The Tashkent Declaration: एक ऐसा समझौता जो आज भी भारत को ऐतिहासिक और राजनीतिक रूप से परेशान करता है

कुछ घाव समय के साथ भी नहीं भरते!

Tashkent Declaration

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10 जनवरी 1966, भारत और पाकिस्तान के इतिहास का एक महत्वपूर्ण दिन है, क्योंकि इसी दिन ताशकंद में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति फील्ड मार्शल मोहम्मद अयूब खान ने 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद हुए शांति समझौते पर हस्ताक्षर किया था। ताशकंद समझौते को भारत की कूटनीतिक हार माना जाता है, क्योंकि अपनी सैन्य शक्ति के बल पर मिली विजय को भारत ने कूटनीतिक मंच पर स्वयं ही पराजय के रूप में बदल दिया था। यहां तक कि उस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले तत्कालीन लाल बहादुर शास्त्री की धर्मपत्नी ललिता शास्त्री भी समझौते की शर्तों को सुनकर अपने पति से नाराज हो गई थी। इस समझौते के अगले दिन 11 जनवरी 1966 को लाल बहादुर शास्त्री की रहस्यमयी परिस्थितियों में मृत्यु हो गई थी। इस आर्टिकल में हम विस्तार से जानेंगे कि आखिर 1965 के युद्ध के बाद हुए समझौते में भारत ने क्या गंवाया और कैसे यह जख्म आज भी भारत को परेशान करता है।

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1965 युद्ध : पाकिस्तान के दंभ का परिणाम

वर्ष 1962 में चीन के हाथों मिली पराजय के बाद भारतीय सेना का मनोबल गिर चुका था। भारतीय सेना परिवर्तन के दौर से गुजर रही थी, जबकि पाकिस्तान दक्षिण एशिया में अमेरिका का सबसे विश्वसनीय सहयोगी बन चुका था और बगदाद पैक्ट का हिस्सा था। बगदाद पैक्ट के कारण पाकिस्तान को अत्याधुनिक अमेरिकी हथियार, लड़ाकू विमान, टैंक आदि मिल चुके थे और पाकिस्तान को उसी बल पर अपनी विजय सुनिश्चित दिख रही थी।

दरअसल, वर्ष 1965 में कश्मीर में अस्थिरता बढ़ रही थी और पाकिस्तान ने इसका फायदा उठाने के उद्देश्य से भारत पर हमला किया। 1 सितंबर 1965 को कश्मीर पर हमला हुआ। भारत इस हमले से अचंभित रह गया और शुरुआती 5 दिन की लड़ाई में पाकिस्तान की फौज भारत पर भारी पड़ी। किंतु 6 सितंबर को भारत ने पंजाब में अंतरराष्ट्रीय सीमा पार कर पाकिस्तान पर हमला किया और युद्ध का रुख बदल गया। पाकिस्तान को उम्मीद नहीं थी कि भारत पंजाब की ओर से हमला करेगा, क्योंकि यह हिस्सा कभी विवादित क्षेत्र नहीं रहा था, जबकि कश्मीर को दुनिया विवादित मानती थी। किन्तु तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री ने यह साहसिक निर्णय किया। जिसके बाद कुछ ही दिनों में भारतीय फौज लाहौर, सियालकोट तक पहुंच गई, लेकिन अंतरराष्ट्रीय दबाव में दोनों पक्षों ने सीजफायर प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

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युद्ध लंबा चलता तो भारत एकतरफा विजयी होता

भारतीय पक्ष और विश्व के अधिकांश मिलिट्री विशेषज्ञ यह मानते हैं कि यह युद्ध कुछ दिन और चलता तो भारत निर्णायक रूप से पाकिस्तान पर विजय प्राप्त कर सकता था। भारत के पूर्व एयर चीफ मार्शल अर्जन सिंह ने वर्ष 2015 में अपने एक इंटरव्यू में यह बात कही थी कि “राजनीतिक कारणों से पाकिस्तान 1965 के युद्ध में जीत का दावा करता है। मेरी राय में, युद्ध एक प्रकार के गतिरोध में समाप्त हुआ। हम ताकत की स्थिति में थे, यदि युद्ध कुछ और दिन चलता तो हमें निर्णायक विजय प्राप्त होती। मैंने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को युद्धविराम के लिए सहमत न होने की सलाह दी थी। लेकिन मुझे लगता है कि उन पर संयुक्त राष्ट्र और कुछ देशों का दबाव था।”

भारत द्वारा सीजफायर स्वीकार करने का एक कारण आर्मी चीफ जयंतो नाथ चौधरी द्वारा प्रधानमंत्री को दी गई गलत जानकारी थी। जब लाल बहादुर शास्त्री ने आर्मी चीफ से यह पूछा कि भारत अभी कितने दिन युद्ध और लड़ सकता है, तो उन्होंने बताया कि भारत के पास अभी अधिक गोला बारूद नहीं बचा है। जबकि वास्तविकता यह थी कि भारत ने अपने पूरे आयुध सामग्री का केवल 14 से 20% का प्रयोग किया था, जबकि पाकिस्तान 80% आयुध सामग्री प्रयोग कर चुका था। ऐसे में कुछ दिनों की लड़ाई में भारत आसानी से पाकिस्तानी पंजाब का एक बड़ा हिस्सा जीत सकता था।

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सोवियत संघ ने नहीं दिया था साथ

वर्ष 1965 के युद्ध के बाद भारत ने कश्मीर में जितने हिस्से पाकिस्तान के हाथों गंवाए थे, उसका 3 गुना हिस्सा भारतीय सेना ने पाकिस्तानी पंजाब में जीत लिया था। किंतु भारत में समझौते के समय अपनी सैन्य उपलब्धि का सही प्रयोग नहीं किया। भारत सरकार चाहती, तो पाकिस्तान पर दबाव बनाकर न्यू वार क्लॉज पर पाकिस्तान को सहमत कर सकती थी, अर्थात् पाकिस्तान यह स्वीकार करता कि वह कभी भी युद्ध का पहल नहीं करेगा। गौरतलब है कि भारत के लिए कश्मीर का जितना सामरिक और आर्थिक महत्व है, उससे बहुत अधिक महत्व पाकिस्तानी पंजाब का पाकिस्तान के लिए है। ऐसे में भारत चाहता, तो इस बात पर अड़ सकता था कि पाकिस्तान पाक अधिकृत कश्मीर को खाली करे, तभी उसे पाकिस्तानी पंजाब के हिस्से वापस मिलेंगे। किन्तु भारत कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि हासिल नहीं कर सका।

ध्यान देने वाली बात है कि निश्चित रूप से लाल बहादुर शास्त्री ने बहुत विपरीत परिस्थितियों में भारत का नेतृत्व किया था। उस समय पाकिस्तान के पास अमेरिका जैसा सहयोगी था, जबकि भारत कूटनीतिक स्तर पर अकेले खड़ा था। नेहरू अपने पूरे शासन में सोवियत रूस के प्रवक्ता बने रहे, किंतु सोवियत रूस ने वर्ष 1965 में कूटनीतिक स्तर पर भारत की कोई सहायता नहीं की। दूसरी ओर चीन को पाकिस्तान का सहयोग भी प्राप्त था। ऐसे में लाल बहादुर शास्त्री अत्यधिक दबाव में निर्णय ले रहे थे। संभवत: यही कारण था कि भारत ने अपनी सैन्य उपलब्धि को कॉन्फ्रेंस टेबल पर अपनी पराजय में स्वयं ही बदल दिया!

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