही में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा, “अपराधी यदि भागने की कोशिश करता है, तो उसे पकड़ने के लिए एनकाउंटर किया जाए। यदि क्रिमिनल पुलिस के हथियारों तक को छीनता है, तो उसका एनकाउंटर करना सही पैटर्न माना जाएगा।” 

सरकार के ऐसे रवैये से उल्फा भी डरा है। बता दें कि वर्ष 2009 और 2018 के बीच, ULFA के पूरे नेतृत्व को पकड़ लिया गया या सरकार के सामने आत्मसमर्पण करा दिया गया, ULFA बटालियनों को भंग कर दिया गया। आज केवल एक बटालियन सक्रिय है, जिसको 27वीं बटालियन या फिर कपिली गुट कहा जाता है। वर्तमान में, परेश बरुआ के अलावा उल्फा के पास कोई कमांडर नहीं है।

हिमंता के खौफ का दिख रहा असर

ध्यान देने वाली बात है, जब उल्फा को यह समझ आया कि सरकार उनपर ध्यान ही नहीं दे रही है, तो उनके पास दो ही रास्ता बचा या तो वे पूरी ताकत से विरोध करो (जो की हो नहीं सकता है), या फिर चुपचाप सरेंडर करें। ये कदम काम तो इतना आया कि उल्फा-आई के पूर्व नेता अनूप चेतिया ने भाजपा सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि जनवरी 2020 से भारत सरकार उल्फा के साथ चर्चा में नहीं बैठी है। इसके अलावा, चेतिया ने इस घटना को शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण घटना करार दिया। नॉर्थ ईस्ट इंडिजिनस पीपुल्स फोरम द्वारा आयोजित एक प्रेस मीट में, पूर्व उल्फा आतंकवादी ने कहा, “यह शर्मनाक और दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारत सरकार आगे चर्चा करने के लिए उल्फा-आई के साथ नहीं बैठी।”

बताते चलें कि भाजपा शासन में फर्क नही पड़ता कि कौन है और क्या कर रहा है, अगर किसी ने अराजकता फैलाने की कोशिश की या देश की संप्रभुता के लिए खतरा बना, फिर कार्रवाई तो होनी ही है। वर्ष 2020 में भी असम में गणतंत्र दिवस के दिन उल्फा के बहिष्कार और दो कम तीव्रता के विस्फोटों के बावजूद राज्य गणतंत्र दिवस हर्षोल्लास के साथ मनाया गया था, इस साल भी सब बेहतर तरीके से ही होगा, क्योंकि उल्फा पर लगाम लगना शुरु हो गया है। ध्यान देने वाली बात है कि यह सब कोरोना नहीं, हिमंता बिस्वा शर्मा के खौफ से हो रहा है।

और पढ़ें: हिंदुत्व के गौरव थे बाला साहेब ठाकरे, लेकिन उद्धव ने उनकी विरासत का ‘कांग्रेसीकरण’ कर दिया!

Exit mobile version